लंदन की नौकरी छोड़कर देश का पहला आदिवासी स्टार्टअप चला रहे अमिताभ सोनी
भोपाल के गांव भानपुर केकड़िया के आदिवासी बच्चों और युवाओं के पालनहार हैं अमिताभ सोनी। विलेज क्वेस्ट कंपनी और अभेद्य एनजीओ चलाकर उन्ही के बीच, उन्ही के लिए पांच साल से जुटे हैं। आदिवासी लड़कियों को खेल टूर्नामेंट्स में भेज रहे, बच्चों को कंप्यूटर सिखा रहे, युवाओं को बड़े कॉलेजों में दाखिले दिला रहे।
मध्यप्रदेश में स्टार्टअप के कई ऐसे सटीक और सफल सोशल एक्सपेरिमेंट रहे हैं, जिन्हे जानकर लगता है कि देश में इतना प्रयोगधर्मी शायद ही कोई और राज्य हो। जैसेकि राजधानी भोपाल के 'बड़झिरी' का पहला डिजिटल गांव बन जाना, सतपुड़ा की वादियों में बसे होशंगाबाद के 'छेड़का' का गांधीवादी गांव के रूप में प्रसिद्ध हो जाना, बैतूल के 'बांचा' का देश का पहला सोलर विलेज हो जाना।
अलग-अलग आइडिया पर भिन्न-भिन्न उपलब्धियां मध्य प्रदेश का पूरे भारत में मान बढ़ा रही हैं। बड़े-बड़े ओहदे छोड़कर कई नामचीन शख्सियतें प्रदेश का आदिवासी जीवन स्तर उन्नत करने में जुटी हुई हैं।
ऐसे ही एक युवा प्रयोगधर्मी हैं इंदौर के अमिताभ सोनी, जो उच्च शिक्षा लेकर 2003 में इंग्लैंड गए नौकरी करने, दस साल ब्रिटिश सरकार के सोशल वेलफेयर बोर्ड में सेवारत भी रहे लेकिन मन नहीं लगा और 2014 में एक दिन अचानक लौटकर भोपाल से 28 किलो मीटर दूर के गांव भानपुर केकड़िया में देश का पहला आदिवासी ‘विलेज क्वेस्ट’ स्टार्टअप चलाने लगे।
आदिवासियों को कंप्यूटर एजुकेशन से लैस करने के लिए सोनी द्वारा स्थापित देश के इस पहले आदिवासी स्टार्टअप ‘विलेज क्वेस्ट’ (सॉफ्टवेयर कंपनी) को अब केकड़िया के ही युवा संभालने के साथ ही ग्राम पंचायतों की डेटा एंट्री कर उसी से अपना खर्च भी निकाल रहे हैं। आदिवासियों की जिंदगी संवारने के लिए अमिताभ की जिद और जुनून का हाल ये है कि इंग्लैड की सारी सुविधाएं, यहां तक कि पत्नी को भी वही छोड़कर भारत लौट आए।
उनका लंबा अरसा भोपाल में ही गुजरा था तो वहीं के सटे गांवों के आदिवासियों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए ‘अभेद्य’ एनजीओ चलाने लगे। छोटे-छोटे चेक डैम, स्टॉप डैम भी बनाने के प्रोजेक्ट पर काम करने लगे ताकि जैविक खेती से उनका जीवन स्तर उन्नत किया जा सके। आदिवासी बच्चों की एजुकेशन और रोजगार उनका पहला टारगेट रहा तो सबसे पहले उन्होंने ग्रामीण इलाकों का दौरा करने के बाद आदिवासी ग्राम पंचायत भानपुर केकडिया के स्कूल को जरूरी संसाधन मुहैया कराए। बच्चों को स्कूल से जोड़ने लगे।
बताते हैं कि अब यहां के स्कूल में बच्चों की सौ फीसदी उपस्थिति रहती है। छोटे-छोटे आदिवासी बच्चे कंप्यूटर चला रहे हैं। अब वे बच्चे हर मुलाकाती को अभिवादन में जयहिंद बोलते हैं। सोनी ने सेकंड हैंड लेकर कंप्यूटर लैब का इंतजाम किया है। दोस्तों से लेकर सोनी ने 18 बच्चों को शहरों के अच्छे स्कूल-कॉलेजों में दाखिला दिलाया है। यहां की आठ लड़कियां कार्फ बाल खेलने पंजाब गईं। उन्ही में एक आदिवासी मुकेश तोमर भोपाल के राष्ट्रीय विधि संस्थान विश्वविद्यालय में बीएएलएलबी कर रहे हैं। इसके पीछे सोनी का एक बड़ा मकसद आदिवासी प्रतिभाओं का अपनी जड़ों से पलायन रोकना है।
वह कहते हैं,
‘‘आदिवासी बच्चों को कंप्यूटर स्क्रीन के सामने घंटों टिकाए रखना कोई आसान काम नहीं है। इन बच्चों के रोजगार के लिए आईटी कंपनियों से कम्युनिकेशन दूसरी बड़ी चुनौती है।”
सोनी को अपने दोस्तों की मदद से ‘विलेज क्वेस्ट’ के लिए डेटा एंट्री का काम मिल जाता है। प्रोग्रामिंग और डेटा इंट्री कराने वाले पैसे देते हैं।
अमिताभ सोनी कहते हैं कि बाकी समुदाय के लोग तो अपने लिए कुछ न कुछ कर ही लेते हैं आदिवासियों के लिए बड़ा मुश्किल है। इसीलिए वह इनके साथ काम करते हैं। कॉलेज समय से ही उनसे घुले-मिले रहे हैं। कंप्यूटर कंपनी चलाने के लिए बिजली चाहिए तो उन्होंने कटौती से निपटने के लिए फंड जुटाओ अभियान चलाकर सौर पैनल लगवा लिया है।
ग्रामीणों से जुड़े प्रोजेक्ट के लिए खासकर जैन समाज के संपन्न लोगों और बड़ी सैलरी वाले दोस्तों से मदद मिल जाती है। इसी तरह उन्होंने बड़े फंड का जुगाड़ कर गांव की टंकी का पानी आदिवासी घरों तक पहुंचाया है।
‘विलेज क्वेस्ट’ के सीईओ कन्हैया निंगवाल कहते हैं,
‘‘कहीं बाहर नौकरी की गारंटी नहीं थी तो अपने गांव की कम्पनी में काम पाकर खुशी मिल रही है। यहां बच्चों को माइक्रोसाफ्ट ऑफिस, पेंटिंग, टाइपिंग जैसी कई चीजें सिखायी जाती हैं। हम अलग-अलग लोगों के छोटे-मोटे डेटा इंट्री आदि के काम करते हैं जिससे हमारा खर्चा निकल जाता है।”