महिलाओं में स्वास्थ्य जागरूकता बढ़ाने की जरूरत, मासिक धर्म के लिए लाना होगा किफायती समाधान
आज के वक्त में भी महिलाओं में मासिक धर्म को लेकर जागरूकता की कमी है. बहुत सी महिलाएं मासिक धर्म के दौरान कपड़े का इस्तेमाल करती हैं. सैनिटरी पैड का इस्तेमाल भी लैंडफिल में भारी मात्रा में प्रदूषण की वजह बनता जा रहा है.
वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम की 2021 ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट के अनुसार लैंगिक समानता के मामले में भारत दुनिया के 156 देशों की लिस्ट में 140वें नंबर पर है. ऐसे में भारत में लैंगिंक समानता हासिल करने के लिए महिलाओं की पहुंच हेल्थकेयर तक करना बहुत जरूरी है. महिलाओं के स्वास्थ्य में सबसे बड़ी दिक्कत है मासिक धर्म यानी पीरियड्स की, जिस दौरान उन्हें सैनिटरी पैड या कपड़ा इस्तेमाल करना होता है.
भारत में करीब 60-65 फीसदी महिलाएं आज भी पैड, टैम्पोन या कप जैसी सैनिटरी चीजों का इस्तेमाल नहीं करती हैं. बहुत सारी महिलाएं आज भी बिना सैनिटाइज किया हुआ कपड़ा, न्यूज पेपर या कुछ अन्य चीजों का इस्तेमाल करती हैं. इनके इस्तेमाल से महिलाओं के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ सकता है.
मासिक धर्म से जुड़ी दिक्कतें झेल रहीं महिलाएं
शहरों की तुलना में ग्रामीण भारत में हालात ज्यादा खराब हैं. कई महिलाओं को इस वजह से प्रेग्नेंसी के वक्त में काफी दिक्कत होती है. इसी वजह से महिलाओं में मासिक धर्म से जुड़ी बीमारियां, एनीमिया और यूटीआई यानी मूत्र मार्ग में संक्रमण काफी अधिक होता है.
बहुत सारी महिलाएं अक्सर इलाज छोड़ देती हैं और अपनी दिक्कतों को और भी बदतर बना देती हैं. यहां तक कि कई गंभीर मामलों में महिलाएं मेडिकल जांच के लिए लंबी दूरी तय करने से भी हिचकिचाती हैं. साथ ही भारत में मासिक धर्म के दौरान सफाई और वेलनेस को लेकर जागरूकता काफी कम है.
समाधान का किफायती होना जरूरी
आज के वक्त में बहुत सारी ऐसी महिलाएं भी हैं, जिन्हें सैनिटरी पैड के बारे में पता तो है, लेकिन वह उसके बजाय कपड़ा इस्तेमाल करती हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि सैनिटरी पैड उनके लिए किफायती नहीं होते. ऐसे में जरूरत है कुछ विकल्पों की, जो सैनिटरी पैड को रिप्लेस कर सकें या कम से कम उन पर निर्भरता को घटा सकें. अगर ऐसा होता है तो इससे संक्रमण से होने वाली बीमारियों में कमी आ सकती है.
अभी बाजार में मासिक धर्म के दौरान इस्तेमाल करने के लिए खास कर के दो तरह के विकल्प मौजूद हैं. पहला है सैनिटरी पैड, जो कई सारी कंपनियां बनाती हैं और इनका इस्तेमाल भी खूब होता है. दूसरा विकल्प हैं सिलिकॉन के मासिक धर्म कप, जिन्हें मासिक धर्म के दौरान इस्तेमाल किया जाता है. वैसे तो ये कप सैनिटरी पैड की तुलना में काफी महंगे होते हैं, लेकिन बार-बार इस्तेमाल किए जाने की वजह से वह किफायती बन जाते हैं.
सैनिटरी पैड और सिलिकॉन कप के फायदे-नुकसान
सैनिटरी पैड का इस्तेमाल बिल्कुल कपड़ा इस्तेमाल करने जैसा होता है, इसलिए अधिकतर महिलाओं को ये इस्तेमाल करना आसान लगता है. वहीं पीरियड्स कप को इस्तेमाल करने का तरीका इससे बिल्कुल अलग होता है. उसे थोड़ा अंदर डालना होता है, जो बहुत सारी महिलाओं को अजीब लगता है. सैनिटरी पैड पैकेट के अंदर पूरी तरह से सैनिटाइज होते हैं, जबकि कप को हर बार इस्तेमाल करने के लिए गर्म पानी से धोना पड़ता है या सैनिटाइज करना पड़ता है.
अगर एक बार या एक महीने इस्तेमाल करने की बात करें तब तो कप के मुबाकले पैड बहुत सस्ते होते हैं, लेकिन पैड को दोबारा इस्तेमाल नहीं किया जा सकता. वहीं दूसरी ओर पीरियड्स कप करीब 5 साल तक इस्तेमाल किए जा सकते हैं. सैनिटरी पैड को अगर 5 साल तक इस्तेमाल करें तो उसमें कप की तुलना में करीब 90-95 फीसदी अधिक खर्चा होगा. कप को बस एक बार खरीदना होगा और 5 साल तक इस्तेमाल कर सकते हैं, लेकिन सैनिटरी पैड हर बार के लिए नया खरीदना होगा.
अगर सैनिटरी पैड से तुलना करें तो कप को करीब 12 घंटों तक लगातार इस्तेमाल किया जा सकता है. वहीं सैनिटरी पैड के मामले में शुरुआती दिनों में हर 3-4 घंटे में पैड बदलना पड़ता है. वहीं बाद के दिनों में भी हर रोज कम से कम दो बार तो पैड बदलना ही पड़ता है. ये इसलिए जरूरी है क्योंकि पैड को अगर देर तक इस्तेमाल करते हैं तो फिर उससे रैशेज और इंफेक्शन होने का खतरा रहता है.
सैनिटरी नैपकिन से होने वाला प्रदूषण भी बड़ी दिक्कत
सैनिटरी नैपकिन की वजह से प्रदूषण की भी बड़ी दिक्कत हो रही है. इसे इस्तेमाल करने के बाद उसका निवारण बड़ी समस्या है. बहुत सारे ऐसे भी स्टार्टअप शुरू हो गए हैं जो इस समस्या का निवारण कर रहे हैं. इसके निवारण का एक विकल्प हो सकता है पीरियड्स कप. करीब 12.3 अरब सैनिटरी नैपकिन यानी लगभग 1.13 लाख टन वेस्ट हर साल लैंडफिल में पहुंचता है.
पैड बनाने में प्लास्टिक का उपयोग किया जाता है और हम सभी जानते हैं कि प्लास्टिक को नष्ट करने में सैकड़ों साल लगते हैं. एक सामान्य नैपकिन में करीब 90 फीसदी प्लास्टिक होता है. सेंट्रल पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड की 2018-19 की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर साल 33 लाख टन प्लास्टिक वेस्ट पैदा होता है. इसमें करीब 3 फीसदी हिस्सेदारी सैनिटरी पैड्स की है.
सैनिटरी पैड्स की तुलना में टैम्पोन थोड़े बेहतर होते हैं, क्योंकि यह ज्यादातर कपास से बने होते हैं. हालांकि, एक टैम्पोन को विघटित होने में भी लगभग 6 महीने लगते हैं और एक अध्ययन से पता चला है कि एक महिला अपनी पूरी जिंदगी में 8,000-17,000 टैम्पोन का उपयोग करती है. ऐसे में ये भी पीरियड्स कप एक बेहतर विकल्प हैं.
(लेखक Mild Cares (Gynocup) के को-फाउंडर और सीईओ हैं. आलेख में व्यक्त विचार लेखक के हैं. YourStory का उनसे सहमत होना अनिवार्य नहीं है.)
Edited by Anuj Maurya