शब्द-शब्द में जादू जैसी नागर जी की किस्सागोई
प्रेमचंदोत्तर हिंदी साहित्य के ज्वाजल्यमान नक्षत्र अमृतलाल नागर का आज (17 अगस्त) जन्म दिन है। गोकुलपुरा, आगरा (उ.प्र.) में रह रहे एक गुजराती परिवार में जन्मे नागर जी की किस्सागोई का लक्ष्य हमेशा आम आदमी रहा। उन्हें सर्वाधिक ख्याति उपन्यासकार के रूप में मिली।
हिंदी के जिन लेखकों के लेखन में भारतीय इतिहास लेखन के कुछ सूत्र मिलते हैं उनमें अमृतलाल नागर का स्थान महत्त्वपूर्ण है। उनकी छवि एक ऐसे कथाकार के रूप में उभरकर सामने आती है जिसने भारतीय समाज के इतिहास और शहरों की संस्कृति को जातीय (राष्ट्रीय) जीवन से जोड़कर लोक समाज के इतिहास को गहराई के साथ समझने और स्थापित करने की जिद ठान रखी हो।
प्रेमचंदोत्तर हिंदी साहित्य के ज्वाजल्यमान नक्षत्र अमृतलाल नागर का आज (17 अगस्त) जन्म दिन है। अपने सृजन-संसार हिंदी साहित्य को विविध विधाओं में समृद्ध करने वाले नागर जी अपनी जादू जैसी किस्सागोई के लिए ख्यात-प्रख्यात रहे हैं। यह किस्सागोई उनकी कहानियों और उपन्यासों के साथ ही उनके लिखे नाटकों, रेडियो नाटकों, रिपोर्ताज, निबंधों, संस्मरणों, अनुवादों, बाल साहित्य आदि में भी रची-बसी है। वैसे उन्हें सर्वाधिक ख्याति उपन्यासकार के रूप में मिली। गोकुलपुरा, आगरा (उ.प्र.) में रह रहे एक गुजराती परिवार में 17 अगस्त, 1916 को जन्मे अमृतलाल नागर जी की किस्सागोई का लक्ष्य हमेशा आम आदमी रहा।
'बूंद और समुद्र', 'अमृत और विष' जैसे उपन्यासों में ही नहीं, 'एकदा नैमिषारण्ये' और 'मानस का हंस' जैसे पौराणिक-ऐतिहासिक पीठिका पर रचित सांस्कृतिक उपन्यासों में भी उन्होंने उत्पीड़कों का पर्दाफाश और उत्पीड़ितों का साथ दिया। उनकी जिंदादिली और मनोविनोदी वृत्ति उनकी कृतियों को कभी विषादपूर्ण नहीं बनने देती है। 'नवाबी मसनद' और 'सेठ बांकेमल' में हास्य व्यंग्य की जो धारा प्रवाहित हुई है, वही उनके गंभीर उपन्यासों में भी विद्यमान है। इन कृतियों में विविध चरित्र पाठक को उल्लसित करते रहते हैं। इन चरित्रों में अच्छे-बुरे सभी प्रकार के लोग हैं, किन्तु उनके चित्रण में मनोविश्लेषणात्मकता को कम और घटनाओं के मध्य उनके व्यवहार को अधिक सजगता से रेखांकित किया गया है।
नागर जी को हिन्दी किस्सागोई की शान भी कहा जा जाता है। उनके उपन्यासों की सूची में महाकाल, बूँद और समुद्र, शतरंज के मोहरे, सुहाग के नुपूर, अमृत और विष, सात घूँघट वाला मुखड़ा, एकदा नैमिषारण्ये, मानस का हंस, नाच्यौ बहुत गोपाल, खंजन नयन, बिखरे तिनके, अग्निगर्भा, करवट, पीढ़ियाँ आदि उल्लेखनीय हैं। उनके कहानी संग्रहों में वाटिका, अवशेष, तुलाराम शास्त्री, आदमी, नही! नही!, पाँचवा दस्ता, एक दिल हजार दास्ताँ, एटम बम, पीपल की परी, कालदंड की चोरी, मेरी प्रिय कहानियाँ, पाँचवा दस्ता और सात कहानियाँ, भारत पुत्र नौरंगीलाल, सिकंदर हार गया, एक दिल हजार अफसाने के अलावा उन्होंने युगावतार, बात की बात, चंदन वन, चक्करदार सीढ़ियाँ और अँधेरा, उतार चढ़ाव, नुक्कड़ पर, चढ़त न दूजो रंग आदि नाट्य कृतियां भी रची हैं। व्यंग्य लेखन में नवाबी मसनद, सेठ बाँकेमल, कृपया दाएँ चलिए, हम फिदाये लखनऊ, मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ, चकल्लस आदि संग्रह उल्लेखनीय हैं। उनकी गदर के फूल, ये कोठेवालियाँ, जिनके साथ जिया, चैतन्य महाप्रभु, टुकड़े-टुकड़े दास्तान आदि कृतियों को भी काफी लोकप्रियता मिली।
हिन्दी-कथा साहित्य में भले ही प्रेमचंद कथा-सम्राट माने जाते हैं, लेकिन उनके ‘गोदान’ की टक्कर का कोई ‘कालजयी’ उपन्यास अगर कभी ढूंढ़ा जाएगा तो समीक्षक निश्चय ही ‘मानस का हंस’ को स्वीकार करेंगे। जिन महाकवि तुलसी दास ने विश्व साहित्य को कालजयी रचना के रूप में रामचरितमानस जैसा महाकाव्य दिया है, उन्हीं को कथाकार अमृत लाल नागर ने अपने इस कालजयी उपन्यास मानस का हंस में अमृत बना दिया है।मानस का हंस उपन्यास हिंदी साहित्य में संभवतः ऐसा पहला उपन्यास है,जो किसी महाकवि के जीवन को आधार बनाकर रचा गया हो। कथाकार अमृत लाल नागर ने वस्तुतः मानस का हंस और खंजन नयन शीर्षक से लिखे अपने दो उपन्यासों से हिंदी-जगत को दो ‘कालजयी’ महाकवियों के जीवन से परिचित कराया है, जो क्रमशः महाकवि तुलसी दास और महाकवि सूरदास हैं। सभी समीक्षकों ने एक स्वर से अमृत लाल नागर के इन दोनों उपन्यासों को ‘हिन्दी साहित्य’ की बेजोड़ निधि कहा है। इन दोनों कृतियों में भी आध्यात्मिक पुट और ठेठ मुहावरेदारी से भरपूर उनकी किस्सागोई के ठाट लहराते हैं।
किस्सागोई से भरपूर अपनी औपन्यासिक कृति 'मानस का हंस' के ‘आमुख’ में अमृत लाल नागर लिखते हैं- 'यह सच है कि गोसाईं जी की सही जीवन-कथा नहीं मिलती। यों कहने को तो रघुवर दास, वेणीमाधव दास, कृष्ण दत्त मिश्र, अविनाश रे और संत तुलसी साहब के लिखे गोसाईं जी के पांच जीवन चरित हैं किन्तु विद्वानों के मतानुसार वे प्रामाणिक नहीं माने जा सकते। रघुवर दास अपने आपको गोस्वामी जी का शिष्य बतलाते हैं, लेकिन उनके द्वारा प्रणीत ‘तुलसी चरित’ की बातें स्वयं गोस्वामी जी की आत्मकथापरक कविताओं से मेल नहीं खाती। इस उपन्यास को लिखने से पहले मैंने ‘कवितावली’ और ‘विनय पत्रिका’ को ख़ासतौर से पढ़ा। विनय पत्रिका में तुलसी के अन्तः संघर्ष के ऐसे अनमोल क्षण संजोए हुए हैं कि उसके अनुसार ही तुलसी के मनोव्यक्तित्व का ढांचा खड़ा करना मुझे श्रेयस्कर लगा। ‘रामचरितमानस’ की पृष्ठभूमि में मनस्कार की मनोछवि निहारने में भी मुझे ‘पत्रिका’ के तुलसी से ही सहायता मिली।'
अपनी रचनात्मक दशाएं और दिशाएं स्वयं रेखांकित करते हुए नागरजी ये भी बताते हैं कि वह लेखक कैसे बने। वह बताते हैं - 'हमारे घर में सरस्वती और गृहलक्ष्मी नामक दो मासिक पत्रिकाएँ नियमित रूप से आती थीं। बाद में कलकत्ते से प्रकाशित होनेवाला पाक्षिक या साप्ताहिक हिंदू-पंच भी आने लगा था। उत्तर भारतेंदु काल के सुप्रसिद्ध हास्य-व्यंग्य लेखक तथा आनंद संपादक पं. शिवनाथजी शर्मा मेरे घर के पास ही रहते थे। उनके ज्येष्ठ पुत्र से मेरे पिता की घनिष्ठ मैत्री थी। उनके यहाँ से भी मेरे पिता जी पढ़ने के लिए अनेक पत्र-पत्रिकाएँ लाया करते थे। वे भी मैं पढ़ा करता था। हिंदी रंगमंच के उन्नायक राष्ट्रीय कवि पं. माधव शुक्ल लखनऊ आने पर मेरे ही घर पर ठहरते थे। मुझे उनका बड़ा स्नेह प्राप्त हुआ। आचार्य श्यामसुंदरदास उन दिनों स्थानीय कालीचरण हाई स्कूल के हेडमास्टर थे। उनका एक चित्र मेरे मन में आज तक स्पष्ट है - सुबह-सुबह नीम की दातुन चबाते हुए मेरे घर पर आना। इलाहाबाद बैंक की कोठी (जिसमें हम रहते थे) के सामने ही कंपनी बाग था। उसमें टहलकर दातून करते हुए वे हमारे यहाँ आते, वहीं हाथ-मुँह धोते फिर चाँदी के वर्क में लिपटे हुए आँवले आते, दुग्धपान होता, तब तक आचार्य प्रवर का चपरासी 'अधीन' उनकी कोठी से हुक्का, लेकर हमारे यहाँ आ पहुँचता।
'आध-पौन घंटे तक हुक्का, गुड़गुड़ाकर वे चले जाते थे। उर्दू के सुप्रसिद्ध कवि पं. बृजनारायण चकबस्त के दर्शन भी मैंने अपने यहाँ ही तीन-चार बार पाए। पं. माधव शुक्ल की दबंग आवाज और उनका हाथ बढ़ा-बढ़ाकर कविता सुनाने का ढंग आज भी मेरे मन में उनकी एक दिव्य झाँकी प्रस्तुत कर देता है। जलियाँवाला बाग कांड के बाद शुक्लजी वहाँ की खून से रँगी हुई मिट्टी एक पुड़िया में ले आए थे। उसे दिखाकर उन्होंने जाने क्या-क्या बातें मुझसे कही थीं। वे बातें तो अब तनिक भी याद नहीं पर उनका प्रभाव अब तक मेरे मन में स्पष्ट रूप से अंकित है। उन्होंने जलियाँवाला बाग कांड की एक तिरंगी तस्वीर भी मुझे दी थी। बहुत दिनों तक वो चित्र मेरे पास रहा। एक बार कुछ अंग्रेज अफसर हमारे यहाँ दावत में आनेवाले थे, तभी मेरे बाबा ने वह चित्र घर से हटवा दिया। मुझे बड़ा दुख हुआ था। मेरे पिता जी आदि पूज्य माधव जी के निर्देशन में अभिनय कला सीखते थे, वह चित्र भी मेरे मन में स्पष्ट है। हो सकता है कि बचपन में इन महापुरुषों के दर्शनों के पुण्य प्रताप से ही आगे चलकर मैं लेखक बन गया होऊँ। वैसे कलम के क्षेत्र में आने का एक स्पष्ट कारण भी दे सकता हूँ।
'सन 28 में इतिहास प्रसिद्ध साइमन कमीशन दौरा करता हुआ लखनऊ नगर में भी आया था। उसके विरोध में यहाँ एक बहुत बड़ा जुलूस निकला था। पं. जवाहर लाल नेहरू और पं. गोविंद बल्लभ पंत आदि उस जुलूस के अगुवा थे। लड़काई उमर के जोश में मैं भी उस जुलूस में शामिल हुआ था। जुलूस मील डेढ़ मील लंबा था। उसकी अगली पंक्ति पर जब पुलिस की लाठियाँ बरसीं तो भीड़ का रेला पीछे की ओर सरकने लगा। उधर पीछे से भीड़ का रेला आगे की ओर बढ़ रहा था। मुझे अच्छी तरह से याद है कि दो चक्की के पाटों में पिसकर मेरा दम घुटने लगा था। मेरे पैर जमीन से उखड़ गए थे। दाएँ-बाएँ, आगे पीछे, चारों ओर की उन्मत्त भीड़ टक्करों पर टक्करें देती थी। उस दिन घर लौटने पर मानसिक उत्तेजनावश पहली तुकबंदी फूटी। अब उसकी एक ही पंक्ति याद है : "कब लौं कहो लाठी खाया करें, कब लौं कहौं जेल सहा करिये।"
'वह कविता तीसरे दिन दैनिक आनंद में छप भी गई। छापे के अक्षरों में अपना नाम देखा तो नशा आ गया। बस मैं लेखक बन गया। मेरा खयाल है दो-तीन प्रारंभिक तुकबंदियों के बाद ही मेरा रुझान गद्य की ओर हो गया। कहानियाँ लिखने लगा। पं. रूपनारायण जी पांडेय 'कविरत्न' मेरे घर से थोड़ी दूर पर ही रहते थे। उनके यहाँ अपनी कहानियाँ लेकर पहुँचने लगा। वे मेरी कहानियों पर कलम चलाने के बजाय सुझाव दिया करते थे। उनके प्रारंभिक उपदेशों की एक बात अब तक गाँठ में बँधी है। छोटी कहानियों के संबंध में उन्होंने बतलाया था कि कहानी में एक ही भाव का समावेश करना चाहिए। उसमें अधिक रंग भरने की गुंजाइश नहीं होती।
'सन 1929 में निराला जी से परिचय हुआ और तब से लेकर 1939 तक वह परिचय दिनोंदिन घनिष्ठतम होता ही चला गया। निराला जी के व्यक्तित्व ने मुझे बहुत अधिक प्रभावित किया। आरंभ में यदा-कदा दुलारेलालजी भार्गव के सुधा कार्यालय में भी जाया-आया करता था। मिश्र बंधु बड़े आदमी थे। तीनों भाई एक साथ लखनऊ में रहते थे। तीन-चार बार उनकी कोठी पर भी दर्शनार्थ गया था। अंदरवाले बैठक में एक तखत पर तीन मसनदें और लकड़ी के तीन कैशबाक्स रक्खे थे। मसनदों के सहारे बैठे उन तीन साहित्यिक महापुरुषों की छवि आज तक मेरे मानस पटल पर ज्यों की त्यों अंकित है। रावराजा पंडित श्यामबिहारी मिश्र का एक उपदेश भी उन दिनों मेरे मन में घर कर गया था। उन्होंने कहा था, साहित्य को टके कमाने का साधन कभी नहीं बनाना चाहिए। चूँकि मैं खाते-पीते खुशहाल घर का लड़का था, इसलिए इस सिद्धांत ने मेरे मन पर बड़ी छाप छोड़ी। इस तरह सन 29-30 तक मेरे मन में यह बात एकदम स्पष्ट हो चुकी थी कि मैं लेखक ही बनूँगा।
'सन 30 से लेकर 33 तक का काल लेखक के रूप में मेरे लिए बड़े ही संघर्ष का था। कहानियाँ लिखता, गुरुजनों से पास भी करा लेता परंतु जहाँ कहीं उन्हें छपने भेजता, वे गुम हो जाती थीं। रचना भेजने के बाद मैं दौड़-दौड़कर पत्र-पत्रिकाओं के स्टाल पर बड़ी आतुरता के साथ यह देखने को जाता था कि मेरी रचना छपी है या नहीं। हर बार निराशा ही हाथ लगती। मुझे बड़ा दुख होता था, उसकी प्रतिक्रिया में कुछ महीनों तक मेरे जी में ऐसी सनक समाई कि लिखता, सुधारता, सुनाता और फिर फाड़ डालता था। सन 1933 में पहली कहानी छपी। सन 1934 में माधुरी पत्रिका ने मुझे प्रोत्साहन दिया। फिर तो बराबर चीजें छपने लगीं। मैंने यह अनुभव किया है कि किसी नए लेखक की रचना का प्रकाशित न हो पाना बहुधा लेखक के ही दोष के कारण न होकर संपादकों की गैर-जिम्मेदारी के कारण भी होता है, इसलिए लेखक को हताश नहीं होना चाहिए।
'सन 1935 से 37 तक मैंने अंग्रेजी के माध्यम से अनेक विदेशी कहानियों तथा गुस्ताव फ्लाबेर के एक उपन्यास मादाम बोवेरी का हिंदी में अनुवाद भी किया। यह अनुवाद कार्य मैं छपाने की नियत से उतना नहीं करता था, जितना कि अपना हाथ साधने की नीयत से। अनुवाद करते हुए मुझे उपयुक्त हिंदी शब्दों की खोज करनी पड़ती थी। इससे मेरा शब्द भंडार बढ़ा। वाक्यों की गठन भी पहले से अधिक निखरी।'
हिंदी के जिन लेखकों के लेखन में भारतीय इतिहास लेखन के कुछ सूत्र मिलते हैं उनमें अमृतलाल नागर का स्थान महत्त्वपूर्ण है। उनकी छवि एक ऐसे कथाकार के रूप में उभरकर सामने आती है जिसने भारतीय समाज के इतिहास और शहरों की संस्कृति को जातीय (राष्ट्रीय) जीवन से जोड़कर लोक समाज के इतिहास को गहराई के साथ समझने और स्थापित करने की जिद ठान रखी हो। यह भी माना जाता है कि हिंदी आलोचना में नवजागरण के बहाने जो काम रामविलास शर्मा करते रहे, रचना के क्षेत्र में वहीं काम 1857 में हुए संघर्ष को, भारत का पहला स्वाधीनता संग्राम मानने के सवाल को लेकर एक ठोस असहमति के साथ अमृतलाल नागर करते रहे।
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