हिंदी के कालजयी उपन्यास 'रागदरबारी' के लेखक श्रीलाल शुक्ल की कहानी
वह हमेशा मुस्कुराकर सबका स्वागत करते थे लेकिन अपनी बात बिना लाग-लपेट कहते थे। व्यक्तित्व की इसी ख़ूबी के चलते उन्होंने सरकारी सेवा में रहते हुए भी व्यवस्था पर करारी चोट करने वाली 'राग दरबारी' जैसी रचना हिंदी साहित्य को दी।
वह सहज थे लेकिन सतर्क, विनोदी लेकिन विद्वान, अनुशासनप्रिय लेकिन अराजक। वह अंग्रेज़ी, उर्दू, संस्कृत और हिन्दी भाषा के विद्वान थे, साथ ही संगीत के शास्त्रीय और सुगम दोनों पक्षों के रसिक-मर्मज्ञ भी।
आज समकालीन कथा-साहित्य में उद्देश्यपूर्ण व्यंग्य लेखन के लिये विख्यात एवं उपन्यासकार के रूप में प्रतिष्ठित, 130 से अधिक पुस्तकों के लेखक श्रीलाल शुक्ल का जन्मदिन है। वह 1949 में राज्य सिविल सेवा - पीसीएस में चयनित हुए और 1983 में भारतीय प्रशासनिक सेवा - आईएएस से सेवानिवृत्त हो गए। 28 अक्टूबर 2011 को 86 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। अपनी लोकप्रिय कृतियों पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार, व्यास सम्मान, यश भारती, पद्मभूषण, ज्ञानपीठ आदि शीर्ष सम्मान मिले।
श्रीलाल शुक्ल का व्यक्तित्व अपने आप में एक मिसाल था। वह हमेशा मुस्कुराकर सबका स्वागत करते थे लेकिन अपनी बात बिना लाग-लपेट कहते थे। व्यक्तित्व की इसी ख़ूबी के चलते उन्होंने सरकारी सेवा में रहते हुए भी व्यवस्था पर करारी चोट करने वाली 'राग दरबारी' जैसी रचना हिंदी साहित्य को दी। वह सहज थे लेकिन सतर्क, विनोदी लेकिन विद्वान, अनुशासनप्रिय लेकिन अराजक। वह अंग्रेज़ी, उर्दू, संस्कृत और हिन्दी भाषा के विद्वान थे, साथ ही संगीत के शास्त्रीय और सुगम दोनों पक्षों के रसिक-मर्मज्ञ भी।
'कथाक्रम' समारोह समिति के वह अध्यक्ष रहे। उन्होंने गरीबी झेली, संघर्ष किया, मगर उसके विलाप से लेखन को नहीं भरा। उन्हें नई पीढ़ी भी सबसे ज़्यादा पढ़ती है। वे नई पीढ़ी को सबसे अधिक समझने और पढ़ने वाले वरिष्ठ रचनाकारों में से एक रहे। न पढ़ने और लिखने के लिए लोग सैद्धांतिकी बनाते हैं लेकिन शुक्लजी का लिखना और पढ़ना रुका तो गंभीर रूप से अस्वस्थ हो जाने के बाद। उन्होंने 1947 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक परीक्षा पास की। उन्होंने ब्रिटेन, जर्मनी, पोलैंड, सूरीनाम, चीन, यूगोस्लाविया जैसे देशों की यात्रा कर भारत का प्रतिनिधित्व भी किया।
श्रीलाल शुक्ल का विधिवत लेखन 1954 से शुरू होता है और इसी के साथ हिंदी गद्य का एक गौरवशाली अध्याय सामने आता है। उनका पहला प्रकाशित उपन्यास 'सूनी घाटी का सूरज' तथा पहला प्रकाशित व्यंग 'अंगद का पाँव' है। 28 अक्टूबर 2011 को 86 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। शुक्ल जी की प्रमुख कृतियां हैं- सूनी घाटी का सूरज, आओ बैठ लें कुछ देर, अंगद का पांव, रागदरबारी, अज्ञातवास, आदमी का ज़हर, इस उम्र में, उमराव नगर में कुछ दिन, कुछ ज़मीन पर कुछ हवा में, ख़बरों की जुगाली, विश्रामपुर का संत, मकान, सीमाएँ टूटती हैं, संचयिता, जहालत के पचास साल, यह घर मेरा नहीं है आदि। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार, व्यास सम्मान, यश भारती, पद्मभूषण, ज्ञानपीठ सम्मान, लोहिया सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, शरद जोशी सम्मान समेत अनेक सम्मान व पुरस्कार मिले।
दरअसल, श्रीलाल शुक्ल अपनी जिस कालजयी रचना के लिए विश्वप्रसिद्ध हुए, वह उपन्यास है- 'रागदरबारी'। यह अदभुत व्यंग्य कृति है जिसके लिए उन्हें सन् 1970 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह ऐसा उपन्यास है, जो गाँव की कथा के माध्यम से आधुनिक भारतीय जीवन की मूल्यहीनता को सहजता और निर्ममता से अनावृत्त करता है। शुरू से अन्त तक इतने निस्संग और सोद्देश्य व्यंग्य के साथ लिखा गया हिंदी का शायद यह पहला वृहत उपन्यास है। ‘राग दरबारी’ का लेखन 1964 के अन्त में शुरू हुआ और अपने अन्तिम रूप में 1967 में समाप्त हुआ। 1968 में इसका प्रकाशन हुआ और 1969 में इस पर शुक्लजी को इस पर अकादमी सम्मान मिला।
1986 में एक दूरदर्शन-धारावाहिक के रूप में इसे लाखों दर्शकों की लोकप्रियता मिली।'राग दरबारी' में श्रीलाल शुक्ल ने स्वतंत्रता के बाद के भारत के ग्रामीण जीवन की मूल्यहीनता को परत-दर-परत उघाड़ा। 'राग दरबारी' की कथा भूमि एक बड़े नगर से कुछ दूर बसे गाँव शिवपालगंज की है, जहाँ की जिन्दगी प्रगति और विकास के समस्त नारों के बावजूद, निहित स्वार्थों और अनेक अवांछनीय तत्वों के आघातों के सामने घिसट रही है। शिवपालगंज की पंचायत, कॉलेज की प्रबन्ध समिति और कोआपरेटिव सोसाइटी के सूत्रधार वैद्यजी साक्षात वह राजनीतिक संस्कृति हैं, जो प्रजातन्त्र और लोकहित के नाम पर हमारे चारों ओर बुरी तरह से फल फूल रही है।
श्रीलाल शुक्ल ने शिवपालगंज के रूप में अपनी अद्भुत भाषा शैली को मिथकीय शिल्प और देशज मुहावरों से गढ़ा था। त्रासदियों और विडंबनाओं के इसी साम्य ने ‘राग दरबारी’ को महान कृति बनाया, तो इस कृति ने श्रीलाल शुक्ल को महान लेखक। राग दरबारी व्यंग्य है या उपन्यास, यह एक श्रेष्ठ रचना है, जिसकी तसदीक करोड़ों पाठकों ने की है और कर रहे हैं। बाद में ‘विश्रामपुर का संत’, ‘सूनी घाटी का सूरज’ और ‘यह मेरा घर नहीं’ जैसी उनकी अन्य कृतियाँ भी साहित्यिक कसौटियों पर खरी साबित हुईं। बल्कि ‘विश्रामपुर का संत’ को स्वतंत्र भारत में सत्ता के खेल की सशक्त अभिव्यक्ति तक कहा गया था।
राग दरबारी को इतने वर्षों बाद भी पढ़ते हुए उसके पात्र हमारे आसपास नजर आते हैं। शुक्लजी ने जब इसे लिखा था, तब एक तरह की हताशा चारों तरफ़ नजर आ रही थी। यह मोहभंग का दौर था। ऐसे निराशा भरे महौल में उन्होंने समाज की विसंगतियों को चुटीली शैली में सामने रखा।
शुक्ल जी ने अपने लेखन को सिर्फ राजनीति पर ही केंद्रित नहीं होने दिया। शिक्षा के क्षेत्र की दुर्दशा पर भी उन्होंने गहरे तंज किए। सन 1963 में प्रकाशित उनकी पहली रचना ‘धर्मयुग’ शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त विसंगतियों पर आधारित रही। उसी के भाव आगे चल कर ‘अंगद का पाँव’ और ‘राग दरबारी’ में विस्तारित हुए। आज भी देश के अनेक सकारी स्कूलों की स्थिति दयनीय है। उनके पास अच्छा भवन तक नहीं है। कहीं-कहीं तो तंबुओं में कक्षाएँ चलाती हैं, अर्थात न्यूतम सुविधाओं का भी अभाव है।
श्रीलाल शुक्ल इस पर टिप्पणी करते हैं कि - 'यही हाल ‘राग दरबारी’ के छंगामल विद्यालय इंटरमीडियेट कॉलेज का भी है, जहाँ से इंटरमीडियेट पास करने वाले लड़के सिर्फ इमारत के आधार पर कह सकते हैं, सैनिटरी फिटिंग किस चिड़िया का नाम है। हमने विलायती तालीम तक देशी परंपरा में पाई है और इसीलिए हमें देखो, हम आज भी उतने ही प्राकृत हैं, हमारे इतना पढ़ लेने पर भी हमारा पेशाब पेड़ के तने पर ही उतरता है।' विडंबना यह है कि आज कल अध्यापक भी अध्यपन के अलावा सब कुछ करते हैं।
‘राग दरबारी’ के मास्टर मोतीराम की तरह वे कक्षा में पढ़ाते कम हैं और ज़्यादा समय अपनी आटे की चक्की को समर्पित करते हैं। ज़्यादातर शिक्षक मोतीराम ही हैं, नाम भले ही कुछ भी हो। ट्यूशन लेते हैं, दुकान चलाते हैं और तरह तरह के निजी धंधे करते हैं। छात्रों को देने के लिए उनके पास समय कहाँ बचता है? श्रीलाल शुक्ल कहते हैं कि - ‘आज मानव समाज अपने पतन के लिए खुद जिम्मेदार है। आज वह खुलकर हँस नहीं सकता। हँसने के लिए भी ‘लाफिंग क्लब’ का सहारा लेना पड़ता है। शुद्ध हवा के लिए ऑक्सीजन पार्लर जाना पड़ता है। बंद बोतल का पानी पीना पड़ता है। इंस्टेंट फूड़ खाना पड़ता है। खेलने के लिए, एक-दूसरे से बात करने के लिए भी वक्त की कमी है।’
शुक्ल-साहित्य में जीवन का संघर्ष है और अटूट साहित्य-सरोकार। श्रीलाल शुक्ल को साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला जरूर, लेकिन इसके बाद ज्ञानपीठ के लिए उन्हे बयालीस साल तक इंतज़ार करना पड़ा। इस बीच उन्हें बिरला फ़ाउन्डेशन का व्यास सम्मान, यश भारती और पद्म भूषण पुरस्कार भी मिले। लंबे समय से बीमार चल रहे शुक्ल को 18 अक्टूबर को उत्तर प्रदेश के राज्यपाल बी. एल. जोशी ने अस्पताल में ही ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया था। शुक्लजी की रचनाओं का एक बड़ा भाग गाँव के जीवन से संबंधित रहा। ग्रामीण जीवन के व्यापक अनुभव और निरंतर परिवर्तित होते परिदृश्य को उन्होंने बड़ी बारीक बुनावट के साथ विश्लेषित किया।
उन्होंने समाज की जड़ों तक जाकर पूरी गंभीरता और निष्ठा से समाज की कुरूपताओं की छान-बीन की, उसकी नब्ज पर हाथ साधा। इसीलिए कृषि प्रधान भारत का वह ग्रामीण संसार उनके साहित्य में लोक लालित्य के साथ देखने को मिला। उनके साहित्य की मूल पृष्ठभूमि ग्राम समाज है परंतु नगरीय जीवन की भी सभी छवियाँ उसमें देखने को मिलीं। श्रीलाल शुक्ल कहते हैं - 'कथालेखन में मैं जीवन के कुछ मूलभूत नैतिक मूल्यों से प्रतिबद्ध होते हुए भी यथार्थ के प्रति बहुत आकृष्ट हूँ।
पर यथार्थ की यह धारणा इकहरी नहीं है, वह बहुस्तरीय है और उसके सभी स्तर - आध्यात्मिक, आभ्यंतरिक, भौतिक आदि जटिल रूप से अंतर्गुम्फित हैं। उनकी समग्र रूप में पहचान और अनुभूति कहीं-कहीं रचना को जटिल भले ही बनाए, पर उस समग्रता की पकड़ ही रचना को श्रेष्ठता देती है।' जैसे मनुष्य एक साथ कई स्तरों पर जीता है, वैसे ही इस समग्रता की पहचान रचना को भी बहुस्तरीयता और व्यापकता प्रदान करती है।
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