"शतरंज से वाकिफ नही हैं , तो मियाँ ! सियासत में दखलंदाजी मत करिए और अगर आप कत्तई सियासतदां नही हैं और शतरंज के खिलाड़ी हैं, तो अपने झरोखे से बैठ कर जंगलात में खेले जा रहे सियासी चाल पर यह तो बोल ही सकते हैं, कि कौन पैदल सही चला है और कौन पैदल रानी के लिए अर्दभ में खड़ा हो रहा है...!"
"राजनीति और विशेषकर जनतंत्र में दो ऐसे कारक तत्व होते हैं जो सबसे पहले तंत्र को ही समाप्त करते हैं। एक है बाहुबल और दूसरा है धनबल। विडंबना यह है, कि जो वंचितों, दलितों, मजबूरों और मजलूमों के नेतृत्व का दम भरते रहे, वे उनके ही कंधों पर बैठ कर धन उगाही करते रहे। उनके लिए समाज का यह वंचित हिस्सा महज वोट बन कर रह गया है।"
अब जरा उत्तर प्रदेश का मौक़ा मुआइना करते हैं। पिछले दो दशक से भी ज्यादा हुआ, ये प्रदेश दो अतिवादियों के बीच लत्ते की गेंद बना हुआ है। कभी इस पाले में, तो कभी इस पाले से उस पाले में लुढ़क रहा है। इनकी खामियों को अभी देखने का वक्त नही है, अभी तो महज यह सिर्फ जान लेना जरुरी है, कि इन दो सरकारों का चरित्र क्या रहा है?
राजनीति और विशेषकर जनतंत्र में दो ऐसे कारक तत्व होते हैं, जो सबसे पहले तंत्र को ही समाप्त करते हैं। एक है बाहुबल और दूसरा धनबल। विडंबना यह है कि जो वंचितों, दलितों, मजबूरों और मजलूमों के नेतृत्व का दम भरते रहे हैं, वे उनके ही कंधों पर बैठ कर धन उगाही करते हैं। उनके लिए समाज का यह वंचित हिस्सा महज वोट बन कर रह गया है। दूसरी तरफ बाहुबल सियासत में स्थापित होकर समाज को खोखला बनाता रहा है। इनके यहाँ स्थापित सत्ता का केवल एक मतलब है और वो है लूट और तिजारत। उत्तर प्रदेश इन्हीं दो के बीच पिस रहा था। ऐसी दो राष्ट्रीय पार्टियों ने उत्तर प्रदेश की तरफ मुंह घुमाया। 14 के संसदीय चुनाव में भाजपा को मिली जीत ने उसके सपने को फैलाने के लिए अच्छी खासी जमीन दी, लेकिन मुद्दे कहाँ से लाये जायें? जनता के बीच जाने के लिए भाजपा के पास कोइ ठोस नारा तक नहीं है, सिवाय इसके कि वह समाजवादी सरकार के खिलाफ 'गुंडा राज' ख़त्म करने का वायदा करे। (गौरतलब है, कि समाजवादी सरकार पर गुंडई का मुलम्मा चढ़ाना, सामान्य बात रही है।) लेकिन इस बार भाजपा वह भी नहीं बोल पा रही है, क्योंकि जातीय वोट के चक्कर में उसने अन्य पिछड़ों में से जिसे प्रदेश का अध्यक्ष बनाया है उस पर दर्जनों अपराधिक मामले दर्ज हैं। ऐसे में भाजपा केवल कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा जोड़-घटा कर कुनबा तैयार करने में लगी है।
अब आती है कांग्रेस। मुख्यधारा की एक मात्र पार्टी। तकरीबन सात साल तक हुकुमत करने के बाद कांग्रेस आहिस्ता-आहिस्ता यथास्थितवाद की ओर झुक गयी है। अजगरी परंपरा में बैठी कांग्रेस खुद नहीं हिलती। जब उसका इंजन हिलता है, तो यह वहीं से बैठे-बैठे हुंकार मारती है।
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का जायका लें तो पच्चीस साल में कांग्रेस ने सदन में या सड़क पर ऐसा कुछ किया हो, जो जनता से जुड़ कर देखा गया हो। इसके दो अध्यक्ष... एक सलमान खुर्शीद और दूसरे निर्मल खत्री ऐसे रहे, जिनसे कुछ उम्मीद बनाती थी। लेकिन इनकी मजबूरियां भी कमाल की रहीं। केंद्र एक अध्यक्ष ही नही देता रहा, बल्कि साथ में भांति-भांति के तत्व भी लटका देता था, जो कि अभी भी जारी है। अब अध्यक्ष सूबे के कांग्रेसी को देखें या जो गौने में पालकी के साथ आये हैं? नतीजा यह हुआ कि नये चेहरों की भारती ही नहीं हुई और जो पुराने थे वे ठस। जस के तस। कभी इस कमिटी में कभी उस कमेटी में घूमते रहे।
आज राज बब्बर जब कांग्रेस अध्यक्ष बन कर लखनऊ आये, तो नौजवानों में एक नई उर्जा का संचार हुआ। क्योंकि राज बब्बर के काम का तरीका परम्परागत कांग्रेसी तरीके से अलग रहा है। संघर्ष और मुद्दों पर टकरा कर नये-नये चेहरों की खोज और उसकी शिक्षा जिससे राज आये हैं। यहाँ भी धीरे-धीरे भोथरी हो रही है। ऐसे में अगर राज बब्बर जोखिम लेकर अपने निर्णय पर अड़े, तो निश्चित रूप से कांग्रेस फायदे में रहेगी। जहां तक राहुल गांधी या सोनिया गांधी के हस्तक्षेप की बात है, ये दोनों ही किसी के काम में हस्तक्षेप नहीं करते, जब तक कि कोई बड़ा हादसा न हो जाये। अगर राज इस डगर पर चले तो संभव है, आगामी दो साल में कांग्रेस 52 की स्थिति में पहुँच जायेगी।
उत्तर प्रदेश के इस चुनाव में अखिलेश और राहुल गांधी के गठबंधन की जाजा हवा के झोंके का जनता को इंतज़ार है। अरसे बाद यह चुनाव होने जा रहा है, जो धनात्मक होगा ऋणात्मक नहीं। बहुत दिनों बाद जनता ने जाति, धर्म, लिंग अर्थ, बाहुबल, धनबल आदि सारी दीवारों को भसका कर अपने उम्मीदवार को वोट करने का मन बना लिया है। यह चुनाव एक तरफ़ा भी जा सकता है।