कारीगरों को आत्मनिर्भरता के गाढ़े रंग में रंगने वाला 'रंगसूत्र'
कारीगरों को दिलाया काम और सम्मानकला-संस्कृति के रंगों को एक सूत्र में पिरोया रंगसूत्र ने रंगसूत्र से 1100 से ज्यादा कारीगर जुड़े हैंकारीगर भी कंपनी के शेयर होल्डर हैंकारीगरों में ज्यादा संख्या महिलाओं का है
ये कहानी है एक ऐसी महिला की है जिसने भारत के गांव देहातों में जाकर वहां की कला को सहेजा, बुनकरों को रोजगार दिलवाया और वहां के लोकल टैलेन्ट को विश्व पटल पर स्थान दिलाया। हम बात कर रहे हैं रंगसूत्रा की सूत्रधार सुमिता घोष की। आज सुमिता की वजह से राजस्थान समेत भारत के कई राज्यों के कारीगारों की कला हमारे सामने है। बड़े बाजारों में उनका बनाया सामान बिक रहा है और उसका उन्हें उचित दाम भी मिल रहा है। एक बुनकर के लिए इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि उनकी मेहनत को पहचान, सम्मान के साथ-साथ उसे उचित मुनाफा भी मिले।
सुमिता का जन्म कलकत्ता में हुआ और उनकी परवरिश मुंबई में हुई। स्कूल के दिनों से ही सुमिता आत्मविश्वास से भरी एक ऐसी लड़की रही हैं जिन्हें सबसे ज्यादा भरोसा खुद पर रहा। उन्हें भरोसा था कि मेहनत के दम पर वे कुछ भी करने में सक्षम हैं। स्नातक के बाद उन्होंने अर्थशास्त्र में पोस्ट ग्रेजुएशन किया। सुमिता हमेशा से ही कुछ रचनात्मक कार्य करना चाहती थीं कुछ ऐसा काम जिसमें उन्हें कुछ नया और अलग करने को मिले। पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद सुमिता ने अपने मित्र संजॉय घोष से शादी कर ली और दोनों ने तय किया कि वह ग्रामीण इलाकों में कार्य करेंगे। उसके बाद दोनों ने ग्रामीण इलाकों का रुख किया। शुरुआत में काफी दिक्कतें भी आई लेकिन दोनों ने स्वयं को वहां के हिसाब से ढाला और बहुत जल्द ही वे अपनी इस नई जिंदगी में रम गए।
संजॉय और सुमिता ने राजस्थान में उर्मूल डेयरी में काम करना शुरू किया और साथ ही वहां के गांव वालों के लिए कुछ करने का निश्चय किया। 1987 में उस इलाके में सूखा आया और क्षेत्र के अधिकांश पशुओं की मृत्यु हो गई। लोगों के पास ना तो अन्न बचा था और ना ही अन्न खरीदने के लिए पैसे। तब सुमिता और संजॉय ने तय किया कि वे इस क्षेत्र के लोगों की जीविका के लिए काम करेंगे। किंतु वह क्या काम हो सकता है, जिससे ज्यादा से ज्यादा लोग जुड़ सकें? उन्होंने इस विषय में सोचना शुरु किया। काफी सोच विचार के बाद दोनों ने तय किया कि हैंडीक्राफ्ट का काम ऐसा है जिसे शुरु किया जा सकता है क्योंकि यह काम गांव के लोगों के लिए आसान होगा। बस फिर क्या था दोनों ने गांव वालों को अपने साथ जोडऩा शुरू किया। गांव के बुनकरों को प्रशिक्षित किया। क्वालिटी बनाए रखने के लिए नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजाइनिंग के विशेषज्ञों की मदद ली गई। गांव की जो महिलाएं कढ़ाई अच्छा करती थीं उन्हें नए-नए डिजाइनों पर काम करने को कहा गया। सुमिता कच्चा माल लातीं और गांव वालों को देती और फिर उसको बेचने जातीं। धीरे-धीरे दूर दराज के गांव वाले भी उनसे जुडऩे लगे और काम चल निकला। उसके बाद सुमिता दिल्ली आ गईं और फिर दो साल यूनाइटेड नेशन के साथ काम किया। वर्ष 1995 में बीजिंग में आयोजित इंटरनेशनल वुमन कांफ्रेंस में गांव की 200 महिलाओं के साथ भाग लिया।
इसके बाद संजॉय और सुमिता ने असम जाने का फैसला किया। यहां की परिस्थितियां भी अलग थी। सुमिता और संजॉय ने लोगों को सरकार की तत्कालीन योजनाओं के बारे में बताना शुरू किया और जागरुकता अभियान चलाया। सुमिता ने महिलाओं को बुनकर बनने का प्रशिक्षण देना आरंभ किया। यहां एक बड़ा रैकेट चल रहा था जिसमें लोकल कांट्रेक्टर मिले हुए थे सुमिता और संजॉय ने इनके खिलाफ पुरजोर आवाज उठाई, अखबारों में लिखा। इसके बाद ही अलगाववादी संगठन उल्फा के कट्नेटरपंथियों ने संजॉय का अपहरण कर लिया। आज उनका कोई पता नहीं चला। इस मुश्किल दौर में भी सुमिता ने संयम बनाए रखा। वे गुडग़ांव आईं और खुद को थोड़ा समय दिया। लेकिन कुछ ही दिनों में उन्होंने फिर कुछ करने के लिए खुद को तैयार किया। हार मान कर घर बैठ जाना उन्होंने शायद सीखा नहीं था। अब वह मन बना चुकी थीं कि फिर राजस्थान जाकर टेक्सटाइल और क्राफ्ट के क्षेत्र में काम करेंगी। उन्होंने राजस्थान व दूसरे राज्यों के बुनकरों से संपर्क किया। इस बार मकसद बुनकरों के लिए एक रिटेल शॉप खोलना था। 2004 में सुमिता ने रंगसूत्र नाम से एक प्रोड्यूसर कंपनी को रजिस्टर करवाया। महज दस लोगों ने 10-10 हजार रुपये जोड़कर काम शुरू किया। कार्य कठिन था, लेकिन असंभव नहीं। लोगों को प्रशिक्षण देने का कार्य शुरू हुआ। माल के लिए सही बाजार की तलाश शुरू हुई। पहले किसी भी बैंक ने लोन नहीं दिया क्योंकि ना तो उनके पास कोई बैलेंस शीट थी और न ही कुछ ऐसी चीज जिसके बदले लोन मिल पाता। काम रुका पड़ा था।मुनाफा ना के बराबर था।फिर तय हुआ कि रंगसूत्र को एक प्राइवेट कंपनी के रुप में फिर से रजिस्टर किया जाए। इसके तुरंत बाद फैब इंडिया और अविष्कार जैसे ब्रांड साथ आए। कारीगरों को भी कंपनी के शेयर दिए गए और मुनाफे में हिस्सेदार बनाया गया।
सुमिता ने कारीगरों को यह विश्वास दिलाया कि वे यहां मजदूर नहीं बतौर शेयर होल्डर हैं और इस कारण उनका,काम को लेकर जज्बा बढ़ गया।जिससे काम ने रफ्तार पकड़ी। आज 1100 से ज्यादा कारीगर रंगसूत्र से जुड़े हुए हैं। यहां डिजाइनिंग की पूरी श्रृंखला तैयार की जाती है। कढ़ाई, बुनाई, डिजाइनिंग यहां होता है।
रंगसूत्र की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यहां पर ज्यादा शेयर होल्डर महिलाएं ही हैं। ये महिलाएं हर महीने 5-6 हजार रुपये कमा रही हैं।अपनी कला के बूते छोटे-छोटे कारीगर भी रंगसूत्रा से जुड़े हुए हैं और निरंतर ऐसे कारीगरों की संख्या बढ़ती जा रही हैं क्योंकि अब उन्हें अपना माल बेचने के लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं है। रंगसूत्र को सबसे बड़ी चुनौती खुद से है और वो चुनौती है हमेशा अपने को बेहतर करते रहने की। निर्धारित समय पर माल की डिलीवरी की।इन्हीं सब चुनौतियों से मुकाबला करने के लिए रंगसूूत्र लगातार प्रयास कर रहा है। रंगसूत्र के पास अब काम की कोई कमी नहीं है क्योंकि यहां के उत्पादों की बाजार में काफी मांग है। रंगसूत्र आज कपड़ों के अलावा भी काफी अन्य प्रोडक्ट्स बना रहा है जिनकी बाजार में काफी मांग है।
सुमिता घोष का जीवन संघर्ष से भरा रहा है। चाहे लोगों को उनका हक दिलाने की लड़ाई हो। या फिर जीवन के सफर में अचानक पति का साथ छूट जाना हो। लेकिन इन सब परिस्थितियों में उन्होंने हिम्मत से काम लिया और लगातार लड़ती रहीं। विपरीत परिस्थितियों में भी काम करती रहीं। कभी हार न मानने वाले अपने इस जुझारू व्यक्तित्व की वजह से वे आज महिलाओं के लिए मिसाल हैं।