2019 के लोकसभा चुनावः पावरप्ले के महत्वपूर्ण ओवरों की शुरुआत होती है अब से
2019 में होने वाले आम चुनावों में 80 करोड़ से अधिक भारतीय मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे। उस समय भारत जो फैसला लेगा वह न सिर्फ हमारे देश के लिये बल्कि पूरी दुनिया के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण होगा।
शंघाई में जब आप किसी भी चीनी निवेशक या फिर व्यापारी से पूछें कि वे भारत को लेकर इतने अधिक आशावान क्यों हैं तो अधिकांश यह कहते मिलेंगे कि इस देश की तेजी से बढ़ती युवा आबादी उनके इस विश्वास का सबसे बड़ा कारण है।
2019 में होने वाले आम चुनावों में 80 करोड़ से अधिक भारतीय मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे। उस समय भारत जो फैसला लेगा वह न सिर्फ हमारे देश के लिये बल्कि पूरी दुनिया के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण होगा। यदि मनुष्यता का छठा हिस्सा एक लोकतांत्रित व्यवस्था के भीतर एक समावेशी विकास के लिये मतदान करने का फैसला करता है तो आने वाले दो दशकों में पूरे विश्व में गरीबी में कमी आएगी और साथ ही दुनियाभर में अर्थव्यवस्थाओं के लिये मौकों के नए दरवाजे भी खुलेंगे।
अगले वर्ष अप्रैल या मई के महीने में 800 मिलियन भारतीय मतदाता 17वीं लोकसभा (निचले सदन) के लिये प्रतिनिधियों को चुनने के लिये अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे। ऐसे में, दांव पर क्या लगा है? भविष्य। सच्चाई यह है कि हाइपबॉलिक या फिर सुर्खियां बटोरने के लिहाज से ये चुनाव सिर्फ बनाने या बिगाड़ने वाले नहीं हैं। मेरा ऐसा मानना है कि जब इस शताब्दी के उत्तरकालीन समय में इतिहासकार भारत को देखेंगे तो वे 2019 और इसके बाद 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों को या तो सहमति से या फिर बहद अफसोस की नजरों से देखेंगे।
शंघाई में जब आप किसी भी चीनी निवेशक या फिर व्यापारी से पूछें कि वे भारत को लेकर इतने अधिक आशावान क्यों हैं तो अधिकांश यह कहते मिलेंगे कि इस देश की तेजी से बढ़ती युवा आबादी उनके इस विश्वास का सबसे बड़ा कारण है।
वे बड़े उत्साह के साथ यह तुलना करते हैं कि कैसे आधारभूत ढांचे के आधार पर भारत आज उसी स्थान पर खड़ा है जहां 1990 के उत्तरार्ध या फिर 2000 के दशक के प्रारंभ में चीन खड़ा था यानी आम लोगों के जीवनस्तर में नाटकीय सुधार और उनकी खरीददारी की आदतों और क्षमताओं में एक महत्वपूर्ण चढ़ाव के शीर्ष पर। वे इस बात को भी मानते हैं कि चूंकि भारत ने चीन की तरह एक बच्चे वाली नीति को नहीं किया इसलिये भारत करीब 51 वर्ष तक जनसांख्यिकीय लाभांश का अधिक समय तक फायदा उठा पाएगा जबकि चीन के मामले में यह दौर सिर्फ 17-18 वर्ष का रहा। (नीचे दिया गया चार्ट देखें)
तस्वीर 1: चीन की तुलना में भारत के अधिक समय तक जनसांख्यिकीय लाभांश का फायदा उठाने की संभावना है क्योंकि वर्ष 2050 तक उसकी दो तिहाई आबादी के कामकाजी उम्र वाली रहेगी। हालांकि इस अंतर्निहित भविष्यवाणी का एक सीधा से मतलब यह भी हुआ कि भारत वह कर पाने में सफल रहेगा जो चीन ने 1980 के उत्तरार्ध से लेकर 2010 तक सफलतापूर्वक प्राप्त किया था - श्रमिक बल में प्रवेश करने वाली अपनी करोड़ों की आबादी के लिये रोजगार के सफल अवसर उत्पन्न कर पाना जिसके चलते आवास, ऑटो और उपभोक्ता क्रेडिट के क्षेत्रों में तेजी देखने को मिली।
यहां पर भारत के संदर्भ में यह देखना काफी दिलचस्प होगा कि ये चुनौतियां कितनी बड़ी हैं क्योंकि चीन की उपेक्षा यहां अनुकूल जनसांख्यिकी का अनुपात कहीं अधिक है। जनसांख्यिकी नियति नहीं है, खासकर बड़ी आबादी वाले देशों के लिये तो बिल्कुल नहीं।
मॉर्गन स्टेनली की बेहद एक रोचक रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले तीस वर्षों के वैश्वीकरण (1987-2017) के दौरान जो 74 देश मध्यम आय या विकासशील देशों के रूप में वर्गीकृत थे उनमें से केवल 19 उच्च आय या विकसित की श्रेणी में आ पाए। इनमें से केवल दो देशों, दक्षिण कोरिया और पोलैंड में 20 मिलियन से अधिक की आबादी थी। अपने जबर्दस्त विकास और जीवनस्तर में सुधार के बावजूद चीन विकसित देश की श्रेणी में स्थान बनाने से एक या दो दशक पीछे ही रहता है। निश्चित रूप से सिफ युवा होना ही समृद्ध होने की गारंटी नहीं है।
विकसित देश के रूप में उभरना
बीते एक दशक में भारत की सकल राष्ट्रीय आय (जीएनआई) 1,820 डॉलर प्रति व्यक्ति और जीएनआई विकास दर औसतन 5.6 प्रतिशत रही है। यह एक तरह से वर्ष 2017 क औसत भारतीय की आय और इसकी विकास दर का द्योतक है। वर्ष 2000 के बाद से प्रति वर्ष 1.6 प्रतिशत की औसत कामकाजी जनसंख्या वृद्धि दर को ध्यान में रखते हुए, यह अर्थव्यवस्था के लिए लगभग 7.2 प्रतिशत की सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर में परिवर्तित होता है।
अगर देश इसी गति से आगे बढ़ता रहा तो भारत को एक पीढ़ी में ही थाईलैंड और दक्षिण अफ्रीका की आय और जीवन स्तर के मानक के बराबर तक पहुंच जाना चाहिये और विकसित देशों की श्रेणी के निचले क्रम में आने वाले चेक गणराज्य और ग्रीस जैसे देशों की बराबरी तक अगली पीढ़ी में।
एक पीढ़ी में चीन की बराबरी करना और दो में पश्चिमी यूरोपीय राष्ट्रों कर श्रेणी में पहुंचने के लिये भारत की जीडीपी दर का विकास अगले 40 वर्षों तक लगातार दो अंकों में होना आवश्यक होगा और यह एक ऐसा अजूबा है जो इतिहास में अबतक कोई भी देश करने में सफल नहीं रहा है।
अगर क्रिकेट की भाषा में परिभाषित किया जाए, तो जनसांख्यिकीय लाभांष एक तरह का पावर प्ले है जिसमें जवान आबादी आपके लिये उच्च विकास लक्ष्यों को पाना बेहद आसान बना देती है। लेकिन सबसे बड़ी समस्या यह है कि भारत जिस टोटल का पीछा कर रहा है उसे पाने के लिये करीब 10 रन प्रति ओवर की दर से स्कोर करना जरूरी है।
अगर बाजार के पूर्वानुमानों पर भरोसा किया जाए तो धारणा यह है कि मजबूत विकास दर के चलते भारत स्वाभाविक रूप से रोजगार वृद्धि की एक स्वस्थ दर का नेतृत्व करेगा जिसके नतीजतन अधिक उत्पादन का सीधा सा मतलब होगा अधिक कंपनियां अधिक लोगों को रोजगार के अवसर प्रदान करेंगी। हालांकि भारत को अभी तक उस बेरोजार विकास की स्थिति में धकेला नहीं जा सका है जैसा कि 1991 के आर्थिक सुधारों के आलोचक दावा करते हैं, रोजगार में वृद्धि की दर अभी तक भी आर्थिक विकास से मेल खाने में असफल रही है।
उदाहरण के लिये विकास के लिये रोजगार की औसत मूल्य-सापेक्षता - जीडीपी विकास में प्रति 1 प्रतिशत वृद्धि में रोजगार दर में वृद्धि -- विकासशील से विकसित की श्रेणी में पहुंचने वाले देशों (इस लेख में उल्लिखित देशों) के मामले में 0.5 थी।
इसका सीधा सा मतलब यह है कि इन देशों में विकास दर में प्रति 1 प्रतिशत की वृद्धि के लिये रोजगार वृद्धि में 0.5 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। भारत के मामले में आर्थिक सुधारों पहले दशक में सह संख्या काफी कम (0.4) रही और यह पिछले दशक में काफी तेजी से गिरकर सिर्फ 0.25 तक आ गई है।
हमारे विचार से इस विसंगति के पीछे सबसे बड़ा कारण अन्य विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले काफी कड़े और सख्त श्रम कानून और ठेकेदारों द्वारा कामगारों के पक्ष में किया जाने वाला अपेक्षाकृत उच्च सामाजिक सुरक्षा भुगतान है।
इसके चलते नियेक्ता को पूंजी और स्वचालन में भारी निवेश करने या फिर अनुबंध के आधार पर मजदूरों को लेने पर मजबूर होना पड़ता है जहां पर कौशल और नियोजनीयता में किया जाने वाला निवेश पूर्णकालिक श्रमिकों की तुलना में काफी कम होता है।
विकास और रोजगार की अनिवार्यताओं में संतुलन साधना
आबादी की मौजूदा विकास दर के आधार पर आने वाले दशक के प्रत्येक वर्ष में भारत में औसतन 10 मिलियन लोग श्रमिकों के रूप में जुड़ने चाहियें। इस बात को ध्यान रचाते हुए कि पिछली जनगणना के मुताबिक देश में वर्तमान में 473 मिलियन रोजगार हैं, इसे पाने के लिये प्रतिवर्ष युवाओं के लिये रोजगार के अवसरों में 2.1 प्रतिशत की दर की वृद्धि आवश्यक होगी।
अगर हम यह मानकर चलें कि विकास के लिये नौकरियों की मूल्य सापेक्षता ऐसी ही बनी रहेगी यानि राज्यों या केंद्र के स्तर पर श्रम कानूनों में कोई महत्वपूर्ण बदलाव देखने को नहीं मिलेगा, तो भारत को प्रत्येक रोजगार इच्छुक व्यक्ति को नौकरी उपलब्ध करवाने के लिये लगातार 10 प्रतिशत जीडीपी विकास लक्ष्य को पाना बेहद आवश्यक होगा।
कोरिया, ताईवान, चीन और सिंगापुर जैसे अन्य एशियाई देशों की सफलता की कहानियों का अनुभव दर्शाता है कि विकास और रोजगार, दोनों अनिवार्यताओं को संतुलित करने का एक बिल्कुल पक्का तरीका है कृषि के क्षेत्र से लोगों को बाहर निकालते हुए उन्हें विनिर्माण, निर्माण और सेवाओं जैसे अपेक्षाकृत अधिक उत्पादक व्यवसायों में लगाना।
हालांकि अबतक भारत में गैर-कृषि क्षेत्र में रोजगार के अवसर बनाने में सभी सरकारों का रिकॉर्ड बेहद खराब ही रहा है। 2011 की जनगणना के आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि देश के सिर्फ 6 क्षेत्रों में जिनमें देश के 640 जिलों में से सिर्फ 30 आते हैं की आधी से अधिक आबादी गैर-कृषि कार्यों में लगी हुई है।
इसके अलावा इस तथ्य के बावजूद कि भारत में सत्ता संभालने वाली किसी भी सरकार के लिये रोजगार के अवसर बढ़ाना एक सबसे बड़ी चुनौती होगा, यह बेहद शर्म की बात है कि न तो भारत का सांख्यिकी कार्यालय और न ही आरबीआई के पास रोजगार डाटा से संबंधित कोई उच्च आवृति संकेतक उपलब्ध है जो देश में श्रम बाजार पर नजर रखने के लिये काफी सहायक साबित हो सकता है। विशेष रूप से यह ध्यान में रखते हुए कि लगभग सभी उभरते हुए बाजारों (चीन को छोड़कर) के पास ऐसे आंकड़े हैं।
विश्वसनीय डाटा की कमी के चलते ही उल्टे-सीधे दावों और पक्षपातपूर्ण आंकड़ों के लिये रास्ता मजबूत होता है। इसके चलते ही भारत में पिछले वर्ष पैदा किये गए रोजगारों का आंकड़ा 1.5 मिलियन से 12 मिलियन के बीच का है जो इस आधार पर बदलता है कि आप किससे पूछ रहे हैं।
2019 चुनावों में रोजगार के अवसरों का सृजन होगा सबसे बड़ी प्राथमिकता
भविष्य 2019 के आम चुनावों को जिस लेंस से देखेगा उसका सबसे बड़ा कारण रोजगार सृजन इयलिये होगा क्योंकि आज की तारीख में देश में मौजूद तमाम सामाजिक समस्याओं की जड़ यही है। बढ़ती आबादी, जलवायु परिवर्तन और जमीन के छोटे होते टुकड़ों ने कृषि को छोटे किसानो के लिये काफी जोखिम वाला रोजगार बना दिया है।
हालांकि खेतीहर किसानों के लिये रोजगार के जो अवसर मौजूद हैं वे अपरिहार्य, अनुबंध-आधारित गैर-कृषि-श्रमिक नौकरियों के रूप में उपलब्ध है। इसके चलते सरकारी नौकरियों में जाति आधारित आरक्षण, ऋणमाफी के लिये किसानों के विरोध प्रदर्शन और इन समस्याओं से निबटने के लिये राज्य सरकारों की लोकोपकारी प्रतिक्रियाएं राजकोषीय घाटे को बढ़ाने के साथ ही विकास को पटरी से उतारने का काम कर रही हैं।
इसके अलावा दीर्घकालिक अल्परोजगारी मनोविज्ञान को भी प्रभावित करती है जिसके चलते लोगों का विश्वास सामाजिक संस्थानों के प्रति कम होता है और वे अधिक कट्टरपंथी समाधानों और अपराध की राह पकड़ते हैं। दोनों ही तरफ के कट्टरपंथी इतनी आसानी से सड़कों और सोशल मीडिया पर रंगरूट सिर्फ इसलिये तलाश पा रहे हैं क्योंकि यथास्थिति के चलते श्रम बाजार के गलत किनारे पर खड़े युवा के पास खोने के लिये कुछ भी नहीं है और उन्हें कुछ या फिर कोई ऐसा स्त्रोत चाहिये जो स्थितियों को बदलने का माद्दा रखता हो।
ऐसे में भारत मई के महीने में क्या करने का फैसला करता है न सिर्फ देश बल्कि पूरी दुनिया के लिये काफी महत्वपूर्ण होगा। यदि मनुष्यता का छठा हिस्सा एक लोकतांत्रित व्यवस्था के भीतर एक समावेशी विकास के लिये मतदान करने का फैसला करता है तो आने वाले दो दशकों में पूरे विश्व में गरीबी में कमी आएगी और साथ ही दुनियाभर में अर्थव्यवस्थाओं के लिये मौकों के नए दरवाजे भी बिल्कुल वैसे ही खुलेंगे जैसे चीन 1990 के विश्व के सबसे बड़े कारखाने से वर्तमान दशक में विश्व के सबसे पसंदीदा बाजार के रूप में उभरा है।
वर्तमान भारतीय युवाओं, जो कुल मतदाताओं के आधे से भी अधिक होते हैं, के पास एक विकल्प मौजूद है - वे आज से 40 वर्ष बाद किस तरह के देश में अपनी अंतिम सांस लेना चाहेंगे।
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