'अनवर' फिल्म का मशहूर गाना 'मौला मेरे मौला' लिखने वाला शायर सुरेंद्र चतुर्वेदी
'अनवर' फिल्म का उनका गीत 'मौला मेरे मौला मेरे, आंखें तेरी कितनी हसीं' आज भी करोड़ों दिलों को खुद में डुबो लेता है। आइये बात करते हैं उन लफ्जों को पन्ने पर उकेरने वाले शायर-लेखक सूफी सुरेंद्र चतुर्वेदी की...
उनको चाहने वालों के कानो में अक्सर गूंजते रहते हैं। 'अनवर' फिल्म का उनका गीत 'मौला मेरे मौला मेरे, आंखें तेरी कितनी हसीं' आज भी करोड़ों दिलों को खुद में डुबो लेता है।
फ़कीराना तबीयत के मालिक सुरेन्द्र चतुर्वेदी के शेर भी ऐसे ही हैं- 'रूह मे तबदील हो जाता है मेरा ये बदन, जब किसी की याद में हद से गुज़र जाता हूँ मैं।
कहते हैं कि 'जिसके पास एहसासों की दौलत हो, वो अल्फाजों की गुलामी नहीं करता।' तो ऐसे ही अल्फाजों के दौलतमंद हैं सूफी शायर सुरेंद्र चतुर्वेदी। अजमेर (राजस्थान) के रहने वाले हरदिल अजीज सुरेंद्र चतुर्वेदी के गीत, 'शब को रोज जगा देता है, कैसी ख्वाब सजा देता है। जब मैं रूह में ढलना चाहूं, क्यों तू जिस्म बना देता है', उनको चाहने वालों के कानो में अक्सर गूंजते रहते हैं। 'अनवर' फिल्म का उनका गीत 'मौला मेरे मौला मेरे, आंखें तेरी कितनी हसीं' आज भी करोड़ों दिलों को खुद में डुबो लेता है। फिल्म 'लाहौर', 'घात', 'कहीं नहीं', 'नूरजहां' आदि में फिल्माए गए उनके गीतों ने भी उन्हें खूब शोहरत से नवाजा है। टी सीरिज से हिन्दी-उर्दू मिश्रित गीतों पर उनका एक एलबम 'तन्हा' जारी कर चुका है। चतुर्वेदी के अब तक सात गजल संग्रह, एक उपन्यास, 'अंधा अभिमन्यु', करीब पंद्रह कहानियां प्रकाशित हो चुकी हैं। 'मानव व्यवहार और पुलिस' नामक एक मनोविज्ञान पुस्तक भी छप चुकी है, जो आईपीएस को प्रशिक्षण के दौरान पढ़ाई जाती है।
छात्र जीवन से ही लेखन में जुट गए सुरेंद्र चतुर्वेदी दैनिक न्याय, दैनिक नवज्योति, दैनिक भास्कर, नवभारत टाइम्स, आकाशवाणी, दूरदर्शन और स्थानीय न्यूज चैनल से जुड़े रहे हैं। वह मुशायरों, कवि सम्मेलनों में भी शिरकत करते रहे हैं। सतपाल ख़याल लिखते हैं - सुरेन्द्र चतुर्वेदी आजकल मुंबई में फिल्मों में पटकथा लेखन से जुड़े हैं। किसी शायर की तबीयत जब फ़क़ीरों जैसी हो जाती है तो वो किसी दैवी शक्ति के प्रभाव में ऐसे अशआर कह जाता है जिस पर ख़ुद शायर को भी ताज्ज़ुब होता है कि ये उसने कहे हैं। फ़कीराना तबीयत के मालिक सुरेन्द्र चतुर्वेदी के शेर भी ऐसे ही हैं- 'रूह मे तबदील हो जाता है मेरा ये बदन, जब किसी की याद में हद से गुज़र जाता हूँ मैं। एक सूफ़ी की ग़ज़ल का शेर हूँ मैं दोस्तों, बेखुदी के रास्ते दिल में उतर जाता हूँ मैं।'
सुरेन्द्र चतुर्वेदी के बारे में गुलज़ार साहब ने कहा है - 'मुझे हमेशा यही लगा कि मेरी शक़्ल का कोई शख़्स सुरेन्द्र में भी रहता है, जो हर लम्हा उसे उंगली पकड़कर लिखने पे मज़बूर करता है।' अब आइए, नीरज गोस्वामी के शब्दों के साथ सुरेंद्र चतुर्वेदी की शख्सियत के बारे में थोड़ा और गहरे उतरते हैं। वह लिखते हैं- एक बार जयपुर प्रवास के दौरान वहां के दैनिक भास्कर अखबार में एक छोटी सी खबर छपी कि शायर सुरेन्द्र चतुर्वेदी से जयपुर के शायर लोकेश साहिल 'आर्ट कैफे' में बैठ कर बातचीत करेंगे। जयपुर में कोई आर्ट कैफे भी है, ये भी तब तक पता नहीं था। खैर, किसी तरह हमने आर्ट कैफे का पता किया और पहुँच गए।
सुरेन्द्र जी ने लोकेश जी से ढेरों बातें कीं और अपनी ग़ज़लें भी सुनाईं। जयपुर में इस तरह की अनौपचारिक बातचीत का ये अपने आप में अनोखा कार्यक्रम था। कार्यक्रम के बाद सुरेन्द्रजी से बातचीत हुई और उन्होंने मेरी रूचि और पुस्तकों के प्रति अनुराग देख कर उसी वक्त अपनी कुछ किताबें मुझे भेंट में दे दीं। उन्हीं किताबों के ज़खीरे में से एक ताज़ा छपी किताब 'ये समंदर सूफियाना है' का जिक्र करते हैं-
खुदाया इस से पहले कि रवानी ख़त्म हो जाए। रहम ये कर मेरे दरिया का पानी ख़त्म हो जाए। हिफाज़त से रखे रिश्ते भी टूटे इस तरह जैसे, किसी गफलत में पुरखों की निशानी ख़त्म हो जाए। लिखावट की जरूरत आ पड़े इस से तो बेहतर है हमारे बीच का रिश्ता जुबानी ख़त्म हो जाए। हज़ारों ख्वाइशों ने ख़ुदकुशी कुछ इस तरह से की बिना किरदार के जैसे कहानी ख़त्म हो जाए। वह बताते हैं कि सुरेन्द्र चतुर्वेदी ने अपने लेखन की शुरुआत कविताओं से की और फिर वो कवि सम्मेलनों में बुलाये जाने लगे। मंचीय कवियों की तरह उन्होंने ऐसी रचनाएँ रचीं, जो श्रोताओं को गुदगुदाएँ और तालियाँ बजाने पर मजबूर करें। ज़ाहिर है ऐसी कवि सम्मेलनी रचनाओं ने उन्हें नाम और दाम तो भरपूर दिया लेकिन आत्मतुष्टि नहीं। साहित्य के विविध क्षेत्रों में हाथ आजमाने के बाद अंत में ग़ज़ल विधा में वो सुकून मिला, जिसकी उन्हें तलाश थी।
फैसलों में अपनी खुद्दारी को क्यूँ जिंदा किया। उम्र भर कुछ हसरतों ने इसलिए झगड़ा किया। मुझसे हो कर तो उजाले भी गुज़रते थे मगर, इस ज़माने ने अंधेरों का फ़क़त चर्चा किया। मैंने जब खामोश रहने की हिदायत मान ली, तोहमतें मुझ पर लगा कर आपने अच्छा किया। कुछ नहीं हमने किया रिश्ता निभाने के लिए, अब जरा बतलाइये कि आपने क्या क्या किया। सुरेन्द्र जब फिल्मों में किस्मत आजमाने के लिए मुंबई लिए रवाना हुए तो परिवार और इष्ट मित्रों ने उन्हें वहां के तौर तरीकों से अवगत कराते हुए सावधान रहने को कहा। मुंबई के सिने संसार में अच्छे साहित्यकारों की जो दुर्गति होती है, वो किसी से छिपी नहीं। सुरेन्द्र ने मुंबई जाने से पहले किसी भी कीमत पर साहित्य की सौदेबाजी न करने का दृढ़ निश्चय किया। मुंबई प्रवास के शुरुआती दौर में उन्हें अपने इस निश्चय पर टिके रहने में ढेरों समस्याएं आयीं लेकिन वह अपने निश्चय पर अटल रहे।
मुंबई की फिल्म नगरी में दक्ष साहित्यकारों की रचनाओं को खरीद कर या उनसे लिखवा कर अपने नाम से प्रसारित करने वाले मूर्धन्य साहित्यकारों की भीड़ में सुरेन्द्र को एक ऐसा शख्स मिला जिसने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी। उस अजीम शख्स को हम सब गुलज़ार के नाम से जानते हैं। अपनी एक किताब में सुरेन्द्र कहते हैं "ज़िन्दगी में पहली बार महसूस हुआ कि फ़िल्मी कैनवास पर कोई रंग ऐसा भी है, जो दिखता ही नहीं, महसूस भी होता है।'
वह कहते हैं कि गुलज़ार साहब के व्यक्तित्व और कृतित्व ने मुझे बेइन्तेहा प्रभावित किया। सुरेन्द्र और उनकी की शायरी के बारे में गुलज़ार साहब फरमाते हैं, 'सुरेन्द्र की ग़ज़लों में बदन से रूह तक पहुँचने का ऐसा हुनर मौजूद है, जिसे वो खुद सूफियाना रंग कहते हैं मगर मेरा मानना है कि वे कभी कभी सूफीज्म से भी आगे बढ़ कर रूहानी इबादत के हकदार हो जाते हैं। कभी वे कबायली ग़ज़लें कहते नज़र आते हैं तो कभी मौजूदा हालातों पर तबसरा करते!'
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