एक रुपए से शुरू हुआ था 450 करोड़ सालाना कमाने वाली कंपनी अग्रवाल पैकर्स एंड मूवर्स का कारोबार
1987 में जब रमेश अग्रवाल ने भारतीय वायुसेना की नौकरी छोड़ी थी, तब उनके पास केवल एक रुपया था। वो अपनी सारी कमाई दान कर चुके थे। शून्य पूंजी के साथ, वो सोच रहे थे कि क्या करें, भारतीय वायुसेना के अधिकारी, सुभाष गुप्ता ने उन्हें पैकर्स एंड मूवर्स सेवा शुरू करने का सुझाव दिया।
अग्रवाल पैकर्स एंड मूवर्स का सफ़र सिकंदराबाद(हैदराबाद) के एक छोटे से ऑफिस से शुरू हुआ, जिसका किराया 250 रुपये प्रतिमाह था। भारतीय वायुसेना में चार स्थानांतरण करने के बाद, भारतीय वायुसेना के ट्रको का उपयोग करते हुए 30 साल पुरानी रसद कम्पनी ने पूरे देश में लगभग 83000 घरों का स्थानांतरण किया।
5000 से ज़्यादा लोगो की टीम के साथ अग्रवाल पैकर्स एंड मूवर्स की पूरे देश में 103 शाखाएँ हैं। कम्पनी के पास खुद के 1000 से ज़्यादा ट्रक हैं, 1000 से ज़्यादा किराये के ट्रक हैं, और 2000 से ज़्यादा लॉकर की सुविधा है, जो आने वाले साल में 10000 तक हो जाने की उम्मीद है। ये हर साल करीब 450 करोड़ से भी ज़्यादा का राजस्व बनाती है।
54 वर्षीय रमेश वायुसेना में एक अधिकारी थे। उन सभी कठिनाइयों के बारे में जानते थे, जिनका सामना अधिकारियों को करना पड़ता था। खासकर तब, जब उन्हें नियमित रूप से स्थानांतरित होना पड़ता है। जब सुभाष ने उन्हें सुझाव दिया, वो संस्था को बनाने के कार्य में लग गये।
रमेश बताते हैं, " मैंने इस सुझाव पर विचार किया और ये मुझे काम का लगा, मैं जानता हुँ कि इस खेल में विभिन्न बारीकियाँ हैं। आपके पास चालान, बिल्स, कन्साइनमेंट नोट्स, सामग्रियों की सूचि होनी चाहिये। साथी अधिकारियों से नियामित ट्रांसपोर्टर्स की एक फोटोकॉपी लेकर, मैंने भारतीय वायुसेना के अधिकारियों के लिए इस सेवा की शुरुआत की।"
शुन्य पूंजी के साथ, रमेश के लिए सबसे चुनौतीपूर्ण काम भारतीय वायुसेना के बाहर प्रचार करना था। अपने भाई राजेंद्र अग्रवाल को साथ लेते हुए, रमेश ने कैलेंडर्स में अपना नम्बर देने का निर्णय लिया, जिसमे उनके 4000 रुपये खर्च हुए।
रमेश के दोस्त विजय और उनकी माता उनकी मदद के लिए आगे आये और उन्हें पूँजी देने के लिए राज़ी हो गये, लेकिन बदले में विजय को संस्थापक टीम का हिस्सा बनाना पड़ा। यह अलग बात है कि बाद में विजय ने अग्रवाल पैकर्स एंड मूवर्स छोड़ने का निर्णय लिया और राजनीति में अपना भविष्य बनाने का फैसला किया।
पहले चार स्थानांतरण जो उन्होंने किये उससे उनके ऑफिस का शुरुआती खर्च निकल गया। रमेश बताते हैं कि उन्हें 8000 रुपये का लाभ हुआ, जिसमे से उन्होंने 4000 रुपये विजय का माँ को लौटा दिये, और बचे हुए पैसो को ऑफिस चलाने में खर्च किया।
एक भावात्मक वाहक का निर्माण
उन्होंने एक ऐसे युग से शुरुआत की जो आज की मोबाइल ऍप्स और तकनीक की दुनिया से बिलकुल अलग था, अग्रवाल पैकर्स एंड मूवर्स अपने आप को बाज़ार के दूसरे खिलाड़ियों से अलग रखने में सफल हुए।
आज, बाज़ार में गृह सेवा और स्थानांतरण के कई खिलाड़ी मौजूद हैं, लेकिन अग्रवाल पैकर्स एंड मूवर्स अभी भी दावा करते हैं कि वो बाज़ार में सबसे ऊँचे स्थान पर हैं। यहाँ पर लॉकर सुविधा के जनक बॉक्समी हैं, जो लोग स्थानांतरण करना चाहते हैं, उनके लिए मुम्बई-आधारित कम्पनी बुक माय स्पेस और अर्बन क्लेप की तरह उच्चकोटि की वित्त पोषित कम्पनी है। रमेश आगे बताते हैं कि एक भावात्मक वाहक के रूप में वो अपनी अलग पहचान बनाने में सफ़ल हुए। वो बताते हैं,
"घर को स्थानांतरित करना न सिर्फ सामान या पैसों को स्थानांतरित करना नहीं होता। इस सामान के साथ इंसान अपनी यादों को भी स्थानांतरित करता है, और यादों के साथ भावनाएँ हमेशा जुड़ीं रहती है। अगर किसी मकान मालिक के पास 30 साल पुराना रेडियो है जोकि बेकार हो चुका है और अब उसकी कीमत शून्य है, लेकिन अब भी इतना कीमती है कि इसे पैक किया गया है, हो सकता है कि उसके पिता या उसके दादा का हो। ये बहुत ज़रूरी है कि आप की टीम को इसकी कीमत का एहसास हो और उसे पूरा सम्मान दे।"
रमेश का विश्वास है कि तकनीक चाहे जितनी भी आगे बढ़ जाये और कोई भी ऐप्प आप इस्तेमाल करें, टीम और ग्राउंड स्टाफ में भावनाओं का जमाव बहुत ज़रूरी है जो वास्तव में सामान को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने का काम करते हैं।
एक मज़बूत नींव का निर्माण
पहले 10 लोगों की नियुक्ति करना मुश्किल था जो नेतृत्व करें और इस परम्परा को आरम्भ करें, लेकिन इसके बाद ये काम आसान हो गया, पहले 10 लोग जो महत्वपूर्ण थे, उन्हें रमेश पर भरोसा था। उन्होंने अपने दोस्तों, वायुसेना के लोगों, अपने अपने गांव से अग्रणी लोगो को जोड़ा।
40 साल के बैंक एग्जीक्यूटिव, जिन्होंने अग्रवाल पैकर्स एंड मूवर्स की सेवा ली बताते हैं कि, "ये बहुत अच्छा अनुभव था जब पैकर्स दिल से आपके लिए काम करते हैं और आपके सामान की उसी तरह खातिरदारी करते हैं, जिस तरह आप चाहते हैं। वो आपकी ज़रूरतो को सुनते हैं, और कोई काम बिना सोचे समझे नहीं करते हैं।"
टीम ने चोलामंडलम फाइनेंस की मदद से पहला ट्रक ख़रीदा। उन्होंने अग्रवाल पैकर्स एंड मूवर्स के सामने ऐसे ट्रक का प्रस्ताव रखा, जो पहले से ही कोई ख़रीद चुका था, लेकिन उसका भुगतान करने में सक्षम नही था। 1993 में, जीई कैपिटल ने अग्रवाल पैकर्स एंड मूवर्स की और ज़्यादा ट्रक खरीदने में मदद की, और जल्द ही बेड़े का आकार बढ़ना शुरू हुआ।
हर दर्द की दवा
जब रमेश ने कारोबार की शुरुआत की बाज़ार में केवल खुले ट्रक थे। पैकर्स की टीम को ट्रक की छत पर चढ़कर उसे कपड़े और रस्सी से बांधना पड़ता था। यह कुशल तरीका न होने के कारण वो चाहे जितनी भी कोशिश करते सामान इधर-उधर हिलता रहता था।
इस समस्या से लड़ने के असरदार तरीके के बारे में सोचते हुए रमेश ने निर्णय लिया कि उन्हें एक पूर्ण रूप से स्टील के बने बाड़े की ज़रूरत है। इसलिए 1994 में, रमेश ने अपने एक दोस्त की मदद से स्टील से बने एक बाड़े का निर्माण किया। ये रसद उद्योग में एक बदलाव की शुरूआत थी। टीम को ये भी पता चला कि सामान को स्थानांतरित करने में वो जिन लकड़ी के डिब्बों का प्रयोग करते हैं, उन्हें हथोड़े से ठोकते समय उनके अंदर मौजूद सामान को क्षति पहुचती है।
टीम ने पोर्टेबल बॉक्सेस बनाने का निर्णय लिया, जिसमें 18 मिमी साइज़ की विधुतरोधी थर्मोकोल की शीट लगी थी। पैकेजिंग के इस नवीनीकरण के कारण भाड़े में होने वाले खर्चे में भी भारी गिरावट आयी। उन्होंने 72 रुपये कीमत वालो डिब्बों को बदलकर आसानी से उपयोग में लाये जाने वाले थैलो का प्रयोग किया, जिनकी कीमत 38 रूपये थी। नालीदार शीट्स के स्थान पर लचीले थर्मोकोल का प्रयोग किया गया, जिससे इसकी कीमत 7 रुपये से घटकर 2.5 रुपये प्रति शीट हो गयी। गाड़ियों के पेट्रोल टैंक को नुकसान से बचाने के लिए हवादार कंटेनर का प्रयोग किया गया।
जब टीम को ये एहसास हुआ के कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो खास तरह का ट्रक चाहते हैं, लेकिन उसकी कीमत नहीं चुका सकते, यहां तक कि उसके आधे हिस्से की भी कीमत नही चुका सकते, तब टीम ने ट्रकिंग क्यूब्स या लॉकर बनाने का निर्णय लिया।
हर लॉकर ग्राहक को उसकी ज़रूरत के हिसाब से दिया जाता था। सामान को लॉकर में पैक कर दिया जाता था और भेज दिया जाता था, लाकर की चाबी सामान के मालिक के पास होती थी और किसी और को मालिक के अलावा उसे खोलने की आज्ञा नहीं थी।
इन लॉकर्स के साथ, अब अग्रवाल पैकर्स एंड मूवर्स ने खाद्य और औषधीय उद्योग परिवहन की तरफ रुख किया। रमेश कहते है की खाने को बंद डिब्बो में पैक करने वजह से, बहुत सा खाना अपनी समय सीमा से पहले ही ख़राब हो जाता था।
रमेश कहते हैं, "प्रतिदिन 10 प्रतिशत खाना और औषधीय सामग्री खराब हो जाती हैं। साबुन, अगरबत्ती अदि को बिस्कुट के साथ पैक करना बहुत ही हानिकारक हो सकता है। मुझे लगता है साबुन , दवाइयों और खाद्य सामग्री के लिए अलग-अलग लाकर्स का प्रयोग करना चाहिए। मेरा इरादा है कि हम 10,000 क्यूब्स बनायें और हमारा टर्नओवर 1200 करोड़ तक पहुँच जाये, और फिर हम एक लाख क्यूब्स बनायेंगे जिससे हमारा टर्नओवर 5000 करोड़ तक पहुँच जायेगा।"
रमेश का कहना है कि जहाँ जहाँ ग्राहक को पीड़ा होती है , हमारी टीम का उद्देश्य लगातार उनकी समस्याओं का समाधान करना होता है। वो दिन लद गए जब हम डिब्बों का प्रयोग करते थे और अपने सभी दोस्तों और परिवारजनों को इकट्ठा करके अपने घर को स्थानांतरित करने में मदद लेते थे।
रमेश स्पष्ट करते हैं, "जब अग्रवाल पैकर्स एंड मूवर्स की पहली शुरुआत हुई, हमने अपने दिन की शुरुआत सुबह 4 बजे की, नज़दीकी दुकानों से डिब्बे ख़रीदे, सामान पैक किया, उन्हें बचाने के लिए कपड़े और पेपर का प्रयोग किया और उन्हें ट्रक में रख दिया। हमने 2000 से भी ज़्यादा डिब्बे पैक किये, जिसमे 18 घण्टे लगे। आज सबकुछ बदल गया है। का एक आदमी से शुरू हुआ था। आज हमारे पास लोगों की एक बड़ी टीम है।"
मूल ःसिंधु कश्यप
अनुवादकः बिलाल एम जाफ़री