लोक कथाओं को नई दिशा देने वाले पद्मश्री विजयदान देथा
साहित्य अकादमी सहित अनेक पुरस्कारों से समादृत बिज्जी ने आठ सौ से अधिक कहानियाँ लिखी हैं, जिनमें से अनेक का अनुवाद विभिन्न भाषाओं में हुआ है।
उनकी कहानियों पर आधारित तीन हिन्दी फिल्में - दुविधा, पहेली और परिणीता - बन चुकी हैं और चरनदास चोर सहित अनेक नाटक लिखे और मंचित हुए।
10 नवंबर 2013 को 87 साल की उम्र में उनका निधन हो गया। उन्होंने बच्चों के लिए भी कई सारी कहानियां लिखीं। वे हमारे स्मृति में हमेशा जीवित रहेंगे।
हिंदी साहित्य में 'बिज्जी' के नाम से ख्यात पद्मश्री विजयदान देथा अकेले ऐसे कथाकार हैं, जिनकी रचनाओं में लोक का प्रखर आलोक बिखरा पड़ा है। आज (10 नवंबर) उनकी पुण्यतिथि है। जोधपुर (राजस्थान) के कस्बानुमा बोरुंदा गांव की पहचान उनके ही नाम से रही है। साहित्य अकादमी सहित अनेक पुरस्कारों से समादृत बिज्जी ने आठ सौ से अधिक कहानियाँ लिखी हैं, जिनमें से अनेक का अनुवाद विभिन्न भाषाओं में हुआ है। राजस्थान की लोक कथाओं और कहावतों के संग्रह एवं पुनर्लेखन के क्षेत्र में उनका योगदान अविस्मरणीय है।
उनकी कहानियों पर आधारित तीन हिन्दी फिल्में - दुविधा, पहेली और परिणीता - बन चुकी हैं और चरनदास चोर सहित अनेक नाटक लिखे और मंचित हुए। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं- बातारी फुलवारी, रूँख, दुविधा और अन्य कहानियाँ, उलझन, सपनप्रिया, अन्तराल, राजस्थानी-हिन्दी कहावत कोश, राजस्थानी लोक गीत आदि। बिज्जी को लघु एवं लोक कथाएं लिखने में भी गजब की महारत थी। आइए, उन्हें याद करते हुए उनकी पांच सुपठनीय लघु कहानियों का अविकल पाठ करते हैं-
मैं री मैं
एक मालदार जाट मर गया तो उसकी घरवाली कई दिन तक रोती रही। जात-बिरादरी वालों ने समझाया तो वह रोते-रोते ही कहने लगी, 'पति के पीछे मरने से तो रही! यह दुःख तो मरूँगी तब तक मिटेगा नहीं। रोना तो इस बात का है कि घर में कोई मरद नहीं। मेरी छः सौ बीघा जमीन कौन जोतेगा, कौन बोएगा?'
हाथ में लाठी लिए और कंधे पर खेस रखे एक जाट पास ही खड़ा था वह जोर से बोला, 'मैं री मैं'
जाटनी फिर रोते-रोते बोली, 'मेरी तीन सौ गायों और पाँच सौ भेड़ों की देखभाल कौन करेगा?
उसी जाट ने फिर कहा, 'मैं री मैं'
जाटनी फिर रोते रोते बोली, 'मेरे चारे के चार पचावे और तीन ढूँगरियाँ हैं और पाँच बाड़े हैं उसकी देखभाल कौन करेगा?'
उस जाट ने किसी दूसरे को बोलने ही नहीं दिया तुरंत बोला, 'मैं री मैं'
जाटनी का रोना तब भी बंद नहीं हुआ। सुबकते हुए कहने लगी, 'मेरा पति बीस हजार का कर्जा छोड़ गया है, उसे कौन चुकाएगा?'
अबके वह जाट कुछ नहीं बोला पर जब किसी को बोलते नहीं देखा तो जोश से कहने लगा, 'भले आदमियों, इतनी बातों की मैंने अकेले जिम्मेदारी ली, तुम इतने जन खड़े हो, कोई तो इसका जिम्मा लो! यों मुँह क्या चुराते हो!'
ठाकुर का आसन
गढ़ के बड़े चबूतरे पर संगमरमर के नक्काशीदार मयूरासन पर ठाकुर बैठा था। चबूतरे पर कश्मीरी गलीचा बिछा था।
पास ही फर्श पर चौधरी बैठा था। ठाकुर बिना बात ही भगवान जाने आज क्यों बहुत खुश था। मूँछों पर ताव देते हुए चौधरी ने मसखरी के सुर में कहा, 'चौधरी , मैं मयूरासन पर बैठा तो तू फर्श पर बैठ गया। अगर मैं फर्श पर बैठ जाऊँ तो तू कहाँ बैठेगा?'
चौधरी ने कहा, 'हुकम, आप फर्श पर विराजेंगे तो मैं चबूतरे के नीचे जमीन पर बैठूँगा। मुझे आपसे नीचे ही बैठना पड़ेगा।'
'तू नीचे ही बैठेगा इसके क्या माने? मैं फर्श पर बैठूँ तो तू कहाँ बैठेगा?'
चौधरी ने कहा, 'जमीन पर बैठें आपके दुश्मन। जमीन पर बैठने के लिए हमीं बहुत हैं। पिछले जनम में आपने अच्छे करम किए इसलिए आप के नीचे तो हमेशा आसन रहेगा।'
ठाकुर ने कहा, 'नहीं रे पगले, मान ले कभी ऐसा मौका आ जाए। तू टाल-मटोल मत कर, साफ-साफ बता! अगर मैं जमीन पर बैठा तो तू कहाँ बैठेगा?'
चौधरी मुस्कराकर बोला, 'हुकम, अगर आप जमीन पर बैठे तो मैं थोड़ा गड्ढा खोदकर नीचे बैठ जाऊँगा।'
ठाकुर ने पूछा, 'अगर मैं गड्ढे में बैठ गया तो तो तू कहाँ बैठेगा?'
चौधरी चक्कर में पड़ गया, सोचकर जबाव दिया, 'अगर आप गड्ढे में बैठे तो मैं थोड़ी मिट्टी हटा और नीचे बैठ जाऊँगा।'
'पर चौधरी, अगर मैं वहाँ बैठ गया तो तू कहाँ बैठेगा?'
चौधरी बोला, 'मैं उससे भी गहरे गड्ढे में बैठ जाऊँगा। आपका आसन तो हमेशा ऊँचा ही रहेगा सरकार!'
पर ठाकुर को तसल्ली नहीं हुई। कहा, 'पर चौधरी, मैं उस गहरे गड्ढे में बैठ गया तो तू कहाँ बैठेगा?'
इन बेहूदे सवालों से चौधरी तंग आ गया। ढीठता से बोला, 'मैं बार-बार कह रहा हूँ कि आप ऊपर ही विराजें, पर आप गहरे गड्ढे में ही बैठना चाहें तो आपकी मर्जी! मैं उसमें रेत डालकर ऊपर बड़ी शिला रख दूँगा।'
बनिए का चाकर
कोल्हू का बैल और बनिए का चाकर हर वक्त फिरते हुए ही शोभा देते हैं।
किसी एक सुहानी वर्षा की बात है कि बादलों की मधुर-मधुर गरज के साथ झमाझम पानी बरस रहा था। चौक वाली बरसाली में सेठ जी के पास ही उनका नौकर मौजूद था। पानी बिना रुके बह रहा है और यह ठूँठ की तरह खड़ा है, कैसे बर्दाश्त होता!
चौक में पत्थर की पनसेरी पड़ी थी। सेठ जी इसी चिंता में खोए थे कि नौकर को क्या काम बताया जाए। यह तो मालिक की तरह ही आराम कर रहा है!
पनसेरी पर नजर पड़ते ही तत्काल उपाय सूझा, चाकर की तरफ मुँह करके हुक्म सुनाया, "खड़ा-खड़ा देख क्या रहा है, यह पनसेरी अन्दर ले आ, बेचारी पानी में भीग रही है।"
साधु की कमाई
एक जाट बैलगाड़ी से कहीं जा रहा था। रास्ते में उसे एक साधु मिला। चौधरी भला था गाड़ी रोकते हुए कहा, 'महाराज, जय राम जी की! गाड़ी के रहते आप पैदल क्यों जा रहे हैं! रास्ता आराम से कटे उतना ही अच्छा। आइए, गाड़ी पर बैठ जाइए! आपकी संगत से मुझे भी थोड़ा धरम-लाभ हो जाएगा।'
महाराज के पास एक वीणा थी। पहले उसे गाड़ी पर रखा और फिर खुद भी बैठ गया।
चौमासे के कारन रास्ता बहुत उबड़खाबड़ था। हिचकोलों से गाड़ी का चूल-चूल हिल गया। चौधरी ने बैलों को पुचकारकर रास खींची।
नीचे उतरकर देखा - पहिए की पुट्ठियाँ खिसककर बाहर निकल आई थीं। ठोंकने के लिए और कुछ नहीं दिखा तो उसने महाराज की वीणा उठा ली। एक तरफ बड़ा-सा तूंबा देख कर उसे लगा यह ठोंकने के लिए अच्छा औजार है। उसने पूरे जोर से पुट्ठी पर वीणा का प्रहार किया। तूंबा भीतर से थोथा था। पुट्ठी और पाचरे पर पड़ते ही उसके परखच्चे उड़ गए।
चौधरी ने महाराज को उलाहना दिया, 'वाह महाराज, सारी उम्र भटककर एक ही औजार सहेजा और वह भी थोथा! आपकी इस भगति में मुझे कुछ सार दिखा नहीं।'
मेहनत का सार
एक बार भोले शंकर ने दुनिया पर बड़ा भारी कोप किया। पार्वती को साक्षी बनाकर संकल्प किया कि जब तक यह दुष्ट दुनिया सुधरेगी नहीं, तब तक शंख नहीं बजाएँगे। शंकर भगवान शंख बजाएँ तो बरसात हो।
अकाल-दर-अकाल पड़े। पानी की बूँद तक नहीं बरसी। न किसी राजा के क्लेश व सन्ताप की सीमा रही न किसी रंक की। दुनिया में त्राहिमाम-त्राहिमाम मच गया। लोगों ने मुँह में तिनका दबाकर खूब ही प्रायश्चित किया, पर महादेव अपने प्रण से तनिक भी नहीं डिगे।
संजोग की बात ऐसी बनी कि एक दफा शंकर-पार्वती गगन में उड़ते जा रहे थे। उन्होंने एक अजीब ही दृश्य देखा कि एक किसान भरी दोपहरी जलती धूप में खेत की जुताई कर रहा है। पसीने में सराबोर, मगर आपनी धुन में मगन। जमीन पत्थर की तरह सख्त हो गई थी। फिर भी वह जी जोड़ मेहनत कर रहा था, जैसे कल-परसों ही बारिश हुई हो। उसकी आँखों और उसके पसीने की बूँदों से ऐसी ही आशा चू रही थी। भोले शंकर को बड़ा आश्चर्य हुआ कि पानी बरसे तो बरस बीते, तब यह मूर्ख क्या पागलपन कर रहा है!
शंकर-पार्वती विमान से नीचे उतरे। उससे पूछा, "अरे बावले! क्यूँ बेकार कष्ट उठा रहा है? सूखी धरती में केवल पसीने बहाने से ही खेती नहीं होती, बरसात का तो अब सपना भी दूभर है।"
किसान ने एक बार आँख उठा कर उनकी और देखा, और फिर हल चलाते-चलाते ही जवाब दिया, "हाँ, बिलकुल ठीक कह रहे हैं आप। मगर हल चलने का हुनर भूल न जाऊँ, इसलिए मैं हर साल इसी तरह पूरी लगन के साथ जुताई करता हूँ। जुताई करना भूल गया तो केवल वर्षा से ही गरज सरेगी! मेरी मेहनत का अपना आनंद भी तो है, फकत लोभ की खातिर मैं खेती नहीं करता।"
किसान के ये बोल कलेजे को पार करते हुए शंकर भगवान के मन में ठेठ गहरे बिंध गए, सोचने लगे, "मुझे भी शंख बजाए बरस बीत गए, कहीं शंख बजाना भूल तो नहीं गया! बस, उससे आगे सोचने की जरूरत ही उन्हें नहीं थी। खेत में खड़े-खड़े ही झोली से शंख निकला और जोर से फूँका। चारों ओर घटाएँ उमड़ पडीं - मतवाले हाथियों के सामान आकाश में गड़गड़ाहट पर गड़गड़ाहट गूँजने लगी और बेशुमार पानी बरसा - बेशुमार, जिसके स्वागत में किसान के पसीने की बूँदें पहले ही खेत में मौजूद थीं।
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