फणीश्वरनाथ रेणु की 'परती परिकथा' छिन्न-भिन्न
अपनी छोटी-सी घरेलू लायब्रेरी में खड़े-खड़े अक्सर आंचलिक साहित्य के यशस्वी रचनाकार फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास 'परती परिकथा' को देखकर मेरी आंखें भर आती हैं। अनायास आज भी इसके साथ कई कड़वी स्मृतियां जुड़ी हैं...
उस दिन अपनी सूची की जब ज्यादातर किताबें खरीद चुका, जेब में पैसा रेल किराया भर बचा रह गया था मगर एक पेपर बैक किताब 'परती परिकथा' बिना लिए जाने का मन नहीं हो रहा था। उन दिनो उस उपन्यास की हिंदी कथा साहित्य में बड़ी धूम मची हुई थी और विश्वविद्यालय प्रकाशन के पास उस वक्त संस्करण की आखिरी प्रति बची रह गई थी। रेल के किराये के पैसे बुकसेलर की हथेली पर रखा और इतराते हुए किताब लेकर बिना टिकट यात्रा करने निकल पड़ा और एक दिन पढ़ने के लिए ले जाई गई वह किताब एक मित्र के घर में छिन्न-भिन्न हालत में मिली। मन रो उठा...
अपनी छोटी-सी घरेलू लायब्रेरी में खड़े-खड़े अक्सर आंचलिक साहित्य के यशस्वी रचनाकार फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास 'परती परिकथा' को देखकर मेरी आंखें भर आती हैं। अनायास आज भी इसके साथ कई कड़वी स्मृतियां जुड़ी हैं।
बात 1980 के दशक की है। उस दिन वाराणसी गया था किताबें खरीदने। उन दिनों कवि सम्मेलनों में जाया करता था, जो पैसा मिलता, उससे किताबें खरीदने का बड़ा अजीब-सा शौक था। यह शौक पूरा करने का वाराणसी में एक ही पड़ाव था, विश्वविद्यालय प्रकाशन। किताबें खरीदने का मेरा अपना तरीका था। उस समय के तमाम चर्चित प्रकाशनों की सूची से पहले किताबों और लेखकों के नाम छांट लेता, फिर लिस्ट लेकर कभी वाराणसी तो कभी लखनऊ-इलाहाबाद खरीदारी करने निकल पड़ता।
उस दिन अपनी सूची की जब ज्यादातर किताबें खरीद चुका, जेब में पैसा रेल किराया भर बचा रह गया मगर एक पेपर बैक किताब 'परती परिकथा' बिना लिए जाने का मन नहीं हो रहा था। उन दिनों उस उपन्यास की हिंदी जगत में धूम मची हुई थी। प्रकाशन के पास उस संस्करण की आखिरी प्रति बची रह गई थी। दुकानदार से बोला- 'इसका पैसा अगली बार जमा कर दूंगा, किराया भर बचा है।' वह बोला, ....'तो अगली बार ही ले जाना।' मैंने कहा- 'ये आउट ऑफ प्रिंट चल रही।' वह सहमत नहीं हुआ। मैं भी कहां मानने वाला था। किराये के पैसे भी देकर उसे खरीद लिया। कंधे पर किताबें लादे पैदल रेलवे स्टेशन पहुंचा और तेजी से अपने गंतव्य को रवाना होने वाली ट्रेन के बाथरूम में घुसकर बैठ गया। अंदर से सिटकनी लगा ली। अजीब वाकया था।
कुछ स्टेशन आगे बढ़ते ही लोग बाहर से दरवाजा पीटने-चिल्लाने लगे। मैं अंदर रुआंसे मन से कविता की दारुण पंक्तियां बुनने लगा, यह सोचकर कि अब जो होगा, देखा जाएगा। वह कविता थी - 'आज सारे लोग जाने क्यों पराये लग रहे हैं, एक चेहरे पर कई चेहरे लगाये लग रहे हैं, बेबसी में क्या किसी से रोशनी की भीख मांगें, सब अंधेरी रात के बदनाम साये लग रहे हैं।' कविता पूरी हुई, दरवाजा खोला तो सामने टीटी खड़ा मिला, मुझे घूरते हुए। मैं हिल गया कि अब तो सीधे जेल। हिम्मत कर मैंने सच-सच उसको सारी बातें बता दीं। उसे पता नहीं क्या सूझा, बोला - 'खैरियत इसी में है कि अगले स्टेशन पर उतर जाओ।' तभी एक यात्री ने, जो बाद में मित्र बन गया था, पेनाल्टी अदा कर दी और मैं सकुशल अपने शहर के स्टेशन पर उतर गया।
बाद में इस किताब के बहाने एक ऐसी अजीब सीख मिली कि मन क्षुब्ध हो उठा। कभी-कभी शब्द भी क्या खूब रंग बदलते हैं। दुख था कि कितनी मुश्किलों से वह किताब अपनी घरेलू लायब्रेरी तक पहुंची और एक जनाब पढ़ने को मांग ले गए तो महीनों बीत जाने के बावजूद लौटाने का नाम नहीं ले रहे। आकुल मन से उलाहने में बहुत कुछ कह सुनाने की ठाने हुए उनके घर जा धमका। उनके ड्राइंग रूम में उस किताब की दीन दशा देखकर तो जैसे अंदर से खौल उठा। किताब कई टुकड़ों में बिखरी पड़ी थी। कवर पेज गायब थे। उसके एक अधफटे पन्ने पर नमक और प्याज का टुकड़ा पड़ा था। मुंह से एक शब्द नहीं फूटे। मन भर आया। चुपचाप मैंने बिखरी किताब समेटी और घर लौट आया। मशक्कत और मुफ्तखोरी का उस दिन अंतर समझ में आया। ऐसी लत के चलते ही लोग ट्रेनों में तीन हजार रुपए का टिकट तो खरीद लेते हैं, लेकिन तीन रुपए का अखबार मांग-मांगकर पढ़ना चाहते हैं।