राष्ट्रवाद के नाम पर अभिव्यक्ति की आज़ादी ख़त्म करने की साज़िश देश के लिए खतरनाक है : आशुतोष
पूर्व पत्रकार/संपादक और आम आदमी पार्टी के नेता आशुतोष का ताज़ा लेख जिसमें उन्होंने रामजस कॉलेज में पिछले दिनों हुए हंगामे और हिंसा के बाद खड़े हुए राजनीतिक सवालों का जवाब तलाशने की कोशिश की है
रामजस कॉलेज प्रकरण ने हमारे राजनीति स्वरूप और समाज में भविष्य की राजनैतिक राह पर कुछ गम्भीर सवाल खड़े किये हैं। यह एक अत्यंत साधारण मामला था, अकादमिक गतिविधियों के तहत एक सेमिनार का आयोजन किया गया था। लेकिन कुछ लोगों को एक ऐसे व्यक्ति, जिस पर कि देश विरोधी तत्वों से साठगांठ का आरोप है, को इस सेमिनार में आमंत्रित किया जाना नागवार गुजरा। हालाँकि उस व्यक्ति के खिलाफ मुक़दमा अभी भी लंबित है, उसे कोर्ट द्वारा दोषी करार दिया जाना और सजा सुनाया जाना अभी भी बाकी है। लेकिन उसे पहले से ही एक तरह से अपराधी घोषित कर के सज़ा सुना दी गयी है। इस से तीन मौलिक प्रश्न उठतें है- पहला, नागरिक के अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के मौलिक अधिकार की क्या सीमाएं हैं? दूसरा, यह कौन तय करेगा कि क्या असंवैधानिक है और कौन दोषी है? और तीसरा, यदि किसी ने अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकारों का दुरूपयोग किया है तो उसे सजा कौन देगा?
रामजस कॉलेज में लक्षित संगोष्ठी का आयोजन किया जाना था, जो कि नहीं हो सका। इसमें एक ऐसे व्यक्ति जिस पर भारत विरोधी नारे लगाने का आरोप है, के शामिल होने और इस वजह से भारत विरोधी बयानबाज़ी होने की आशंका में हंगामा कर के स्थगित करना दिया गया। यह तो ऐसा ही है जैसे इस प्रत्याशा में कि संबंधित व्यक्ति भविष्य में नृशंस हत्या में लिप्त होगा, को फांसी पर लटका दिया जाय। जबकि क़ानून की नज़रो में, किसी आरोपी को अपराध करने के पूर्वानुमान या धारणा मात्र से अपराधी नहीं माना जा सकता। किसी को भी अपराधी करार दिए जाने के लिए अपराध का होना आवश्यक होता है। यहाँ राष्ट्रवाद के नाम पर नागरिक के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को प्रत्याशा में दबा दिया गया। यह विचित्र बात है, और खतरनाक भी। अगर इस तरह के मामलों को तरजीह दी गयी तो कोई भी बात करने के लिए स्वतंत्र नहीं रह पायेगा। और यह धीरे-धीरे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में कटौती करने का एक माध्यम बन जाएगा। और, कोई स्वतंत्र अभिव्यक्ति भी हीं हो सकेगी। कोई कला या रचनात्मक काम आकार नहीं ले सकेगा। फिर तो कोई फिल्म भी कभी नहीं बनायी जा सकेगी। कोई शैक्षिक प्रक्रिया अपने उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर सकेगी। कोई भी नवपरिवर्तन भविष्य में आकार नहीं ले सकेगा। किसी भी छात्र को कभी गलतियाँ करने की अनुमति नहीं दी जाएगी, क्योंकि उनके विचारों की कलियों को खिलने के पहले ही प्रत्याशा में ही कुचल दिया जाएगा। और यह रास्ता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बेमानी, अर्थहीन और अप्रचलित बना देता है। दूसरे शब्दों में मूल रूप से यह एक ढकोसला जैसा है। और राष्ट्रवाद के नाम पर यह झूठ पूरे समाज में व्याप्त हो रहा है।
भारतीय संविधान में स्पष्ट रूप से यह रेखांकित किया गया है कि कोई भी मौलिक अधिकार असीमित नहीं है। और यही बात अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए भी लागू होती है। संविधान में उचित प्रतिबंध की अवधारणा का भी प्रावधान है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रा के बारे में यह कहा जाता है- "आपकी स्वतंत्रता वही समाप्त हो जाती है, जहां से मेरी नाक शुरू होती है।" यह नियम इस तथ्य को रेखांकित करता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कोई भी अपने बयान, लिखित शब्दों या भाव में किसी भी जाति, धर्म या वर्ग के नाम पर घृणा, वैमनस्य या हिंसा फैला कर समाज को बॉटने का काम नहीं कर सकता है। लेकिन, इसके लिए भी कोई बयान तो होना चाहिए, अभिव्यक्ति की गयी होनी चाहिए। यह उचित प्रतिबंध हवा में लागू नहीं किया जा सकता है। इस द्रष्टि से रामजस कॉलेज प्रकरण अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को निलंबित करके संविधान के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन है। और मौलिक अधिकारों के निलंबन का मतलब है आपातकाल जो श्रीमती इंदिरा गांधी ने 1975 में देश पर थोप दिया था।
और तब, उतना ही बड़ा सवाल यह भी है कि अभिव्यक्ति के अधिकार का उल्लंघन किया गया है यह कौन तय करेगा ? संविधान के अनुसार, यदि वास्तव में अपराध हुआ है और शिकायत दर्ज की गयी है तो पुलिस मामले की जांच कर सकती है, और उसके बाद अदालत में कानूनी कार्यवाही शुरू की जा सकती हैं। यहाँ तक कि कोर्ट बिना किसी शिकायत के भी स्वतः संज्ञान लेकर कानूनी प्रक्रिया शुरू कर सकती है। लेकिन इस मामले में, कुछ लोगों ने अपनी सुविधानुसार सब कुछ तय कर लिया। उन्होंने शिकायतकर्ताओं और पुलिस दोनों ही बनने का फैसला किया और साथ ही अदालत की भूमिका में भी आ गए। एबीवीपी के छात्रों ने हिंसा करते हुए संगोष्ठी का आयोजन करने वालों को सबक सिखाने के लिए पूरे विद्यालय को बाधित का कर दिया। यह कानून का पालन नहीं है, यह कानून का उल्लंघन है। यदि ऐसा लगता है कि यह अराजकता को जन्म दे सकता है या कानून और व्यवस्था की समस्या पैदा कर सकता है तो केवल पुलिस को इस तरह के एक सेमिनार को रोकने का अधिकार है। छात्रों ने कानून को अपने हाथों में ले लिया; और इस मामले में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण पुलिस का मात्र मूकदर्शक बनना रहा। पुलिस ने कुछ नहीं किया और न ही उन्होंने उपद्रवियों को रोका। यह संविधान के विध्वंस जैसा है, तोड़फोड़ के बराबर है। और अगर संवैधानिक रूप से देखें तो अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने संविधान का उल्लंघन कर के राष्ट्रविरोधी काम किया है।
इसी तरह, एक साल पहले जेएनयू को भी भारत विरोधी तत्वों को शरण देने का दोषी करार दिया गया था। रहस्यमय तरीके से भारत विरोधी नारे लगाए थे और इस तरह के टेप टीवी चैनलों पर प्रसारित किये गए। कन्हैया कुमार सहित कुछ छात्रों को गिरफ्तार किया गया। वरिष्ठ वकीलों की उपस्थिति में अदालत परिसर में उन्हें पीटा गया। लेकिन सबसे हैरत की बात है कि उन सभी आठ तथाकथित कश्मीरी युवकों को, जो टेप में भारत-विरोधी नारे लगा रहे थे, न तो पहचाना जा सका और न ही उन्हें गिरफ्तार किया गया। और अब पुलिस ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि कन्हैया कुमार ने भारत-विरोधी नारे नहीं लगाए थे। उस मामले में भी संविधान को तोड़ा-मरोड़ा गया। कोर्ट को नजरअंदाज कर दिया गया, धुर दक्षिणपंथी कार्यकर्ताओं और मीडिया में उनके दोस्त खुद ही अदालत, जज और जूरी बन गए, निर्णय सुनाया गया और दोषी को अपनी बात कहने का कोई भी मौका दिए बिना फांसी पर लटका दिया गया। इस प्रवृत्ति को यदि रोका नहीं गया तो फिर ऐसा समय आ जाएगा जब न तो पुलिस की आवश्यकता होगी और न ही अदालत की जरूरत होगी। सभी नागरिक अपने-अपने तरीके से मामलों को निपटाएंगे और खुला जंगल-राज स्थापित हो जायेगा, जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत सच हो जाएगी।
पिछले कुछ वर्षों में, एक नए शिशु का जन्म हुआ जिसे राष्ट्रवाद कहा जाता है। राष्ट्रवाद की आड़ में हर गैर-कानूनी काम को सही ठहराने की कोशिश की जा रही है। खुले आम धमकियाँ दी जा रही हैं और सरकारी एजेंसियाँ हाथ पर हाथ धरे बैठी हैं। समाज के एकवर्ग और प्रतिद्वंद्वी विचारधारा को जनता की नज़रों में उनकी वैधता को ख़त्म कर अपने लिए प्रतिष्ठा बढ़ाने का गंभीर प्रयास किया जा रहा है। भारत एक विकसित और परिपक्व लोकतंत्र बनने की ओर अग्रसर है लेकिन राष्ट्रवाद के नाम पर हिंसा और असहिष्णुता की वजह से जिस तह के भय का माहौल बन रहा है, हमें आशंका है कि कहीं घडी की सुइयाँ वापस ना घूमने लगें। लोकतंत्र विशुद्ध रूप से मात्र बहुमत के खेल का नाम नहीं है। यह "अल्पसंख्यकों", "व्यक्ति" या "समुदाय" या "विचार" या"विचारधारा" के अधिकारों के संरक्षण का नाम भी है। राज्य सत्ता की जिम्मेदारी है कि वो, "कमजोर" की रक्षा के लिए अपनी प्रतिबद्धता दिखाए और यदि ऐसा नहीं हो पता है तो राज्य के विचार की प्रासंगिकता पर भी गंभीर सवाल खड़ा हो जाएगा।
रामजस विवाद ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या राज्य सत्ता पिछले कुछ वर्षों में इतनी कमजोर हो गयी है कि वह अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा नहीं कर सकती? पुलिस मूकदर्शक तभी बनी रह सकती है जब या तो वो सचमुच असहाय हो या फिर वोदोषियों से मिली हुई हो। मैं यह मानने को तैयार नहीं कि भारत की सरकार इतनी कमजोर है। इसलिए मैं कह सकता हूँ कि यह वास्तव में सभी शक्तिशाली तत्वों की मिलीभगत है। यह देश के लिए एक अच्छा संकेत नहीं है। इसलिए यदि हमारे देश में लोकतंत्र को पल्लवित होना है, तो संविधान को सर्वोच्च मानना होगा और संविधान की तोड़फोड़ की हर कोशिश को गंभीरता से लेकर इन कोशिशों के खिलाफ समयबद्ध कार्रवाई सुनिश्चित करना होगा।
(अंग्रेजी में लिखे इस लेख का हिंदी में अनुवाद प्रकाश भूषण सिंह ने किया है। इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं और इसमें दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति hindi.yourstory.com उत्तरदायी नहीं है।)