कवि केदारनाथ अग्रवाल: उस दिन नदी बिल्कुल उदास थी, दुनिया छोड़कर चले गए वो
कवि केदारनाथ अग्रवाल पुण्यतिथि विशेष...
अपने सोंधे-सोंधे शब्दों से, हिंदी कविता की कालजयी कृतियों से साहित्य के बाग-बगीचों, अमराइयों को बेसुध करते रहे अति प्रतिष्ठित कवि केदारनाथ अग्रवाल की आज पुण्यतिथि है। वर्ष 2000 में आज ही एक दिन वह ये दुनिया छोड़कर चले गए थे.... 'आज नदी बिलकुल उदास थी, सोई थी अपने पानी में, उसके दर्पण पर बादल का वस्त्र पड़ा था, मैंने उसको नहीं जगाया, दबे पांव घर वापस आया।'
गाँव में और कोई सुख नहीं था, खाओ, पियो और स्कूल जाओ। इस तरह कविता मेरे अंदर पैठ गई और वह मेरे इंद्रियबोध को संवेदनशील बनाने लगी और अपने को व्यक्त करने की लालसा जागृत करने लगी कि मैं भी कुछ लिख सकूँ तो अच्छा लगेगा।
प्रकृति-सौंदर्य के विशिष्ट उपासक एवं हिंदी के प्रतिष्ठित कवि केदारनाथ अग्रवाल की आज (22 जून) पुण्यतिथि है। बाँदा (उत्तर प्रदेश) के गांव कमासिन में 1 अप्रैल, 1911 को जनमे केदारनाथ अग्रवाल जिस समय काव्य सर्जना में डूबने लगे थे, उस वक्त हमारे देश में आजादी का आंदोलन ज़ोरों पर था। वो वही दौर था, जब सामाजिक आर्थिक परिस्थितियां नवमध्यम वर्ग की चेतना को आलोड़ित कर रही थीं। अंग्रेज शासन में हिंदुस्तान के आर्थिक हालात संतोषजनक नहीं थे। उन्हीं दिनों प्रगतिशील हिंदी साहित्य कवि-जन-गण-मन में भी कौंधने लगा था। केदारजी ने लिखा है कि “कविता मेरे घर में पहले से थी। मेरे पिता ब्रजभाषा और खड़ी बोली में कविता लिखते थे। मेरी चौपाल में आल्हा संगीत होता था। मेरे मैदान में रामलीला खेली जाती थी। उसका प्रभाव मन-मस्तिष्क पर पड़ता था। कविता में मेरी रुचि बढ़ने लगी और मैंने पद्माकर, जयदेव और गीत गोविंद पढ़ा। इसी तरह की मानसिकता बनने लगी।
गाँव में और कोई सुख नहीं था, खाओ, पियो और स्कूल जाओ। इस तरह कविता मेरे अंदर पैठ गई और वह मेरे इंद्रियबोध को संवेदनशील बनाने लगी और अपने को व्यक्त करने की लालसा जागृत करने लगी कि मैं भी कुछ लिख सकूँ तो अच्छा लगेगा। गाँव का वातावरण, चार-चार गाँव का तालाब, हिरन का दौड़ना, देखना, खेत-खलिहान में जाना। नगर-दर्शन भी होता था। मिडिल तक स्कूल था। टीचर मेरे घर आते थे। भीतर-बाहर इस तरह कविता का संसार, मोहक संसार लगने लगा। सौंदर्य को, मानवीय सौंदर्य को, प्रकृति के सौंदर्य को देखने की लालसा जगी। उस समय नौतिकता-अनैतिकता का बोध तो था नहीं, यह तो बाद की चीजें थीं।... दिन, बीत गया, अब रीत गया, जमुना-जल के छलके-छलके मृग-मारुत के पग से चलके, हलके-हलके बिजना झलके।' आरंभिक पांच-छह वर्षों में उन्होंने जो भी कविताएँ लिखीं, वे प्रेम और सौंदर्य पर केंद्रित थीं। अशोक त्रिपाठी उन्हें केवल भाववादी रुझान की कविताएँ मानते हैं -
एक खिले फूल से
झाड़ी के एक खिले फूल ने
नीली पंखुरियों के
एक खिले फूल ने
आज मुझे काट लिया
ओठ से,
और मैं अचेत रहा
धूप में।
केदारनाथ के अनुभूत व्यक्तित्व और यथार्थवाद का विश्लेषण उनके रचना-उत्स को करीब से देखने में सहायक सिद्ध होता है।उनका यथार्थ बोध उनके आसपास का जीवन है जिसमें उनका गांव, केन नदी, पेड़, पहाड़, वन, धूप-छांव, सूरज-चांद-सितारे, ऋतु परिवर्तन के दृश्य, लौकिक वस्तुओं का रंग रूप है। अपूर्वा की भूमिका में कवि का कथन उद्धरणीय है- ‘लोग तो प्रगतिशील कविता में केवल राजनीति की चर्चा मात्र ही चाहते हैं। वे कविताएं जो प्रेम से, प्रकृति से, आसपास के आदमियों से, लोकजीवन से, सुंदर दृश्यों से,भूचित्रों से, यथावत चल रहे व्यवहारों से और इसी तरह की अनेकरूपताओं से विरचित होती हैं, प्रगतिशील नहीं मानी जातीं। मेरी प्रगतिशीलता में इन कथित वर्जित विषयों का बहिष्कार नहीं है। वह इन विषयों के संदर्भ में उपजी हुई प्रगतिशीलता है।’ केदारनाथ अग्रवाल का पहला काव्य-संग्रह 'युग की गंगा' देश आजाद होने से ठीक पहले मार्च, 1947 में प्रकाशित हुआ। हिंदी साहित्य के इतिहास को समझने के लिए यह संग्रह एक बहुमूल्य दस्तावेज़ है। केदारनाथ अग्रवाल ने मार्क्सवादी दर्शन को जीवन का आधार मानकर जनसाधारण के जीवन की गहरी व व्यापक संवेदना को अपने कवियों में मुखरित किया -
लंदन में बिक आया नेता, हाथ कटा कर आया ।
एटली-बेविन-अंग्रेज़ों में, खोया और बिलाया ।।
भारत-माँ का पूत-सिपाही, पर घर में भरमाया ।
अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद का, उसने डिनर उड़ाया ।।
केदारनाथ अग्रवाल की प्रकाशित कृतियों में काव्य-संग्रह है युग की गंगा (1947), नींद के बादल (1947), लोक और आलोक (1957), फूल नहीं रंग बोलते हैं (1965), आग का आईना (1970), गुलमेहंदी (1978), आधुनिक कवि-16 (1978) पंख और पतवार (1980), हे मेरी तुमा (1981), मार प्यार की थापें (1981), बंबई का रक्त-स्नान (1981), कहें केदार खरी-खरी (1983), आत्म-गंध (1988), अनहारी हरियाली (1990), खुली आँखें खुले डैने (1993), पुष्प दीप (1994), वसंत में प्रसन्न हुई पृथ्वी (1966), कुहकी कोयल खड़े पेड़ की देह (1997), प्रतिनिधि कविताएँ (2010)। इसके अलावा अनुवाद की पुस्तके हैं - देश-देश की कविताएँ (1970), उपन्यास – पदिया (1985), यात्रा-वृत्तांत – बिस्ती खिले गुलाबों की)। इसके अलावा पत्र-साहित्य, साक्षात्कार आदि उल्लेखनीय हैं। वह सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, हिंदी संस्थान पुरस्कार, तुलसी पुरस्कार, मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार आदि समादृत होते रहे। अपने व्यापक सृजन में केदारनाथ अग्रवाल ने शोषितों-पीड़ितों का पक्ष लेते हुए तमाम वर्गों को समेटा और पूँजीपतियों और महाजनों को आड़े हाथों लिया। अपनी लेखनी से उन्होंने किसान की अनन्य आराधना की -
एक हथौड़ेवाला घर में और हुआ !
हाथी सा बलवान,
जहाजी हाथों वाला और हुआ !
सूरज-सा इन्सान,
तरेरी आँखोंवाला और हुआ !!
एक हथौड़ेवाला घर में और हुआ!
माता रही विचार,
अँधेरा हरनेवाला और हुआ !
दादा रहे निहार,
सबेरा करनेवाला और हुआ !!
एक हथौड़ेवाला घर में और हुआ !
जनता रही पुकार,
सलामत लानेवाला और हुआ !
सुन ले री सरकार!
कयामत ढानेवाला और हुआ !!
एक हथौड़ेवाला घर में और हुआ !
केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं का अनुवाद रूसी, जर्मन, चेक और अंग्रेज़ी में हुआ है। वह 22 जून, 2000 को इस दुनिया से चले गए। प्रकृति के साथ सहज होकर उन्होंने जितनी भी कविताएँ लिखीं, उनमें अधिकांश का रसास्वदन आज भी पाठकों को अभिभूत कर देता है -
वह चिड़िया जो-
चोंच मार कर
दूध-भरे जुंडी के दाने
रुचि से, रस से खा लेती है
वह छोटी संतोषी चिड़िया
नीले पंखों वाली मैं हूँ
मुझे अन्न से बहुत प्यार है।
वह चिड़िया जो-
कंठ खोल कर
बूढ़े वन-बाबा के खातिर
रस उँडेल कर गा लेती है
वह छोटी मुँह बोली चिड़िया
नीले पंखों वाली मैं हूँ
मुझे विजन से बहुत प्यार है।
वह चिड़िया जो-
चोंच मार कर
चढ़ी नदी का दिल टटोल कर
जल का मोती ले जाती है
वह छोटी गरबीली चिड़िया
नीले पंखों वाली मैं हूँ
मुझे नदी से बहुत प्यार है।
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