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यमराज बने कीटनाशक, सुप्रीमकोर्ट ने केंद्र से मांगा जवाब

यमराज बने कीटनाशक, सुप्रीमकोर्ट ने केंद्र से मांगा जवाब

Monday August 27, 2018 , 6 min Read

एक ओर कीटनाशक बनाने वाली कंपनियों का कारोबार अगले साल तक 51 खरब रुपए होने जा रहा है, दूसरी तरफ जिन अठारह अत्यंत घातक कीटनाशकों पर भारत को छोड़ दुनिया के सारे देश पाबंदी लगा चुके हैं, उसके प्रयोग से हमारे देश में कैंसर की महामारी फैल रही है। इससे संबंधित एक याचिका को गंभीरता से लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सरकार जवाब तलब कर लिया है।

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इसी साल अप्रैल में सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि वह 18 (सर्वाधिक घातक) कीटनाशकों पर पाबंदी के लिए तुरंत कदम उठाए। ये वही कीटनाशक हैं, जो भारत को छोड़कर विश्व के अन्य सभी देशों में प्रतिबंधित हैं। 

भारत में पर्यावरण और खाद्य सुरक्षा को लेकर काम करने वाली संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एनवॉयरमेंट का कहना है कि कीटनाशकों के उत्पादन, बिक्री और इस्तेमाल के सरकारी नियम नियम-कानून बेहद लचर हैं। किसान कंपनियों की गिरफ्त में हैं। कंपनियों के मार्केटिंग एजेंट, कीटनाशकों के दुकानदारों के अनुसार किसान उसका इस्तेमाल कर रहे हैं, जबकि यह दायित्व स्वयं सरकार को निभाना चाहिए। किसानों के पास जो आखिरी आदमी पहुंचता है, वह किसी कंपनी का कर्मचारी होता है, जिसे अपना माल ज्यादा से ज्यादा बेचना, ठिकाने लगाना होता है। वह डॉक्टर नहीं, जो इसका फायदा अथवा नुकसान बता सके। सरकार के कृषि विभाग विस्तार ने ये खाली जगह छोड़ रखी है, जिसे कंपनियां भर रही हैं, जबकि होना ये चाहिए कि कंपनी और किसान के बीच सरकार के प्रशिक्षित लोग हों। कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल पर रोक इसलिए भी नहीं लग पा रही है, क्योंकि सरकार के कर्मचारी भी रासायनिक कीटनाशकों के बारे में प्रशिक्षित नहीं हैं। जैविक मुहिम पूरी तरह किसानों की मंशा निर्भर है।

हमारे देश में 104 ऐसे कीटनाशक बिक रहे हैं, जो दूसरे एक या एक से ज्यादा देशों में प्रतिबंधित हैं। दुनिया के आंकड़े बताते हैं कि बिना कीटनाशक और उर्वरक के अच्छी खेती हो सकती है, लेकिन सरकार जानबूझकर इस पर ध्यान नहीं दे रही है। देश में लगभग ढाई सौ प्रकार के कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जा रहा है, जिनमें से अठारह प्रकार के कीटनाशक सबसे हैं। इनका अंधाधुंध और गैर जरूरी इस्तेमाल किसानों के लिए जानलेवा और पर्यावरण के लिए घातक साबित हो रहा है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2015 में 7062 लोगों की मौत कीटनाशकों से हुई थी। सीएसई के मुताबिक हमारे देश में कीटनाशकों से जुड़े लगभग 10 हजार मामले प्रतिवर्ष प्रकाश में आ रहे हैं। महाराष्ट्र के यवतमाल में पैतीस किसानों के मर जाने के बाद कीटनाशकों पर पाबंदी की मांग ने जोर पकड़ा है।

नवंबर 2017 में कीटनाशकों पर पाबंदी सम्बंधी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से चार हफ्ते में जवाब मांगा था, साथ ही याची ने जैविक खेती को लोकप्रिय बनाने की भी अदालत से सिफारिश की थी। फिलहाल, पाबंदी उन्ही कीटनाशकों पर लगाने की मांग थी, जिन्हे दुनिया का और कोई देश इस्तेमाल नहीं कर रहा है। याचिका में कहा गया है कि कीटनाशकों के अलावा जीएम फसलों की वजह से भी किसान बड़ी तादाद में आत्महत्या कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट की ओर से सरकार को निर्देश दिया जाना चाहिए कि वह पेस्टिसाइड्स और हरबिसाइड्स के इस्तेमाल को बंद करने के लिए रोडमैप तैयार करे। राकांपा प्रमुख शरद पवार भी बाजार में अप्रमाणित कीटनाशकों की मौजूदगी पर चिंता जताते हुए कह चुके हैं कि कीटनाशक इस्तेमाल करने संबंधी कानून और एक स्वतंत्र संस्थान से परामर्श लिए बगैर कीटनाशक का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए।

इसी साल अप्रैल में सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि वह 18 (सर्वाधिक घातक) कीटनाशकों पर पाबंदी के लिए तुरंत कदम उठाए। ये वही कीटनाशक हैं, जो भारत को छोड़कर विश्व के अन्य सभी देशों में प्रतिबंधित हैं। इससे पहले एक कमेटी भी कुछ वर्ष पहले अठारह में से बारह कीटनाशकों पर प्रतिबंध लगाने, साथ ही शेष छह कीटनाशकों को भी क्रमशः प्रतिबंधित करने की अनुशंसा कर चुकी है। दो साल पहले इस पर केंद्रीय कृषि मंत्रालय की ओर से इस पर नोटिफिकेशन तो जारी किया गया, लेकिन जांच के लिए एक और कमेटी गठित कर दी गई। इसके बाद पिछले वर्ष अक्टूबर में एसके मेहरोत्रा कमेटी का भी गठन कर दिया गया। उसने इस साल जनवरी से मात्र तीन प्रकार के कीटनाशक प्रतिबंधित करने की बात की, वह भी आज तक ठंडे बस्ते में है।

एक ओर तो हमारे देश में अत्यंत घातक कीटनाशकों को प्रतिबंधित करने को लेकर सरकारी सुस्ती का ये आलम है, दूसरी तरफ दुनिया के बाकी देश ऐसी कंपनियों को औकात में रख चुके हैं। हाल ही में कैलिफोर्निया की एक अदालत ने अमेरिका की कृषि रसायन बनाने वाली दुनिया की सबसे बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनी मोनसेंटो से जुड़े जानसन को लगभग 29 करोड़ डालर की क्षतिपूर्ति राशि देने का निर्देश दिया है। यह कम्पनी ग्लाइफोसेट नामक खतरनाक रसायन 'राउंड अप' और 'रेंजरप्रो' ब्रांड्स के नाम से बेच रही है, जिससे (ग्लाइफोसेट) कैंसर होने का खतरा है। जीएम फसलों में इसका इस्तेमाल किया जा रहा है। यह मुकदमा जीतने वाले वकीलों का कहना है कि इस रसायन से स्वास्थ्य को तो खतरा है ही, कंपनी के लोग इसके बाजार की तलाश में अधिकारियों को भ्रष्ट कर रहे हैं। वे प्रदूषण से बचाने वाली एजेंसियों को अपनी गिरफ्त में रखना चाहते हैं। उन्होंने इच्छा जताई है कि भारत सहित सभी देशों को भी शीघ्र ग्लाइफोसेट को प्रतिबन्धित कर देने के साथ ही ऐसे कीटनाशकों के खिलाफ सरकारों को बड़े स्तर पर जागरूकता अभियान चलाना चाहिए।

हमारे देश में किसानों को वैकल्पिक फसल सुरक्षा समझाने के लिए वर्ष 1970 में एकीकृत कीट प्रबंधन की शुरुआत की गई, जिसमें कीटनाशकों के इस्तेमाल को आखिरी उपाय सुझाया गया था। इस आईपीएम पद्धति में फसलों को बचाने पर नाममात्र का खर्च आता है लेकिन इस बारे में चुप्पी साधते हुए किसानों को जागरूक नहीं किया गया। कीट नाशक के नाम पर दुकानदार जो दवाएं किसानों को दे देते हैं, वही धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है। हमारे देश के करोड़ों किसान हर फसल में हजारों रूपए के ये घातक कीटनाशक इस्तेमाल कर रहे हैं। इससे समझा जा सकता है कि खतरनाक ग्लाइफोसेट बनाने वाली मोनसेंटो आदि कंपनियों को अरबों, खरबों की कमाई का कितना बड़ा बाजार मिला हुआ है, किस तरह लोग प्रदूषित अन्न खाकर कैंसर जैसी बीमारी के हवाले कर दिए गए हैं।

सुप्रीम कोर्ट को बताया गया है कि वर्ष 2019 तक इन कंपनियों का कारोबार 51 खरब रुपए हो जाएगा। फिक्की और टाटा की टीएसएमजी ने भी खुलासा किया है कि भारतीय फसल संरक्षण रसायन उद्योग, जो वर्ष 2014 में 4.25 बिलियन अमरीकी डॉलर का था, अगले साल तक बढ़कर 7.5 बिलियन अमेरिकी डालर होने वाला है। एग्रिकल्चरल केमिकल विशेषज्ञों का कहना है कि मिट्टी में डाले गये डीडीटी, गेमेक्सीन, एल्ड्रिन, क्लोरोडेन आदि बारह वर्षों तक प्रभाव रह रहा है। ये रसायन वर्षा जल के साथ बह कर तालाबों, झीलों, नदियों, कुंओं में पहुँच कर वनस्पतियों तथा जल-जीवों को प्रभावित कर रहे हैं। अब तक ऐसे 70 हजार से अधिक रसायन तैयार किए जा चुके हैं। इसी प्रकार कार्बनिक पेस्टीसाइड भी वातावरण को विषाक्त कर रहे हैं। इनके निरंतर प्रयोग से आनुवांशिक परिवर्तन का भी खतरा उत्पन्न हो गया है।

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