ग़ज़ल पर फतवा जारी हुआ तो अपना शहर छोड़ गए उर्दू के मशहूर शायर मोहम्मद अल्वी
उर्दू के मशहूर शायर मोहम्मद अल्वी का सोमवार, 29 जनवरी को अहमदाबाद में इंतकाल हो गया। इससे पूरे देश में उर्दू विद्वानों में शोक की लहर फैल गई। अल्वी उर्दू में चोटी के आधुनिक शायरों में शुमार थे। उन्होंने सरल शब्दों में गहरे एहसास की गजलें और नज्में लिखीं। 1992 में उनको गजल संग्रह 'चौथा आसमान' के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
अल्वी का जन्म अहमदाबाद में 1927 में हुआ था। इन्होंने प्राथमिक शिक्षा इसी शहर में हासिल की थी। दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया से उच्च शिक्षा प्राप्त अल्वी के अन्य चर्चित संग्रह हैं- 'खाली मकां', 'आखिरी दिन की तलाश', 'तीसरी किताब' आदि।
अनुभवों को महसूस करना शायरी के लिये बेहद जरूरी है। वक्त के साथ सब कुछ बदलता है। वक्त त के साथ आदमी, समाज, गांव, नगर, जरूरतें सभी का नक्षा बदला है। इन बदलावों पर अल्वी साहेब की नजर-नीयत हमेशा एकदम साफगोई भरी रही है। उर्दू अदब में ग़ज़ल को हमेशा एक दिलचस्प विधा के रूप में देखा जाता रहा है। इस विधा को यूं तो अमीर ख़ुसरो से लेकर मीर ग़ालिब-इकब़ाल-फ़िराक जैसे नामचीन और उसके बाद के अनगिनत शाइरों ने और भी समृद्ध किया है लेकिन बाद के पैदाइश वाले शाइरों ने भी अपने पूरे जतन- सामर्थ्य के साथ इस विधा को शादाब करने का काम किया है। उन्हीं शायरों में अल्वी का नाम तरक्की पसंद ऊंचे कद के शायर के रूप में लिया जाता है।
ग़ज़ल का सफर यूँ तो सात सौ बरस पुराना है लेकिन मज़मून और मफ़हूम के स्तर पर इसमें मुसलसल तब्दीलियां होती रही हैं। जुबान के तौर पर भी ग़ज़ल ने तब्दीलियों का एक तवील सफ़र तय किया है। ख़ालिस फ़ारसी से लेकर अरबी, उर्दू, हिन्दी, क्षेत्रीय भाषाओं तक में ग़ज़ल को ओढ़ा बिछाया गया है। कुछ इसी अंदाज में अल्वी साहेब लिखते हैं कि शेर तो कहते थे हम सच है ये 'अल्वी' मगर तुम को सुनाते कभी इतनी भी फ़ुर्सत न थी -
और कोई चारा न था और कोई सूरत न थी
उस के रहे हो के हम जिस से मोहब्बत न थी
इतने बड़े शहर में कोई हमारा न था
अपने सिवा आश्ना एक भी सूरत न थी
इस भरी दुनिया से वो चल दिया चुपके से यूँ
जैसे किसी को भी अब उस की ज़रूरत न थी
अब तो किसी बात पर कुछ नहीं होता हमें
आज से पहले कभी ऐसी तो हालत न थी
सब से छुपाते रहे दिल में दबाते रहे
तुम से कहें किस लिए ग़म था वो दौलत न थी
अपना तो जो कुछ भी था घर में पड़ा था सभी
थोड़ा बहुत छोड़ना चोर की आदत न थी
ऐसी कहानी का मैं आख़िरी किरदार था
जिस में कोई रस न था कोई भी औरत न थी
शेर तो कहते थे हम सच है ये 'अल्वी' मगर
तुम को सुनाते कभी इतनी भी फ़ुर्सत न थी
अल्वी साहब की जिंदगी में कई एक बार बड़े खुरदरे वक्त आते रहे हैं। एक बार तो उनकी लाइनों पर फतवे का ऐलान कर दिया गया। उन्हें एक सप्ताह के लिए अपने अजीज शहर अहमदाबाद से सपरिवार बंबई (मुंबई) जाकर दिन काटने पड़े। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित ‘चौथा आसमान’ में संकलित उस गजल के शेर की लाइन है -
अगर तुझको फुर्सत नहीं तो ना आ,
मगर एक अच्छा नबी भेज दे।
क़यामत के दिन खो ना जाएँ कहीं,
ये अच्छी घडी है, अभी भेज दे।
अल्वी साहब ने यह ग़ज़ल 1978 में लिखी थी। उसके लगभग डेढ़ दशक बाद अहमदाबाद के ही इस्लामी संगठन दारूल उलूम शाह-ए-आलम के मुफ्ती मुहम्मद शबीर सिद्दीकी ने हाईकोर्ट के रिटायर्ड वकील उस्मान भाई खत्री के कहने पर अल्वी के खिलाफ फतवा जारी कर दिया कि ये ग़ज़ल धर्मविरोधी है, अल्वी काफिर हैं। उनका कहना था कि हमने किताब-ए-पाक के ऐन मुताबिक फतवा जारी किया। अल्लाह से अच्छा पैगंबर भेजने की मांग करने से जाहिर है कि अलवी मुहम्मद साहब को न तो आखिरी और न ही बेहतरीन पैगंबर मानते हैं। इसलिए वे मुसलमान ही नहीं रहे। अल्वी ने इस जुर्म पर अफसोस जाहिर नहीं किया तो उनका सामाजिक बहिष्कार किया जाएगा।
उस्मान भाई खत्री का कहना था कि अलवी जैसे बागी शायरों को रुश्दी के मामले से सबक लेना चाहिए, जो आज तक अपने गुनाहों की सजा भुगत रहा है। अलवी के खिलाफ हम और सख्त फैसला देते पर मैं चूंकि वकील रह चुका हूं, इसलिए मुझे उन कानूनी पचड़ों का अंदाजा है, जिनमें हम इससे फंस सकते थे। अलवी का इन इल्जामात पर सिर्फ इतना भर कहना था कि किन्ही स्वार्थों की वजह से मजहबपरस्तों ने ग़ज़ल का गलत मतलब निकाला है। इसके बाद पूरे देश के साहित्यक हलकों में इस पर बहस-मुबाहसा छिड़ गया। उस वक्त निदा फाजली ने कहा था कि अलवी के खिलाफ फतवा बहुत पहले शुरू हुए रुझान का ही नया रूप है। तरक्कीपसंद ताकतों को इस खतरनाक रुझान को रोकना चाहिए।
उसी दौरान गोपीचंद नारंग ने कहा था कि अगर मजहबपरस्त महज अलफाज़ पर जाएंगे तो ज्यादातर उर्दू शायरी फतवे के लायक मानी जाएगी। वैसे, खोजने जाएंगे तो उर्दू में ऐसे शेर बहुत सारे मिल जाएंगे। सबसे पहले तो मोमिन ही याद आते हैं - हम निकालेंगे सुन ऐ मौजे-हवा बल तेरा, उसकी ज़ुल्फ़ो के अगर बाल परेशां होंगे, उम्र सारी तो कटी इश्क़े-बुतां में ‘मोमिन’, आखिरी वक्त में क्या ख़ाक मुसलमां होंगे। मोहम्मद अल्वी की एक और मशहूर गजल का मुखड़ा है - 'मैं अपना नाम तिरे जिस्म पर लिखा देखूँ'। पूरी गजल इस प्रकार है -
मैं अपना नाम तिरे जिस्म पर लिखा देखूँ
दिखाई देगा अभी बत्तियाँ बुझा देखूँ
फिर उस को पाऊँ मिरा इंतिज़ार करते हुए
फिर उस मकान का दरवाज़ा अध-खुला देखूँ
घटाएँ आएँ तो घर घर को डूबता पाऊँ
हवा चले तो हर इक पेड़ को गिरा देखूँ
किताब खोलूँ तो हर्फ़ों में खलबली मच जाए
क़लम उठाऊँ तो काग़ज़ को फैलता देखूँ
उतार फेंकूँ बदन से फटी पुरानी क़मीस
बदन क़मीस से बढ़ कर कटा-फटा देखूँ
वहीं कहीं न पड़ी हो तमन्ना जीने की
फिर एक बार उन्हीं जंगलों में जा देखूँ
वो रोज़ शाम को 'अल्वी' इधर से जाती है
तो क्या मैं आज उसे अपने घर बुला देखूँ
नीरज गोस्वामी लिखते हैं कि अपनी आधुनिक सोच के ज़रिये उर्दू शायरी और साहित्य को बुलंदियों पर पहुँचाने वाले हर दिल अज़ीज़ शायर जनाब मुहम्मद अल्वी साहब ने भले ही बहुत ऊंची तालीम हासिल नहीं की लेकिन शेर और नज़्म कहने का हुनर खूब सीखा। उस वक्त जब उर्दू ग़ज़ल हुस्नो इश्क शराब शबाब के तंग दायरे में छटपटा रही थी अल्वी साहब ने उसे नयी रौशनी दिखाई और खुली हवा में सांस लेने दी। अल्वी साहब की शायरी की खासियत है उसकी सादा बयानी लेकिन ऊपर से जो बात बहुत सीधी और सरल नज़र आती है, गहरे में उतरें तो वो उतनी सादा और सरल होती नहीं। जीवन की गूढ़तम बातों को वो बहुत आसानी से कह जाते हैं।
उन्होंने अपनी अधिकाँश ग़ज़लें छोटी बहर में कहीं हैं और ये हुनर बहुत मुश्किल से आता है। गुजरात उर्दू अकादमी, साहित्य अकादमी और ग़ालिब पुरस्कार से सम्मानित अल्वी साहब अपनी शायरी में नए प्रतीकों, भाषा और लहजे के इस्तेमाल के कारण अपने सम कालीन शायरों में सबसे जुदा नज़र आते हैं। वो उर्दू शायरी की शास्त्रीय परंपरा में बंध कर नहीं कहते, उन्हें लीक पर चलना गवारा नहीं और वो अपनी राह खुद बना कर चलते हैं, जो ऊबड़ खाबड़ होते हुए भी दिलचस्प है।
यह भी पढ़ें: 'पद्मश्री' अरविंद गुप्ता: खेल-खेल में सिखा दिया विज्ञान पढ़ना