'पद्मश्री' अरविंद गुप्ता: खेल-खेल में सिखा दिया विज्ञान पढ़ना
"जिंदगी में मुझे आज तक कोई खराब बच्चा नहीं मिला": पद्मश्री अरविंद गुप्ता
दिल्ली में इस बार गणतंत्र दिवस पर पद्मश्री से सम्मानित आईआईटी कानपुर के पूर्व छात्र अरविंद गुप्ता को बच्चों की दुनिया से अथाह लगाव है। वह उन्हीं के लिए अनवरत कभी खिलौनों की खोज करते रहते हैं, बनाते-बिगाड़ते रहते हैं तो कभी विज्ञान के प्रचार-प्रसार में जुट जाते हैं। वैचारिक रूप में वह गांधीवाद से प्रभावित हैं। पहले टेल्को में काम करते थे। अब लगभग ढाई दशक से पुणे के इन्टर यूनिवर्सिटी सेन्टर फ़ॉर एस्ट्रोनॉमी एन्ड एस्ट्रोफ़िज़िक्स केंद्र में बच्चों को विज्ञान सिखा-पढ़ा रहे हैं। इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद से वह स्वयं की किताबें लिखते हैं, अनुवाद भी करते हैं और खिलौने भी बनाते, बच्चों के बीच प्रदर्शित करते रहते हैं। वह अपनी धुन की एक अलग ही शख्सियत हैं।
अरविन्द गुप्ता ने बताया कि वह शिक्षा के क्षेत्र में मध्य प्रदेश में काम कर रही संस्था किशोर भारती के साथ जुड़े हैं। फिर उन्होंने अपना पिटारा खोला, जो उन दिनों छोटा होता था।
पद्मश्री अरविंद गुप्ता को पढ़ते, जानते समय कभी पूर्व प्रधानमंत्री चाचा नेहरू तो कभी पूर्व राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम की छवियां मन में तैरने लगती हैं। उनकी एक शिक्षा तो अद्भुत है। वह छात्रों को बेकार पड़े सामानों से सृजन की सीख देते रहते हैं। वह बताते हैं कि अगर बच्चों को कोई वैज्ञानिक नियम किसी खिलौने के भीतर नज़र आता है तो वे उसे बेहतर ढंग से समझ पाते हैं। घरों में इस्तेमाल होने वाली सामान्य चीजें, यहां तक कूड़े-कचरे का भी वैज्ञानिक प्रयोगों से सुखद इस्तेमाल किया जा सकता है। अपना यह हुनर बांटने के लिए वह अब तक तीन हजार स्कूलों का दौरा करने के साथ अट्ठारह भाषाओं में छह हजार से ज्यादा लघु फिल्में बना चुके हैं।
इसके अलावा वह दूरदर्शन पर लोकप्रिय प्रोग्राम ‘तरंग’ की मेजबानी भी कर चुके हैं। अपने एक संस्मरण में प्रसिद्ध लेखक लाल्टू लिखते हैं - 'मुंबई जाते समय अरविन्द गुप्ता से उनकी पहली मुलाकात 1969 में हुई थी। जब ट्रेन पूना के पास से गुजर रही थी, एक निहायत विक्षिप्त सा व्यक्ति डिब्बे में आया। सहपाठी संजीव भार्गव ने परिचय कराया कि वह अरविन्द गुप्ता हैं और कि वह बी-टेक के दौरान क्लासमेट थे। अरविन्द गुप्ता उन दिनों नेल्को में काम कर रहे थे। संजीव और अरविन्द मुझसे चारेक साल बड़े रहे होंगे। अरविन्द गुप्ता ने बताया कि वह शिक्षा के क्षेत्र में मध्य प्रदेश में काम कर रही संस्था किशोर भारती के साथ जुड़े हैं। फिर उन्होंने अपना पिटारा खोला, जो उन दिनों छोटा होता था।
बहुत बाद में जब इस पिटारे क़ी ख्याति काफी बढ़ चुकी थी, पिटारा बड़ा हो चुका था। फिर उन्होंने उन बच्चों के बारे में बताया, जो दिनभर सिर्फ पानी पीकर रहते थे - ऐसे बच्चों के लिए वह दियासलाई क़ी बुझी तीलियों और साइकिल वाल्व ट्यूब से विज्ञान शिक्षा के लिए काम कर रहे थे। मैं यह सब देख कर बहुत परेशान हुआ। मैं उन दिनों इक्कीस साल का था और इंकलाबी राजनैतिक सोच के अलावा कुछ भी मानने को तैयार न था। अरविन्द ने शायद यह बतलाया था कि वह सस्ते संसाधनों से मकान बनाने वाले लौरी बेकर के साथ काम करने क़ी सोच रहे हैं। बाद में उन्होंने लौरी बेकर के साथ लम्बा वक़्त गुजारा। बच्चों के लिए सस्ते और विज्ञान की समझ को पुख्ता करने वाले खिलौने बनाने का उन्हें जुनून रहा है।
खिलौनों को बनाने की कई किताबें उन्होंने लिखी हैं। इसके साथ ही बच्चों के लिए विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित चुनिंदा पुस्तकें सामने लाने का उनका एक अभियान रहा है। बहुत सारी किताबें उन्होंने स्वयं भी संपादित की हैं। अरविन्द गुप्ता ने विज्ञान सीखने की प्रक्रिया को मनोरंजक बनाने का सतत कार्य किया है। उनके अनगिनत कामों में एक पुस्तक है - 'कबाड़ से जुगाड़', जो लाखों की तादाद में लोगों तक पहुंच चुकी है।'
अरविन्द गुप्ता कहते हैं कि जीवन में आजतक उन्हें कोई खराब बच्चा नहीं मिला हैं। वह बताते हैं कि मैं मूलत: बरेली (उ. प्र.) के रहने वाले हैं। 1970 के दशक में दुनिया भर में तमाम जन आन्दोलन उभरे थे। तभी रैचल कार्सन ने सायलेंट स्प्रिंग्स नामक पुस्तक लिखी थी जिससे दुनिया में पर्यावरण आन्दोलन का सूत्रपात हुआ। अमेरिका में सिविल राइट्स और वियतनाम युद्ध विरोधी आन्दोलन अपने चरम पर थे। भारत में भी जयप्रकाश नारायण और नक्सली आन्दोलनों की शुरुआत हुई थी। जब कभी समाज का राजनैतिक मंथन होता है तो उससे बहुत सामाजिक ऊर्जा बाहर निकलती है। 70 के दशक में बहुत से वैज्ञानिक अपनी एक सार्थक सामाजिक भूमिका खोज रहे थे।
बहुत से वैज्ञानिकों ने कसम खाई थी कि वे राष्ट्र, धर्म आदि के नाम पर बम और मिसाइल के शोध कार्य में शरीक नहीं होंगे। मानवता को ध्वस्त करने की बजाय वे कुछ सकारात्मक काम करना चाहते थे। उनमें एक व्यक्ति थे डॉ. अनिल सद्गोपाल जो कैल्टेक, अमरीका से पीएच.डी. करने के बाद टी.आई.एफ.आर. में कार्यरत थे। अपनी नौकरी छोड़कर उन्होंने 1972 में मध्यप्रदेश में होशंगाबाद विज्ञान कार्यक्रम की शुरुआत की। 1972 में उन्हें आई.आई.टी. कानपुर में उनका एक भाषण सुनने का सौभाग्य मिला। आई.आई.टी. कानपुर में पाँच साल तक उन्होंने गरीब बच्चों को पढ़ाने का काम किया था। इसलिए डॉ. अनिल सद्गोपाल का कार्य बहुत अनूठा लगा।
फिर 1978 में टाटा मोटर्स, पुणे में काम करने के दौरान एक वर्ष की छुट्टी ली और वह समय होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम के साथ बिताया। उस एक वर्ष के अनुभव ने उनके आगे के जीवन का रास्ता खोल दिया। सन 1978 में होशंगाबाद विज्ञान कार्यक्रम में काम करते समय पहले ही महीने में उन्होंने माचिस की तीलियों और साइकिल की वॉल्व ट्यूब से दो और तीन आयामी आकृतियाँ बनाने का एक मेकेनो डिजाइन किया। वह स्थानीय, सस्ते सामान से बना था और उससे बच्चे ज्यामिती के साथ-साथ ढाँचों और आणविक संरचनाओं के बारे में बहुत कुछ सीख सकते थे। बड़े कारखाने में नौकरी करने की बजाय बच्चों के लिए इस प्रकार के काम में उन्हें ज़्यादा मजा आता था।
भारत में खिलौने बनाने की एक जीवंत परम्परा रही है। परम्परागत खिलौने फेंकी हुई वस्तुओं को दुबारा इस्तेमाल करके बनते हैं, इसलिए वे सस्ते और पर्यावरण मित्र होते हैं। दूसरे, खिलौनों में विज्ञान के कई सिद्धान्त छिपे होते हैं जिन्हें बच्चे खेल- खेल में बहुत सहजता से सीख सकते हैं। खिलौने हरेक बच्चे को पसन्द होते हैं। इसलिए बच्चे खुशी-खुशी, खेलते-खेलते विज्ञान की बुनियादी बातें सीख सकते हैं।
अरविन्द गुप्ता गुप्ता बच्चों का मनोविज्ञान भलीभांति समझते हैं। वह कहते हैं कि किसी बात को समझने से पहले बच्चों को अनुभव की जरूरत होती है। अनुभव में चीजों को देखना, सुनना, छूना, चखना, सूँघना, श्रेणियों में बाँटना, क्रमबद्ध रखना आदि कुशलताएँ शामिल हैं। इसके लिए बच्चों को ठोस चीजों से खेलना और प्रयोग करना अनिवार्य है। बच्चों के विकास के सारे सिद्धान्त इस पद्धति की पैरवी करते हैं। ऑडियो-विजुअल विज्ञापन बहुत सशक्त माध्यम हैं पर वे खुद अपने हाथों से चीजें बनाने और प्रयोग करने का पर्याय नहीं हैं। नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित सुदर्शन खन्ना की एक बहुत सुन्दर पुस्तक है - सुन्दर सलौने, भारतीय खिलौने।
इस पुस्तक में 100 सस्ते खिलौने बनाने की तरकीबें दर्ज हैं। ये सभी खिलौने बच्चे सालों से बनाते आए हैं और इन्हें सस्ती, स्थानीय चीजों से बनाना सम्भव है। कुछ खिलौने उड़ते हैं, कुछ घूमते हैं, कुछ आवाज करते हैं। इनसे बच्चे अपने हाथों से खुद मॉडल बनाना सीखेंगे। ये सस्ते, सुलभ मॉडल बच्चों को काटना, चिपकाना, जोड़ना और अन्य कौशल सिखाएँगे। इनके लिए किसी परीक्षा, टीचर अथवा मूल्यांकन की जरूरत नहीं होगी। अगर खिलौना ठीक नहीं बनेगा तो वह काम नहीं करेगा और बच्चे को खुद ही फीडबैक देगा। यहाँ पास-फेल का भी कुछ चक्कर नहीं होगा। मिसाल के लिए पुराने अखबार से पट्टियाँ फाड़ने का काम।
अखबार की एक दिशा, जिसमें उसके रेशे होंगे वहाँ लम्बी पट्टियाँ फाड़ना सम्भव होगा। उसके लम्बवत दिशा में केवल छोटे टुकड़े ही फटेंगे। यहाँ अखबार ही बच्चे का टीचर होगा। इसी प्रकार रेशे की दिशा में ही लकड़ी को छीलना (रंदा) सम्भव होगा, दूसरी में नहीं। हमारे स्कूलों में गतिविधि आधरित विज्ञान शिक्षण की बहुत जरूरत है। पर विडम्बना यह है कि इस काम को अंजाम देने के लिए न तो प्रशिक्षित शिक्षक हैं और न ही इस काम को करने वाली प्रेरक संस्थाएँ हैं। उच्च कोटि के लोगों को टीचर ट्रेनिंग संस्थाओं में लाना चाहिए ताकि वहाँ से कुशल, उत्साही और प्रेरित शिक्षक निकल सकें।
अरविन्द गुप्ता मूलत: हिन्दी और अँग्रेजी में लिखते हैं। उनका कहना है कि देश की प्रान्तीय भाषाओं में लोकप्रिय विज्ञान की बेहद कमी है। सरकारी संस्थाओं की बहुत सीमाएँ हैं। अधिकांश का आम लोगों की जिन्दगी से कोई सरोकार नहीं है। हिन्दी को ही लें। 40 करोड़ हिन्दी भाषी हैं जो पाँच राज्यों में रहते हैं। यह आबादी बहुत बड़ी है और इसमें अपार सम्भावनाएँ हैं। दुनिया के श्रेष्ठतम लोकप्रिय विज्ञान साहित्य का हिन्दी में अनुवाद करना जरूरी है पर किसी संस्था की इसमें रुचि नहीं है। हिन्दी की पुरानी संस्थाएँ अब बूढ़ी हो चली हैं और मृत्यु की कगार पर हैं। हिन्दी अकादमी और अन्य संस्थाएँ लोगों की जिन्दगी, उनकी आकांक्षाओं से पूरी तरह कट चुकी हैं।
उसके ऊपर एक और तुर्रा है। कौन कहता है कि हिन्दी में लोग नहीं पढ़ते? पर क्या पढ़ते हैं- मेरठ से प्रकाशित घटिया जासूसी उपन्यास खूनी पंजा, मौत का शिकंजा आदि जिनके पहले संस्करण का प्रिंट आर्डर 5 लाख प्रतियाँ होता है! दरअसल हिन्दी जगत में अच्छे साहित्य विशेषकर बालसाहित्य और विज्ञान की लोकप्रिय पुस्तकों का एकदम टोटा है। नब्बे वर्ष से अमेरिका में हर साल उत्कृष्ट बाल साहित्य के लिए दो पुरस्कार दिए जाते हैं : न्यूबेरी मेडल और सबसे सुन्दर चित्रकथा के लिए कैल्डीकॉट मेडल। हिन्दी में नेशनल बुक ट्रस्ट ने मात्र एक न्यूबेरी पुरस्कृत पुस्तक धनगोपाल मुखर्जी की गे-नेक छापी है। दुनिया के सर्वश्रेष्ठ बाल साहित्य से हमारे बच्चे अनजान हैं।
यह हिन्दी जगत की गहरी जड़ता का द्योतक है। हम अक्सर भारत की चीन से तुलना करते हैं। पर हमारी मिट्टी कुछ इस तरह बरबाद कर दी गई है कि यहाँ अच्छे बीज भी कुम्हलाकर मुरझा जाते हैं। बच्चों के आगे बढ़ने के लिए कोई रास्ता नहीं है। पिछली शताब्दी के महान अमरीकी लेखक मार्क ट्वेन ने कहा था, स्कूलों को अपनी असली शिक्षा में आड़े मत आने दो। यह एक अच्छा मंत्र है। महामहिम अम्बेडकर ने भी हमें यही सीख दी थी, अपनी शिक्षा की ज़िम्मेदारी खुद अपने हाथों में लो। सरकारी और निजी संस्थाओं का मुँह मत ताको। उनका नारा था-खुद शिक्षित हो, संगठन बनाओ और संघर्ष करो!
अरविंद गुप्ता बताते हैं कि पेगी हग्स की स्कूल पर बनी एक फिल्म ‘वी हैव टू कॉल इट अ स्कूल’ में एक शिक्षक कहता है, ‘चूंकि बच्चों को स्कूल जाना ही पड़ता है और इसलिए हम अगर इसे स्कूल नहीं कहेंगे तो शायद वे यहां नहीं आएंगे।’ लेकिन सिवाय इस बात के कि स्कूल टाइम में बच्चे यहां रहते हैं, यह किसी भी कोण से स्कूल जैसा नहीं है। यहां कुछ भी ‘पढ़ाया’ नहीं जाता। यह एक ऐसी जगह है जहां कोई 85 बच्चे और कुछ बड़े अपने-अपने फितूर में मशगूल रहते हैं। बड़े लोग पारंपरिक अर्थों में शिक्षक नहीं हैं। न ही किसी के भी पास बी.एड. या इसी तरह की अन्य शिक्षण डिग्री है।
लेकिन इस चौड़ी-चकली दुनिया में सालों तक काम करने के बाद उनके पास तरह-तरह के हुनरों का ऐसा खजाना है, जिन्हें बच्चे बेइंतहा पसंद करते हैं। लिटिल न्यू स्कूल नाम का यह स्कूल डेनमार्क के कोपेनहेगन शहर में 1970 दशक के शुरूआती वर्षों में खुला था। डेनिश सरकार अभिभावकों द्वारा चलाये जाने वाले स्कूलों के 85 फ़ीसदी खर्चों को उठाने के लिए जानी जाती है। स्कूल चलाने वाले अभिभावकों को मात्र 15 प्रतिशत खर्चा इकट्ठा करना पड़ता है। इस रियायत से यहां कई प्रयोगात्मक स्कूलों को फलने-फूलने का मौका मिलता है। इस स्कूल को शुरू करने वालों ने इससे पहले इसी तरह के कुछ अन्य स्कूलों में पढ़ाया था।
इन स्कूलों में से कई बाद में बच्चों के ‘परिणामों’ को लेकर इतने संजीदा हो गए कि सामान्य स्कूलों की राह पर चल निकले। इस बदलाव से निराश चन्द लोगों ने बच्चों के लिए फिर से एक नई जगह बनाने का फैसला लिया। यह स्कूल एक औद्योगिक इलाके में है और इसके पास कुल मिलाकर एक बड़ा हॉल व दो छोटे कमरे हैं। स्कूल में कोई पाठ्यपुस्तक या पाठ्यक्रम नहीं पढ़ाया जाता। यहां न कोई घंटी बजती है, न पीरियड लगते हैं। न होमवर्क होता है न ही क्लास वर्क। जाहिर है यहां इम्तहान, टेस्ट, जांच या ग्रेड जैसे चीज़ें भी नहीं हैं। बेशक कई दिलचस्प किताबें यहां हैं और एक वर्कशॉप व जिम्नेजियम भी हैं, जहां बच्चे अपने हाथों से कई तरह की चीज़ें बना सकते हैं।
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