एक चाय की चुस्की, एक कहकहा
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 'मन की बात' आज गुजरात में ‘चाय के साथ’ करने की लज्जतदार खबर पर अनायास साहित्य से सियासत तक के कई रोचक-रोमांचक वाकये याद आने लगे। चाय अपनी जगह है, सियासत अपनी जगह लेकिन साहित्य सब जगह।
चाय पर इलाहाबाद के प्रसिद्ध हिंदी कवि स्वर्गीय उमाकांत मालवीय जीवन की संगत-विसंगत को इस तरह जोड़ते चलते हैं, जैसे दुनिया में चाय के जितना अपना और कोई हो ही नहीं, एक चाय की चुस्की एक कहकहा। अपना तो इतना सामान ही रहा ।
राकेश खँडेलवाल तो लिखते हैं कि हैश ब्राऊन काफ़ी बिस्किट और डोनट बेगल हाय, वाशिंगटन में मिल न पाती अब सुबह की चाय। क्या करिएगा। उतने बड़े देश में इतनी छोटी सी तलब पूरी न होने की विसंगति किसी जेल की सजा से कम नहीं लगती होगी। परदेशी होने की मजबूरियां जो न कराएं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 'मन की बात' आज गुजरात में ‘चाय के साथ’ करने की लज्जतदार खबर पर अनायास साहित्य से सियासत तक के कई रोचक-रोमांचक वाकये याद आने लगे। चाय अपनी जगह है, सियासत अपनी जगह लेकिन साहित्य सब जगह। चाय पर इलाहाबाद के प्रसिद्ध हिंदी कवि स्वर्गीय उमाकांत मालवीय जीवन की संगत-विसंगत को इस तरह जोड़ते चलते हैं, जैसे दुनिया में चाय के जितना अपना और कोई हो ही नहीं -
एक चाय की चुस्की एक कहकहा।
अपना तो इतना सामान ही रहा ।
चुभन और दंशन पैने यथार्थ के
पग-पग पर घेर रहे प्रेत स्वार्थ के
भीतर ही भीतर मैं बहुत ही दहा
किंतु कभी भूले से कुछ नहीं कहा ।
एक अदद गंध एक टेक गीत की
बतरस भीगी संध्या बातचीत की ।
इन्हीं के भरोसे क्या-क्या नहीं सहा
छू ली है सभी, एक-एक इन्तहा ।
एक क़सम जीने की ढेर उलझनें
दोनों ग़र नहीं रहे बात क्या बने ।
देखता रहा सब कुछ सामने ढहा
मगर कभी किसी का चरण नहीं गहा ।
राकेश खँडेलवाल तो लिखते हैं कि हैश ब्राऊन काफ़ी बिस्किट और डोनट बेगल हाय, वाशिंगटन में मिल न पाती अब सुबह की चाय। क्या करिएगा। उतने बड़े देश में इतनी छोटी सी तलब पूरी न होने की विसंगति किसी जेल की सजा से कम नहीं लगती होगी। परदेशी होने की मजबूरियां जो न कराएं। अब जनाव राकेश के जवाब में मोहतरमा प्रत्यक्षा कुछ यूं फरमाती हैं-
हर सुबह गर मयस्सर हो एक चाय की प्याली
तुम्हारा हँसता हुआ चेहरा और एक ओस में भीगी
गुलाब की खिलती हुई कली
तो सुबह के इन हसीं लम्हों में
मेरा पूरा दिन मुक्कमल हो जाये।
ऐसे में लगे हाथ आइए, घनश्याम जी की भी चाय पर कुछ दिलचस्प लाइनें पढ़ ही डालते हैं झटपट-झटपट-
बिना दूध की, दूध की, फीकी, चीनीवाली
जैसे भी हो, दीजिये भरी चाय की प्याली
भरी चाय की प्याली, बिस्कुट भी हों ट्रे में
जैसे लोचन मिलें नयनसुख को दो फ्री में
चुस्की ले-ले पियो अगर हो आधी खाली
जैसे साली कहलाये आधी घर वाली
चाय के बारे में वत्सला पांडेय के लफ्ज भी कुछ लाजवाब नहीं। वह लिखती हैं कि एक प्याली चाय दोस्तों के साथ हो, तो गप्पे हो जाती हैं, एक प्याली चाय नातेदारों के साथ हो तो घर के मसले हल हो जाते हैं, एक प्याली चाय ऑफिस की टेबल पर हो तो फाइलें निपट जाती हैं और एक प्याली चाय तुम्हारे साथ हो तो, मैं सब कुछ भूल जाती हों। किसके साथ, कोई अपना होगा, सबसे अपना, उनका। यानी दिनभर की पीड़ा, चिंता और थकन, सिर्फ एक प्याली चाय। महाराज कृष्ण संतोषी लिखते हैं कि 'चाय पीते हुए मुझे लगता है जैसे पृथ्वी का सारा प्यार मुझे मिल रहा होता है। कहते हैं, बोधिधर्म की पलकों से उपजी थीं चाय की पत्तियां पर मुझे लगता है भिक्षु नहीं
प्रेमी रहा होगा बोधिधर्म, जिसने रात-रात भर जागते हुए रचा होगा आत्मा के एकान्त में अपने प्रेम का आदर्श! मुझे लगता है दुनिया में कहीं भी जब दो आदमी मेज के आमने-सामने बैठे चाय पी रहे होते हैं तो वहां स्वयं आ जाते हैं तथागत और आसपास की हवा कोमैत्री में बदल देते हैं।' इसी तरह एक बार गुस्ताख़ जी को शांतिदीप जी से चाय पर चर्चा के एक विशेष सत्र के बाद ये कविता मिली, जिसे वह छापने से खुद को रोक नहीं पाए-
कविता- जिंदगी चाय है
जितना आसान था सवाल मेरा,
उससे भी आसान उनका जवाब आया,
जिंदगी क्या है?
चाय की प्याली हाथ में लेकर
मासूमियत से उनने चुस्की ली और फरमाए-
चाय जिंदगी है।
अटपटा लगा उनका जवाब, पूछ बैठा, कैसे भला
जिंदगी कड़वाहट है, चाय पत्ती की तरह
जिंदगी मीठी है शक्कर जैसी
जिंदगी हौले से जिओगे तो जी जाओगे
जल्दी-जल्दी में जल जाओगे
कहकर दुबारा लेने लगे चाय की चुस्की
एक दम आसान-सी जिंदगी की तरह
मुझे कर दिया था अपनी बातों से कायल उनने
लगने लगी थी मुझे भी
चाय की इच्छा..चहास।
दुनिया को पता हो न हो, हिंदी फिल्म देखने वालों को जरूर पता होगा कि टॉम ऑल्टर कौन थे। हाल ही में उनका उत्तराखंड में देहांत हो गया। वह फिल्मों में मुख्यतः ‘अंग्रेज’ का किरदार निभाते थे। उन्होंने उन्होंने शतरंज के खिलाड़ी, देश-परदेश, क्रांति, गांधी, राम तेरी गंगा मैली, कर्मा, सलीम लंगड़े पे मत रो, आशिकी, जुनून, परिंदा, वीर-जारा, मंगल पांडे समेत लगभग तीन सौ से अधिक फिल्मों में अपने अभिनय का जौहर दिखाया। उन्होंने कई बेहद लोकप्रिय धारावाहिकों में भी काम किया, जिसमें भारत एक खोज, जबान संभालके, बेताल पचीसी, हातिम और यहां के हैं हम सिकंदर प्रमुख हैं। इतनी सारी बातों के साथ एक सबसे महत्वपूर्ण बात और टॉम ऑल्टर की याद दिलाती है, वह चाय और शायरी के भी बड़े शौकीन थे। चाय की चुस्कियों पर जमाने से तरह-तरह की ढेर सारी बातें होती चली आ रही हैं। तो आइए, चाय पर कुछ और यादगार पंक्तियां पढ़ते हैं रविकांत जी की-
न जाने कहाँ से आती है पत्ती
हर बार अलग स्वाद की
कैसा-कैसा होता है मेरा पानी!
अंदाजता हूँ चीनी
हाथ खींचकर, पहले थोड़ी
फिर और, लगभग न के बराबर
जरा-सी
कभी डालता हूँ गुड़ ही
चीनी के बजाय
बदलता हूँ जायका
अदरक, लौंग, तुलसी या इलायची से
मुँह चमकाने के लिए महज
दूध की
छोड़ता हूँ कोताही
हर नींद के बाद
खौलता हूँ
अपनी ही आँच पर
हर थकावट के बाद
हर ऊब के बाद।
चाय पर कविताई तो बहुत हो चुकी लेकिन ये मालूम होना चाहिए कि इस पर शेरो-शायरी के भी कुछ लुत्फ नहीं उठते रहते हैं। कवि सम्मेलनों और मुशायरों का सबसे लाजवाब व्यंजन, हां-हां, व्यंजन ही मानिए, चाय रहती है, रात-रात भर कवि-शायर चुस्कियां लेते रहते हैं, और एक से एक फन्ने खां लाइनें श्रोताओं के दिलोदिमाग पर बरसाते रहते हैं। तो, आइए, कुछ माहौल जरा सा शायराना भी हो जाए। तौकीर अब्बास लिखते हैं -
छोड़ आया था मेज़ पर चाय
ये जुदाई का इस्तिआरा था
मेरी आँखों में आ के राख हुआ
जाने किस देस का सितारा था
शायराना को चायराना भी कहा जा सकता है। तो अपने चायराना अंदाज में शायर जाने क्या-क्या कह डालते हैं। एक जनाब लिखते हैं - पीता नहीं शराब की मुझे इतना भी गम नहीं, नशा करने को चाय की चंद चुस्किया ही काफी है। जनाब उम्दा शायर वाली आसी भी भला चाय के प्याले की इज्जत में नाफरमानी कैसे करते। वह भी चंद लाइनों के साथ नमूदार होते हैं -
सिगरटें चाय धुआँ रात गए तक बहसें,
और कोई फूल सा आँचल कहीं नम होता है।
तो, अब चलते-चलाते, आइए भाई डॉ टी एस दराल की भी सुन लेते हैं कि वो चाय को कितनी तवज्जो देते हैं, किस तरह उसे अपनी कलम की जुबान में शामिल किए हुए हैं। वह कहते हैं कि चाय पीजिये, खूब पीजिये, पिलाइये, खूब पिलाइये लेकिन खुद भी बनाइये। सबके बिगड़े काम बनाये एक कप चाय। सुबह उठते ही दो चीज़ें याद आती हैं, अखबार और चाय। दोनों एक दूसरे की पूरक भी हैं। एक न हो तो दूसरे में भी मन नहीं लगता। चाय का तो कोई विकल्प नहीं लेकिन यदि अख़बार न हो तो अब हम भी अन्य ब्लॉगर्स / फेसबुकियों की तरह कंप्यूटर खोल कर बैठ जाते हैं। आखिर सबसे ताज़ा ख़बरें तो यहीं मिल जाती हैं।
अक्सर फेसबुक खोलते ही अनूप शुक्ल जी की चाय पर 'कट्टा कानपुरी' कविता पढने को मिलती है। वही से पता चलता है कि अनूप जी या तो चाय की चुस्कियां ले रहे होते हैं या इंतज़ार में कविता लिख रहे होते हैं। यह भी पता चलता है कि वह खुद कभी चाय नहीं बनाते बल्कि चाय बनाने वाले / वाली पर निर्भर रहकर चाय का बेसब्री से इंतज़ार करते हैं। लेकिन हम तो सुबह सबसे पहला काम ही यही करते हैं। श्रीमती जी का भी कहना है कि हम चाय बहुत अच्छी बनाते हैं। हालाँकि उनका तारीफ़ करने का मकसद हम भली भांति समझते हैं, लेकिन इस विषय में असहमति भी नहीं रखते। आखिर दुनिया में कोई और काम आये न आये , लेकिन कम से कम चाय बनाना तो आना ही चाहिए। वैसे तो देशवासियों को चाय पीना अंग्रेजों ने सिखाया था लेकिन हम जो चाय पीते हैं उससे अंग्रेजों का कोई लेना देना नहीं है।
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