इंसानी दिल जितनी दिलचस्प है दिल के डॉक्टर अशोक सेठ की कामयाबी की कहानी
डॉ. अशोक सेठ दिल के ऐसे डॉक्टर हैं जिनकी लोकप्रियता और प्रसिद्धि भारत-भर में ही नहीं बल्कि दुनिया-भर में व्याप्त है. इंसानी दिल के कामकाज के तरीके, दिल से जुड़ी बीमारियों और उनके इलाज के वे बहुत बड़े जानकार हैं. दिल की बीमारियों के इलाज की अलग-अलग चिकित्सा-पद्धतियों में उन्होंने महारत हासिल की हुई है. वे हज़ारों मरीजों का इलाज कर चुके हैं. लोगों को दिल की बीमारियों से मुक्ति दिलवाने का उनका काम अब भी बेरोकटोक जारी है.अशोक सेठ ने भारत में दिल की बीमारियों के इलाज की प्रक्रिया को न सिर्फ एक ऊंचे मुकाम पर पहुँचाया है बल्कि अपनी उपलब्धियों से ये साबित किया है कि बुद्धिमता, कौशल, मेहनत और प्रतिभा के मामले में भारत के डॉक्टर और वैज्ञानिक किसी से कम नहीं हैं.अपने गौरवशाली डॉक्टरी जीवन में डॉ. सेठ ने कई ऐसे काम किये हैं जोकि उनके पहले किसी अन्य भारतीय ने नहीं किये. वे अब तक 50 हज़ार से ज्यादा एंजियोग्राफी और 25 हज़ार से ज्यादा एंजियोप्लास्टी प्रोसीजर कर चुके हैं. इस कीर्तिमान और अभूतपूर्व कार्य के लिए डॉ. अशोक सेठ का नाम लिम्का बुक ऑफ़ रिकार्ड्स में भी दर्ज किया जा चुका है. उन्होंने भारत की नहीं बल्कि कई सारे विदेशी डॉक्टरों को भी दिल की बीमारियों के इलाज की सबसे प्रभावी और सुरक्षित चिकित्सा-पद्धतियाँ सिखाई हैं. चिकित्सा-क्षेत्र में उनकी उपलब्धियों को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार उन्हें पहले पद्मश्री और फिर बाद में पद्मभूषण उपाधि से भी सम्मानित कर चुकी है. वे डॉ. बी.सी. रॉय अवार्ड भी पा चुके हैं. उन्हें मिले राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों की सूची बहुत लम्बी है.डॉ. अशोक सेठ की कहानी भी कामयाबी की बहुत-ही सुंदर और शानदार कहानी है. ये कहानी भी लोगों को प्रेरणा देने वाली है, अच्छे काम करने के लिए प्रोत्साहित करने वाली है. डॉ. सेठ की कहानी के कई सारे पहलु बेहद रोचक और रोमांचक भी है. जीवन को सफल बनाने के मंत्र भी डॉ. अशोक सेठ की कहानी में छिपे हुए हैं.हम यहाँ डॉ. अशोक सेठ के जीवन से जड़ी कुछ महत्वपूर्ण बातों, घटनाओं और पहलुओं को यहाँ पेश कर रहे हैं. यही उम्मीद है कि इन्हें पढ़ने के बाद लोगों को सीखने और समझने को कुछ नयी और उपयोगी बातें मिलेंगी.
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बचपन में खूब खेला डॉक्टर-पेशेंट का खेल
बच्चे अक्सर ‘डॉक्टर-डॉक्टर’ खेल खेला करते हैं. बच्चों के दल में जो सबसे तेज़ और बुद्धिमान हॉट है वो अमूमन डॉक्टर बनता है. कोई डॉक्टर का असिस्टेंट बनता है, कोई नर्स बनता है, कोई कम्पाउण्डर.किसी न किसी को मरीज भी बनाना पड़ता है. अशोक के पिता डॉक्टर थे. दिन-रात डॉक्टरी करते थे.मरीजों का उनके यहाँ आना-जाना लगा ही रहता था. बालक अशोक बड़े गौर से देखते थे कि उनके पिता किस तरह से मरीजों का इलाज कर रहे हैं. छोटी-सी उम्र में ही अशोक ने जान लिया था कि डॉक्टर हर मरीज की नाड़ी देखता है, स्टेथोस्कोप को पहले छाती और पीठ पर इधर-उधर घुमाता है. कभी कबार डॉक्टर मरीज की आँख का भी परीक्षण करता है. और, कभी-कभी डॉक्टर मरीज को अपना मूंह खोलने के लिए कहता है और फिर टोर्च की रोशनी में मूंह में कुछ देखता है. भुखार की शिकायत करने पर डॉक्टर मरीज की जीभ के नीचे थर्मामीटर लगाकर ये देखता है कि भुखार है या नहीं. सारे परीक्षण होने के बाद डॉक्टर मरीज को दवाइयां देता है और उसे कब और कैसे खाना है ये भी बताता है. हालत ज्यादा ख़राब होने पर डॉक्टर मरीज को सुई भी लगता है. बालक अशोक हर दिन ये भी देखा करते थे जो मरीज उनके पिता की दवाइयों से ठीक हो जाते थे वे उन्हें खूब दुवाएँ देते थे. मरीज के शुक्रिया-अदा करने का सिलसिला थमता ही नहीं था. एक डॉक्टर के नाते जो प्यार और सम्मान पिता को मिलता था उसका बहुत ही गहरा असर अशोक के बाल मन-मस्तिष्क पर पड़ा था. अशोक को ये अहसास ओ गया था कि डॉक्टर आम आदमी नहीं है और उसकी लोगों के बीच ख़ास पहचान और अहमियत होती है. डॉक्टर के पास हर दर्द को दूर करने वाली दवाई होती है और जब दर्द ज्यादा होता है तो वो सुई लगाकर दर्द को दूर भगाता है. अपने डॉक्टर पिता के प्रभाव में अशोक ने भी डॉक्टर बनने की ठान ली. उम्र छोटी थी और स्वाभाविक था कि वे जानते नहीं थे कि डॉक्टर आखिर बना कैसे जाता है. लेकिन, उन्होंने छोटी उम्र से ही वो सब करना शुरू कर दिया जोकि उनके पिता मरीजों का इलाज करते समय किया करते थे. यानी ‘डॉक्टर-पेशेन्ट’ का खेल शुरू हो गया.
अशोक का दिमाग शुरू से ही तेज़ था. स्वभाव भी चंचल था. आम बच्चों की तरह ही शरारती भी थे. एक दिन उनपर ‘डॉक्टर’ बनने का भूत सवार हुआ. कोई ‘मरीज’ मिला नहीं. इसी लिए उन्होंने एक अपनी बहन की एक गुड़िया ली और उसे मरीज बनाया. गुड़िया का परीक्षण करने के बाद डॉक्टर बने अशोक इस नतीजे पर पहुंचे कि मरीज की हालत बहुत ही खराब है. फिर क्या था डॉक्टर साहब से सुई ली और फिर एक के बाद एक करते हुए गुड़िया को कई बार सुई लगा डाली. सुई लगाना देखा तो था लेकिन अशोक ये नहीं जानते थे कि सुई कहाँ, कैसे, कब, क्यों और कितनी बार लगाई जाती है. उस समय अशोक को लगा कि गुड़िया की हालत इतनी ख़राब है कि उसे कई बार सुई लगानी चाहिए. गुड़िया के शरीर भर में सुई लगाये जाने से हालत ये हुई कि उसकी शक्लोसूरत बिगड़ गयी. वो गुड़िया खिलौना न रहकर छन्नी बन गयी. और, जब बहन ने देखा कि उनकी सबसे प्यारी गुड़िया को तहस-नहस कर दिया गया है तब खूब हायतौबा मची. अशोक की हरकत देखकर माँ भी हैरान रह गयीं. अशोक को लगा कि अब पिता उनकी ‘क्लास’ लेंगे, उन्हें जमकर फटकार लगाई जाएगी. लेकिन, हुआ कुछ और ही. पिता ने जब इस वाकये के बारे में जाना तब उन्हें अहसास हो गया कि उनके लाड़ले में डॉक्टर बनने की इच्छा जन्म ले चुकी है और ये इच्छा बलवती होती जा रही है.
गुड़िया के ‘इलाज’ के बाद जब पिता ने वैसा नहीं किया जिसका कि डर था तब अशोक पर डॉक्टर-डॉक्टर’ खेलने का जुनून सवार हो गया. उन्हें अब मरीजों की तलाश रहने लगी. खिलौने वाले मरीज नहीं बल्कि इंसानी मरीज. एक दिन अशोक को इलाज करने के लिए एक मरीज मिल ही गया. उनके पड़ोस में रहने वाले चार साल का उनका एक दोस्त उनके पास आया और उन्हें बताया कि उसे पेट में दर्द हो रहा. महज़ छह साल ने अशोक के दिमाग में बत्ती जली और उन्हें लगा कि इस बार न सिर्फ डॉक्टर बनने का मौका मिला है बल्कि वे मरीज का ऑपरेशन भी कर सकते हैं. फिर क्या था, अशोक ने ऑपरेशन के लिए ज़रूरी सामान जुटाना शुरू किया. अशोक जानते थे कि ऑपरेशन करने का सामान उनके पिता एक अलमारी के ऊपर रखा करते थे. जहाँ पर ऑपरेशन का सामान था वहां तक छह साल के नन्हे बालक के हाथ नहीं पहुँच सकते थे. लम्बे अरसे बाद मरीज मिला था, इसी वजह से अशोक मौके को अपने हाथ से गवाना नहीं चाहते थे. अशोक ने टेबल लिया और ऊपर दूसरा टेबल रखा और ऑपरेशन के लिए ज़रूरी सामान तक पहुँच गए. ब्लेड, कैंची, सुई, रुई सब हाथ लगते ही अशोक ने अपने चार साल के पड़ोसी दोस्त को टेबल पर लिटाया और उसके पेट पर कपड़ा डाला. अशोक अपने हाथ में सर्जेरी के दौरान इस्तेमाल में लाये जाने वाले सर्जिकल स्काल्पेल ब्लेड लेकर अपने दोस्त का पेट चीरने जा ही रहे थे कि अचानक उनके पिता ने देख लिया. पहले तो उन्हें कुछ समझ में नहीं आया कि क्या होने जा रहा था लेकिन, जब पिता ने अशोक और उनके दोस्त से सारा घटना-क्रम सुना तब उनके हैरानी की कोई सीमा न रही. पिता ने भगवान का शुक्रिया अदा किया कि उन्हें सही समय पर ऑपरेशन थिएटर पहुंचा दिया वरना उनके ‘डॉक्टर बेटा’ के ‘डॉक्टर-पेशेंट’ में उस चार साल के मासूम का ना जाने क्या हो जाता.
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कामयाबी के पीछे है नाकामी की नायाब कहानी
अशोक ने छोटी-उम्र में ठान ली थी कि वे भी अपने पिता की तरह की डॉक्टर बनेंगे और लोगों का इलाज करते हुए उनका आशीर्वाद लेंगे. पिता की भी यही इच्छा थी कि उनका एकलौता और लाड़ला बेटा उनकी विरासत को आगे बढ़ाये. अशोक का दिमाग तेज़ था, लेकिन मेडिकल कॉलेज में दाखिले के लिए काफी मेहनत करनी पड़ी और तीन साल का लम्बा इंतज़ार भी. दसवीं की परीक्षा उम्दा नंबरों से पास करने के बाद अशोक ने इंटर में बायोलॉजी को अपना मुख्य विषय बनाया. बारहवीं के बाद हुए प्री-मेडिकल टेस्ट में अशोक का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा और उन्हें मेडिकल कॉलेज में दाखिले की योग्यता नहीं मिली. पहला एटेम्पट बेकार ही गया. इसके बाद अशोक ने दुबारा से प्री-मेडिकल टेस्ट लिखने और इस बार हर हाल में पास होने के संकल्प के साथ तैयारी शुरू की. लेकिन, प्री-मेडिकल कॉलेज की तैयारी में सारा एक साल जाया न जाय इसके लिए उनका दाखिला डिग्री कॉलेज में करवा दिया गया. अशोक ने बी.एससी. कोर्स ज्वाइन कर लिया. दूसरी बार प्री-मेडिकल टेस्ट की तैयारी पिछली बार के मुकाबले तगड़ी थी, लेकिन इतनी भी तगड़ी नहीं थी कि वे पास हो जाते. दूसरे साल भी अशोक मेडिकल कॉलेज में दाखिला पाने से चूक गए. लगातार दो साल की नाकामी ने अशोक और उनके पिता को काफी निराश किया. पिता का बस एक ही सपना था – उनका बेटा अशोक डॉक्टर बने. अशोक का भी एक ही लक्ष्य था – डॉक्टर बनना और अपने पिता के सपने को पूरा करना. लेकिन, मेहनत के बावजूद मेडिकल कॉलेज में दाखिले की योग्यता नहीं मिल रही थी. आम तौर पर ज्यादातर विद्यार्थी दो कोशिशों में नाकामी के बाद प्री-मेडिकल टेस्ट देना बंद कर देते हैं और डॉक्टर बनने का सपना छोड़कर दूसरी लाइन पकड़ लेते हैं. लेकिन, अशोक ने तीसरी बार भी प्री-मेडिकल टेस्ट देने का फैसला किया. दो साल की नाकामियों की वजह से निराशा थी, उदासी थी, लेकिन, उम्मीदें मरी नहीं थीं, सपना भी जिंदा था. अशोक ने बी.एससी. की पढ़ाई जारी रखते हुए प्री-मेडिकल टेस्ट की तैयारी नए सिरे से शुरू की. तीसरे साल की प्री-मेडिकल टेस्ट में अशोक को रैंक तो अच्छा मिला, लेकिन उनका नाम वेटिंग लिस्ट यानी प्रतीक्षा सूची में रखा गया. उत्तरप्रदेश के जवाहरलाल नेहरु मेडिकल कॉलेज की सेकंड वेटिंग लिस्ट में अशोक का नाम आया था. मुख्य सूची में जिन विद्यार्थियों को जगह मिली थी उनके कॉलेज में दाखिला न लेने की स्थिति में पहली प्रतीक्षा सूची के विद्यार्थियों से खाली स्थानों की पूर्ति होगी. पहली प्रतीक्षा सूची के विद्यार्थियों को भी सीट मिलने पर उनके दाखिला न लेने की स्थिति में दूसरी प्रतीक्षा सूची के विद्यार्थियों को उनके रैंक के आधार पर सीट मिलने का नियम था. ऐसे में अशोक को सीट मिलने की संभावनाएं काफी कम थीं. लेकिन, शायद किस्मत ने उनकी मेहनत और लगन की ताकत को मान लिया था और उन्हें अलीगढ़ मेडिकल कॉलेज में सीट मिल गयी. तीसरे साल भी अगर अशोक को सीट नहीं मिलती तो शायद वे भी डॉक्टर बनने का सपना छोड़ देते.
संघर्ष के उन दिनों में एक समय ऐसा भी आया था कि जब अशोक ने साइंस को ही अलविदा कहने का मन बना लिया था. अशोक ने अपने पिता से भी कह दिया था कि वे अब साइंस नहीं पढ़ना चाहते हैं और उनकी इच्छा बी. कॉम. करने की है. उन दिनों ज्यादातर मेधावी विद्यार्थी या तो डॉक्टर बनने का सपना देखते थे या फिर इंजीनियर बनने का. जिन लोगों को लगता था कि उनका दिमाग इतना तेज़ नहीं है कि वे इंजीनियर या डॉक्टर नहीं बन सकते वैसे लोग आर्ट्स या कॉमर्स की लाइन पकड़ते थे. प्री-मेडिकल टेस्ट में नाकामी के बाद अशोक को भी लगने लगा था कि वे डॉक्टर नहीं बन सकते. अशोक के मन भी अजीब-अजीब ख्याल आने लगे थे. भविष्य को लेकर कई सवाल खड़े होने लगे थे. असमंजस की स्थिति थी. निराशा और मायूसी भी अपनी पकड़ मज़बूत बना रही थीं. लेकिन, उनके पिता ने उन्हें प्रोत्साहित किया और कोशिश करते रहने के लिए प्रेरित किया. इसी प्रोत्साहन और प्रेरणा का ये नतीजा रहा कि अशोक ने मेहनत जारी रखी और तीसरे साल उनकी कड़ी मेहनत का नतीजा उन्हें एमबीबीएस की सीट के रूप में मिला.
डॉ. अशोक सेठ की असाधारण सफलता के पीछे भी असफलता की एक कहानी है. असफलता की ये कहानी सीख देती है कि असफलता एक चुनौती है और जो लोग इस चुनौती को स्वीकार नहीं करते वे हार जाते हैं और जो लोग असफलता की चुनौती को स्वीकार कर संघर्ष जारी रखते हैं उन्हीं अपनी मेहनत, काबिलियत के दम पर सफलता ज़रूर मिलती है. ये कहानी ये भी साबित करती है कि कोशिश करना छोड़ देने से हार हो जाती है और ईमानदारी, निष्ठा, मेहनत और लगन के साथ कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती.
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शरीर की चीरफाड़ वाले सब्जेक्ट ने जोड़ा कामयाबी की राह से
अशोक को एमबीबीएस की सीट क्या मिली सारी मायूसी और निराशा चुटकियों में छूमंतर हो गयी. तीन साल तक साथ रही वेदना अचानक ओझल हो गयी. अब हर तरफ खुशी थी, नए सपने थे. नयी उमंगें थी, नया जोश था. लेकिन, जैसा कि कई बार होता है आदमी जोश में होश खो बैठता है. एक तरफ नयी-नवेली जवानी ऊपर से मेडिकल कॉलेज में बने नए मनचले दोस्तों के साथ की संगत में अशोक लक्ष्य से भटक गए. उनका मन डॉक्टरी की पढ़ाई से हटकर मौज-मस्ती वाले कामों में लग गया. इसका नतीजा ये रहा कि मेडिकल कॉलेज में पढ़ाई के पहले साल में जितने भी इंटरनल एग्जाम हुई सबसे अशोक फेल हुए. कॉलेज में सभी शिक्षकों और प्रोफेसरों को लगा कि अशोक पढ़ाई के प्रति गंभीर नहीं हैं. एक होनहार और अच्छे विद्यार्थी की छवि नहीं बना पाए थे अशोक. एग्जाम में फेल होना भी चेतावनी की घंटी थीं. ऐसा भी नहीं था कि अशोक की बुद्धि तेज़ नहीं थी, वे मेहनत नहीं कर सकते थे. लेकिन, वे रास्ता भटक गए थे. बड़ी बात ये हुई कि सब कुछ बिगड़ जाने से पहले ही अशोक ने खुद को संभाल लिया. जब कॉलेज में पहला प्रोफेशनल एग्जाम हुआ तब अशोक ने अपने नंबरों से सभी को चौंका दिया. एनाटोमी में उनको सबसे ज्यादा नंबर मिले थे. क्लासरूम के बाहर बोर्ड पर जो अंकतालिका लगाई गयी थी उसमें अशोक का नाम सबसे ऊपर था. दोस्तों ने जब जाकर अशोक को बताया कि उनका नाम टॉप पर हैं तो उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ. अशोक को लगा कि उनके दोस्त उसके साथ कोई मज़ाक या मसखरा कर रहे हैं, जोकि दोस्तों के बीच आम बात थी. अशोक को यकीन था कि वे ‘टॉप’ पर आ ही नहीं सकते. अशोक को क्या कॉलेज में किसी के लिए भी ये यकीन करना मुश्किल था कि वे किसी भी सब्जेक्ट में टॉप मार्क्स ला सकते हैं. अशोक के लिए एग्जाम में पास हो जाना ही बड़ी बात मानी जाती थी. यही वजह थी कि अशोल ने अपने दोस्तों की बातों को हल्के में लिया और मार्क्स देखने गए ही नहीं. शाम को यूं ही टहलते टहलते वे क्लासरूम की तरफ गए तब उन्होंने बोर्ड पर लगी लिस्ट को देखा. वाकई उनका नाम सबसे ऊपर था. उनकी हैरानी और खुशी – दोनों को कोई ठिकाना नहीं रहा. इसके बाद अगले दिन वे एनाटोमी डिपार्टमेंट के प्रोफेसर से मिलने गए. उन दिनों ये नियम था कि जो कोई जिस सब्जेक्ट में टॉप करता था उसे अगले दिन जाकर संबंधित डिपार्टमेंट के हेड और प्रोफेसर से मिलना होता था. यही औपचारिकता निभाने के मकसद से अशोक एनाटोमी डिपार्टमेंट में हेड से मिलने पहुंचे. अशोक को लग रहा था कि हेड प्रोफेसर उन्हें शाबाशी देंगे और उनकी तारीफ़ करेंगे. अशोक जब एनाटोमी के प्रोफेसर के कमरे में पहुंचे तब वे अपनी कुर्सी पर बैठे हुए थे. अशोक उनके पास गए और कहा – मैं अशोक सेठ हूँ और मैंने एनाटोमी में टॉप किया. ये बात सुनने के बाद कुछ पल के लिए प्रोफेसर शांत रहे. कुछ पल की चुप्पी के बाद प्रोफेसर ने गंभीर स्वर में पूछा – डॉक्टर साहब! ये हुआ कैसे? ये सवाल सुनकर अशोक चौंक गए. कुछ देर कर हक्केबक्के रहने के बाद जब अशोक ने खुद को सभाला तब उन्होंने जवाब दिया – मैं आपसे यही जानने आया हूँ कि ये हुआ कैसे? इस सवाल का जवाब न प्रोफेसर के पास था न खुद अशोक के पास. लेकिन ये हकीकत थी कि अशोक को एनाटोमी में अव्वल नंबर मिले थे और इसकी वजह से वे गोल्ड मैडल के भी हकदार बने.
बड़ी बात ये रही कि इस गोल्ड मैडल ने अशोक की आँखें खोल दीं और इससे उन्हें उनका लक्ष्य फिर साफ़ दिखाई देने लगा. अशोक को अहसास हुआ कि अगर दूसरे एक्साम्स में वे अव्वल नहीं आये तो सभी ये मानेंगे कि कोई चमत्कार हुआ था जिसकी वजह से अशोक को एनाटोमी में गोल्ड मैडल मिल गया. अशोक ने फैसला कर लिया था कि वे साबित करेंगे कि किसी चमत्कार की वजह से नहीं बल्कि उनकी काबिलियत और उनकी कुशाग्र बुद्धि की वजह से उन्हें एनाटोमी पढ़ना शुरू किया. सारा ध्यान परीक्षाओं पर लगा दिया. नतीजा ये रहा कि दूसरे सभी सब्जेक्ट के एग्जाम में भी अशोक को शानदार नंबर मिले. एमबीबीएस की पढ़ाई के दौरान उन्हें सिर्फ एक नहीं बल्कि चार गोल्ड मैडल मिले. अशोक कहते हैं, “एनाटोमी में गोल्ड मैडल क्या मिला, मेरी ज़िंदगी बदल गयी. मुझे लगा कि अगर अगले एग्जाम में मैंने टॉप नहीं किया तो कॉलेज में सभी लोग मेरा मज़ाक उड़ायेंगे और अगर मैं फिर से नंबर वन बन गया तो सभी मेरी रेस्पेक्ट करेंगे. मैंने खूब मेहनत की और सभी की रेस्पेक्ट हासिल की.” अशोक ने ये भी कहा, “हर इंसान की अपनी बुद्धि होती है, अपनी अलग ताकत होती है, क्वालिटीज़ भी हर इंसान की अपनी अलग ही होती हैं. ये सभी इंसान के अंदर होती हैं, जब इंसान अपनी क्वालिटीज़ को बाहर निकाल लाता है तब वो अच्छा काम करता है. अगर इंसान का इरादा पक्का है, उसे अपने काम के प्रति निष्ठा है और वो पूरे फोकस के साथ मेहनत कर रहा है तब उसे कामयाबी ज़रूर मिलेगी.”
अलीगढ़ मेडिकल कॉलेज में अशोक के अनुभव ये भी सीख देते हैं कि अगर इंसान को समय रहते अपनी गलतियों का अहसास हो और वो भूल-सुधार कर ले तो ज़िंदगी फिर से संवर जाती है. इतना ही नहीं ज़िंदगी किसी न किसी रूप में हर इंसान को चेतावनियाँ देती रहती है और अगर इंसान इन चेतावनियों को नज़रंदाज़ करता है तो उसे ज़िंदगी में भारी मूल चुकाना पड़ता है.
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टूटे दिल से सीखना शुरू किया था दिल की बीमारियाँ का इलाज
पिता की ये भी इच्छा थी कि अशोक इंग्लैंड में जाकर डॉक्टरी की उच्च-स्तरीय पढ़ाई करें. अलीगढ़ मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस की डिग्री मिलने के बाद पिता ने अशोक को इंग्लैंड भिजवा दिया. उन दिनों चिकित्सा के क्षेत्र में सबसे बड़े प्रयोग इंग्लैंड में ही हो रहे थे. अलग-अलग बीमारियों के इलाज के लिए सबसे सुरक्षित और कारगर चिकित्सा-तकनीकों का भी इलाज वहीं किया जा रहा था. लाइलाज समझी जाने वाली बीमारियों का इलाज भी ढूँढा जा रहा था. दुनिया के सबसे बड़े और मशहूर डॉक्टर और अस्पताल भी उन दिनों इंग्लैंड में ही थे. लेकिन, इंग्लैंड के लोगों की भारत के लोगों के प्रति मानसिकता नहीं बदली थी. अशोक ने बताया, “1978 में मैं जब इंग्लैंड पहुंचा तब हालत ख़राब थी. इंग्लैंड के लोग तब भी भारत के लोगों को अपने किसी गुलाम देश का नागरिक ही मानते थे. इंसान के शरीर के रंग को देखकर भेदभाव किया करते थे.” अंग्रेजों को ये भी गुरूर था कि उनके पास मौजूद तकनीकें किसी और के पास नहीं हैं. सारे देशों के लोग उनकी की इजाद की हुई तकनीकों का इस्तेमाल करते हैं. अंग्रेज़ ये भी खुले-आम कहा करते थे कि दूसरे देश उनकी तरह तकनीकों का इजाद भी नहीं कर सकते हैं क्योंकि उनके पास जो ताकत है वे दूसरों के पास नहीं है. अंग्रेजों के रवैये और भेदभाव वाली नीति से अशोक को बहुत बुरा लगा. भारत के लोगों के प्रति अंग्रेजों की सोच ने उनके मन को बहुत ठेंस पहुंचाई. उन्होंने मन ही मन संकल्प ले लिया कि वे ये साबित कर दिखाएँगे कि भारतीय भी दिमागी ताकत, प्रतिभा और कौशल के मामले में किसी से पीछे नहीं हैं.
इंग्लैंड पहुँचने के बाद अशोक ने पहले जनरल मेडिसिन की पढ़ाई की. इसके बाद उन्होंने गैस्ट्रो- एंट्रोलोजी और कार्डियोलॉजी की पढ़ाई की. अशोक पेट, जिगर, आंत, पाचन-प्रणाली का डॉक्टर बनना चाहते थे. अशोक ने फैसला कर लिया था कि वे गैस्ट्रो-एंट्रोलोजिस्ट बनेंगे. इसके पीछे एक ख़ास वजह भी थी. उन दिनों इंग्लैंड में पेट, जिगर, आंत, पाचन-प्रणाली आदि से जुड़ी अलग-अलग छोटी-बड़ी बीमारियों के इलाज के लिए बहुत ही आसान, प्रभावी और सुरक्षित चिकित्सा-पद्धतियों का इजाद किया गया था. एंडोस्कोपी, ईआरसीपी जैसी चिकित्सा-पद्धतियाँ उन दिनों बिलकुल नयी थीं और सिर्फ कुछ ही देशों में इन अत्याधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल किया जा रहा था. अशोक को लगा कि वे भी इन अत्याधुनिक चिकित्सा-पद्धतियों को सीखकर पेट, जिगर, आंत, पाचन-प्रणाली आदि से जुड़ी बीमारियों का इलाज करते हुए बड़े और मशहूर गैस्ट्रो-एंट्रोलोजिस्ट बनेंगे. अशोक सुहाने सपने देखने लगे थे. उन्होंने अपने भविष्य की योजनाएँ भी इन्हीं सपनों के आधार पर बनाई थीं. लेकिन, नस्ली भेदभाव की वजह से अशोक के ये सपने चकनाचूर हो गए. उन्हें गैस्ट्रो-एंट्रोलोजिस्ट से सुपर-स्पेशलिटी कोर्स में दाखिला नहीं मिला. उनकी जगह किसी श्वेत-वर्ण के व्यक्ति को दाखिला दिया गया. इस भेदभाव की वजह से नाइंसाफी का शिकार हुए अशोक का दिल टूट गया. लेकिन, कार्डियोलॉजी के एक प्रोफेसर ने अशोक को ‘दिल का डॉक्टर’ यानी कार्डियोलॉजिस्ट बनने की सलाह दी. अशोक का दिल पेट और जिगर का डॉक्टर बनने में लग गया था, दिल का डॉक्टर बनने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थे. अशोक कहते हैं, “उन दिनों दिल की बीमारियों का इलाज वैसा नहीं था जैसा की आज है. उन दिनों कार्डियोलॉजिस्ट के पास कुछ नहीं बल्कि स्टेथस्कोप ही होती थी. कार्डियोलॉजिस्ट को उन दिनों ईसीजी देखने वाला डॉक्टर कहा जाता था.” चूँकि अशोक के पास कोई दूसरा विकल्प नहीं था उन्हें कार्डियोलॉजी को ही अपना मुख्य विषय बनाना पड़ा. लेकिन, किस्मत कहिये या कोई चमत्कार, जब अशोक ने कार्डियोलॉजी में सुपर-स्पेशलाइजेशन कोर्स करना शुरू किया तभी से दिल की बीमारियों के इलाज में क्रांतिकारी परिवर्तन आने शुरू हुए. जिस यूनिवर्सिटी टीचिंग कॉलेज में अशोक कार्डियोलॉजी की पढ़ाई कर रहे थे उस कॉलेज में भी एंजियोप्लास्टी शरू हुई. वो दुनिया का दूसरा ऐसा अस्पताल था जहाँ एंजियोप्लास्टी शुरू की गयी थी. इस तकनीक ने दिल के बीमारियों के इलाज को न सिर्फ आसान बनाया बल्कि बेहद कारगर और सुरक्षित भी बना डाला. अशोक की शायद खुशनसीबी ही थी कि वे ‘एंजियोप्लास्टी’ सीखने वाले दुनिया के पहले क्रम के डॉक्टरों में एक बन पाए. यानी ये इत्तिफाक ही था कि अशोक पेट और जिगर का डॉक्टर न बनकर दिल का डॉक्टर बने. अशोक के अपने गुरु की सलाह मानकर दिल का डॉक्टर बनने का फैसला लिया था वरना उनका दिल कहीं और ही लगा हुआ था. टूटे दिल से ही उन्होंने दिल की बीमारियों और उनके इलाज के बारे में सीखना शुरू किया था लेकिन आगे चलकर उन्होंने कई सारे खराब दिलों को ठीक किया और हज़ारों लोगों की जान बचाई. लोगों के खराब दिल ठीक करने का सिलसिला अब भी बदस्तूर जारी है.
बड़ी बात ये भी है कि जिन दिनों अशोक ने एंजियोप्लास्टी करना शुरू किया था उन दिनों इस चिकित्सा-प्रक्रिया के दौरान भी कुछ मरीजों के मौत के मामले सामने आ रहे थे. कोई नहीं जानता था कि एंजियोप्लास्टी का क्या भविष्य होगा. लेकिन, आगे चलकर एंजियोप्लास्टी ही दुनिया भर में दिल की बीमारियों की सबसे कामयाब और प्रभावी तकनीक साबित हुई. अशोक बताते हैं कि दुनिया-भर में दिल की बीमारियों से परेशान मरीजों में से तकरीबन 70 फीसदी मरीजों का इलाज एंजियोप्लास्टी से ही किया जा रहा है. और, इन दिनों अशोक सेठ की गिनती दुनिया-भर में एंजियोग्राफी और एंजियोप्लास्टी के सबसे बड़े जानकार के रूप में होती है.
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मरीज उन्हें भगवान मानते हैं, लेकिन वे कहते हैं- इलाज मैं नहीं करता, भगवान मुझसे करवाते हैं
अशोक ने एंजियोप्लास्टी करना क्या शुरू किया वे ये चिकित्सा-पद्धति अपनाकर लोगों की दिल की बीमारियों का इलाज करते ही चले गए. अशोक ने अब तक 50 हजार से ज्यादा एंजियोग्राफी प्रोसीजर किये हैं. वे 25 हज़ार से ज्यादा एंजियोप्लास्टी कर चुके हैं जोकि अपने आप में एक रिकॉर्ड है. दिल के किसी भी डॉक्टर ने आजतक अपने जीवन-काम में इतने ज्यादा एंजियोग्राफी और एंजियोप्लास्टी प्रोसीजर नहीं किये हैं जितने अशोक सेठ ने किये हैं. लेकिन, अशोक इन नंबरों को कोई तवज्जो नहीं देते. वे कहते हैं, “मैंने कभी नंबरों के लिए लोगों का इलाज नहीं किया. मेरे पास इलाज के लिए लोग आते गए और मैं इलाज करता गया.”
महत्वपूर्ण बात ये भी है कि विज्ञान और चिकित्सा-शास्त्र के बहुत बड़े और नामचीन विद्वान होने के बावजूद अशोक की ईश्वर के प्रति अटूट आस्था है. वे कहते हैं, “भगवान का आशीर्वाद मेरे साथ हमेशा रहा है. मैं तो ये मानता हूँ कि भगवान ही मेरे हाथों के ज़रिये लोगों का इलाज करवाता है. मेरे अंदर एक विश्वास है कि मैं मरीज का इलाज कर सकता हूँ, लेकिन इस विश्वास के पीछे भगवान ही है. कई बार ऐसा होता है जब मुझे लगता है कि मामला बहुत ही खराब है मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि, हे ईश्वर आप ही इस मरीज को बचाना. हर दिन सुबह घर से निकालने से पहले मैं ईश्वर से यही प्रार्थना करता हूँ कि... हे ईश्वर जिस किसी मरीज का इलाज मैं आज मैं करूँ, आप ही उसे बचाना. हर रात को मैं ईश्वर को धन्यवाद भी देता हूँ कि उसने मेरे हाथों के ज़रिये लोगों का इलाज करवाया.”
एक सवाल के जवाब में अशोक सेठ ने कहा, “पिछली शताब्दी में विज्ञान ने काफी तरक्की की है. विज्ञान की चकाचौंध में आध्यात्मिकता पीछे चली गयी. विज्ञान के असर में कई सारे लोग ये मानने लगे कि अगर वे आध्यात्म की बात करेंगे तो लोग उन्हें पुराने ख्यालों वाला कहेंगे और बुद्धिजीवी नहीं मानेंगे. हकीकत तो ये है विज्ञान ने इतनी सारी तरक्की के बावजूद इंसान का सेल (कोशाणु) बनने तक में कामयाबी हासिल नहीं की है. लोग ये भूल जाते हैं ईश्वर ही सबसे शक्तिशाली है और वो ही ये दुनिया चला रहा है. मैं तो कहता हूँ कि अगर हम विज्ञान और आध्यात्म को साथ लेकर नहीं चलेंगे तो कुछ और नहीं बल्कि सत्यानाश होगा.”
गौर देने वाली बात ये भी है कि मरीज और उनके रिश्तेदार अशोक सेठ को इस वजह से भी बहुत पसंद करते हैं क्योंकि वे मृदु-भाषी हैं और किसी भी सूरातोहाल अपना संयम नहीं खोते. अशोक ये बात जोर देकर कहते हैं कि हर डॉक्टर का मकसद लोगों की सेवा करना होना चाहिए न कि धन-दौलत कमाना. हर डॉक्टर को चाहिए कि वो खुद को मरीज की हालत में लाकर देखे कि मरीज की तकलीफ क्या है? उनकी मजबूरी क्या? वो किस विश्वास के साथ डॉक्टर के पास आया है? अगर डॉक्टर मरीज की स्थिति को अच्छे से जान जाएँ तब वे मरीज के इलाज पर सही तरीके से पूरा ध्यान दे सकते हैं. कई सारे लोग ऐसे भी हैं जो अशोक को भगवान मानते हैं. कई लोगों का कहना है कि अगर वे इलाज करवाने अशोक के पास नहीं आये होते तो उनकी मौत हो गयी होती. अशोक कहते हैं, “जब कोई मुझे भगवान कहता है तो बहुत ही अजीब लगता है. लोगों को ऐसा नहीं कहना चाहिए. मैं भी दूसरे लोगों की तरह ही एक इंसान हूँ. भगवान ने मुझे डॉक्टर बनाकर लोगों की सेवा करने का मौका दिया है.
ईश्वर के चमत्कारों में विश्वास रखने वाले अशोक ने अपनी बात मनवाने के मकसद से अपनी ही ज़िंदगी की एक घटना सुनाते हैं.
अशोक के मुताबिक, साल 2002 में अचानक उनके एक हाथ में दर्द होने लगा था. दर्द इतना ज्यादा था कि वे उससे कोई भी काम नहीं कर पा रहे थे. एंजियोग्राफी और एंजियोप्लास्टी ... सभी रुक गए थे. डॉक्टर ने मरीजों को देखना तक बंद कर दिया था. अशोक को भी ऐसे ही लगने लगा था कि अब उनका हाथ कभी ठीक नहीं हो पाएगा और वे लोगों का इलाज दुबारा कभी भी नहीं कर पायेंगे. उन्होंने भारत में बड़े-बड़े डॉक्टरों को दिखवाया. कुछ डॉक्टरों ने तो यहाँ तक कह दिया कि ये हाथ अब कभी ठीक नहीं हो सकता. कुछ डॉक्टरों से अशोक को सर्जरी करवाने की सलाह दी. सर्जेरी जटिल थी और भारत में डॉक्टर इसे करने से कतरा रहे थे. अशोक ने विदेश जाकर अपने हाथ की सर्जरी करने का मन बनाया. अशोक विदेश जाकर सर्जरी करवाने की तैयारी कर ही रहे थे कि उनके शुभ-चिंतकों ने उन्हें एक बार अपने आध्यात्मिक गुरु से मिलने की सलाह दी. ये सलाह मानकर अशोक अपने आध्यात्मिक गुरु से मिलने गए. गुरु को अशोक ने अपनी परेशानी बताई. अशोक का कहना है कि गुरु ने उनके हाथ पर अपना हाथ फेरा और कहा सब कुछ ठीक हो जाएगा. इसके बाद अशोक दिल्ली लौट आये और फिर वही हुआ जोकि गुरु ने कहा था. अशोक का हाथ पूरी तरह से ठीक हो गया. करीब डेढ़ महीने तक अपने हाथ से कुछ न कर पाने के बाद अशोक ने दुबारा से मरीजों का इलाज करना शुरू किया.
अशोक ने फोर्टिस एस्कॉर्ट हार्ट इंस्टिट्यूट में हुई एक बेहद ख़ास मुलाकत में ऐसी ही एक और घटना सुनाई. अशोक ने बताया कि उनकी माँ की तबीयत अचानक काफी बिगड़ गयी थे. उन्हें अस्पताल में भर्ती करवाया गया था. माँ के इलाज में खुद अशोक ने जीजान लगा दिया था, लेकिन हालत में कोई सुधार नहीं हुआ. इसके बाद अशोक ने ईश्वर से प्रार्थना की और अशोक के मुताबिक, ईश्वर ने उनकी प्रार्थना सुन ली थी और उनकी माँ की हालत सुधरी.
अशोक का कहना है, “विज्ञान अधूरा है और विज्ञान की महानता भी अस्थाई है. ईश्वर शास्वत है.” डॉ. अशोक सेठ के आध्यात्मिक गुरु पुट्टपर्ती के सत्य साईं बाबा हैं. अशोक ने बताया कि शुरू में तो उन्होंने सत्य साईं बाबा में विश्वास ही नहीं किया था. उनकी पत्नी और ससुरालवाले सत्य साईं बाबा को बहुत मानते थे. लेकिन, जब सत्य साईं बाबा के ‘चमत्कारों’ का असर उनपर भी होने लगा तब उन्होंने बाबा को अपना आध्यात्मिक गुरु बना लिया.
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माता-पिता की सेवा के लिए स्वदेश लौटे डॉ. सेठ ने मातृभूमि को समर्पित कर दिया जीवन
इंग्लैंड में दिल की बीमारियों के इलाज की अत्याधुनिक चिकित्सा-पद्धतियाँ सीखने के बाद डॉ. अशोक सेठ वहीं बस जाना चाहते थे. एक मायने में डॉ. अशोक सेठ ने अपना परिवार वहीं बसा भी लिया. वे पत्नी और बच्चों से साथ इंग्लैंड में ही रहने लगे थे. लेकिन, इसी बीच उनकी माता की तबीयत खराब होने लगी. जब तबीयत ज्यादा बिगड़ गयी तब पिता ने फ़ोन कर डॉ. अशोक सेठ से भारत आ जाने को कहा. डॉ. अशोक सेठ अपने माता-पिता के अकेले लड़के थे. वैसे तो डॉ. अशोक सेठ ने इंग्लैंड में ही बस जाने का मन बना लिया था लेकिन उन्होंने अपने बूढ़े माता-पिता की सेवा के लिए भारत लौटने का बड़ा फैसला लिया. वे नहीं चाहते थे कि जीवन के अंतिम पड़ाव में वे अपने माता-पिता से दूर रहें. वे जानते थे कि जीवन के इस पड़ाव में माता-पिता को उनकी सबसे ज्यादा ज़रुरत है. महत्वपूर्ण समय में माता-पिता की सेवा न कर पाने का दर्द जीवन-भर साथ न रह जाए, इस भय को हमेशा के लिए दूर करने के मकसद से डॉ. अशोक सेठ ने विदेश छोड़कर स्वदेश लौटने की ठान ली. जिस समय डॉ. अशोक सेठ ने भारत लौटने का फैसला लिया था उस समय उनका करियर और उनकी लोकप्रियता चढ़ाव पर थी. उनकी ख्याति और आमदनी भी दिन दुगुनी रात चौगुनी बढ़ रही थी. भारत में उनका भविष्य कैसा होगा- इस बात को लेकर भी असमंजस की स्थिति थी. लेकिन, डॉ. अशोक सेठ ने सब कुछ छोड़-छाड़ के माता-पिता की सेवा में जुट जाने का मन बनाया.
जिन दिनों डॉ. अशोक सेठ अपने माता-पिता की सेवा करने के मकसद से भारत लौटे थे उन दिनों नरेश त्रेहान नईदिल्ली में दिल की बीमारियों का इलाज करने के लिए एक बड़ा अस्पताल खोलने की तैयारी में थे. नरेश त्रेहन ने लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज से डॉक्टरी की पढ़ाई करने के बाद अमेरिका चले गए थे. नरेश त्रेहन ने अमेरिका में दिल की बीमारियों के इलाज की श्रेष्ठ तकनीकें सीखीं थी और उन्हें वे भारत लाना चाहते थे. डॉ. अशोक सेठ ने बताया कि उनकी मुलाक़ात नरेश त्रेहान से लन्दन के एअरपोर्ट पर हुई थी और इसी मुलाक़ात से दौरान उन्होंने एस्कॉर्ट्स हार्ट सेंटर की योजना-परियोजना के बारे में जाना था. चूँकि डॉ. अशोक सेठ ने भारत लौटने का फैसला कर लिया था उन्हें लगा कि नरेश त्रेहान के साथ जुड़कर वे भारत में दिल की बीमारियों के इलाज को सुरक्षित और कारगर बना सकते हैं. इसके बाद डॉ. अशोक सेठ भारत आये और एस्कॉर्ट्स हार्ट इंस्टिट्यूट एंड रिसर्च सेंटर से जुड़ गए. पिछले 29 सालों से इसी चिकित्सा-संस्थान से जुड़े हैं. कुछ सालों पहले एक करार के तहत फोर्टिस हेल्थ-केयर लिमिटेड के हाथों एस्कॉर्ट्स हार्ट इंस्टिट्यूट एंड रिसर्च सेंटर का प्रबंधन चला गया.
मौजूदा समय में डॉ. अशोक सेठ फोर्टिस एस्कॉर्ट्स हार्ट इंस्टिट्यूट के चेयरमैन और चीफ कार्डियोलॉजिस्ट है. वे फोर्टिस अस्पताल समूह के कार्डियोलॉजी कौंसिल के भी चेयरमैन हैं. वैसे तो भारत में करीब तीन दशकों की अपनी डॉक्टरी-सेवा में डॉ. अशोक सेठ ने हज़ारों मरीजों का इलाज किया है और 25 हज़ार से ज्यादा लोगों की एंजियोप्लास्टी की है लेकिन उनके लिए सबसे कठिन मामला उनके पिताजी का था. डॉ. अशोक सेठ के पिता को दिल की बीमारी के लक्षण दिखाई देने लगे थे. डॉ. अशोक सेठ ने खुद एंजियोग्राफी करने का फैसला किया. पिता को एस्कॉर्ट्स अस्पताल लाया गया. उस समय पिता की उम्र 85 साल की थी. लेकिन, उनके चहरे पर ज़रा सी भी शिकन नहीं थी. वे खुश थे और उत्साहित भी. डॉ. अशोक सेठ ने जब अपने पिता की एंजियोग्राफी की तब वे उनके दिल की हालत देखकर हैरान-परेशान हो गए. उनके दिल की ब्लॉकेज बहुत ही खराब थी. एक नहीं बल्कि दो जगह ब्लॉकेज थी. ब्लॉकेज तो न हटाये जाने की स्थिति में दिल का ज़बरदस्त दौरा पड़ सकता था. डॉ. अशोक सेठ को समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाय. एक तरफ तो उनका मन ये कह रहा था कि खतरा दूर करने के लिए फ़ौरन एंजियोप्लास्टी की जाय वहीं दूसरी तरफ ये भी ख्याल था कि नहीं अभी नहीं, बाद में एंजियोप्लास्टी की जाय. दुविधा बड़ी थी. पिता की हालत कितनी नाजुक थी ये बात डॉ. अशोक सेठ के सिवाय कोई और नहीं जानता था. संकट की इस घटी में फैसला उन्हें ही लेना था. ऑपरेशन थिएटर के बाहर माँ और बहनें भी खडी फैसले का इंतज़ार कर रही थीं. डॉ. अशोक सेठ ने पिता को बताया कि एंजियोप्लास्टी ज़रूरी है. पिता ने फ़ौरन एंजियोप्लास्टी करने की इज़ाज़त दे दी. डॉ. अशोक सेठ ने इससे पहले कई बार कई मरीजों पर एंजियोप्लास्टी की थी. लेकिन, इस बार उनके दिल की धडकनें पिछली हर दफा से ज्यादा तेज़, बल्कि बहुत ज्यादा तेज़ धड़क रही थीं. वजह भी साफ़ थी. सामने मरीज कोई और नहीं बल्कि उनके पिता थे. पिता खुद डॉक्टर तो थी ही लेकिन डॉ. अशोक सेठ के लिए वे पिता के साथ-साथ गुरु और देवता भी थे. डॉ. अशोक सेठ ने किसी तरह से अपने मनोभावों को नियंत्रित किया. ये भुलाया कि मरीज उनके पिता है. संकट की स्थिति में वे गंभीर हुए और अपना सारा ध्यान प्रोसीजर पर लगाया. पूरी एकाग्रता और लगन के साथ उन्होंने एंजियोप्लास्टी शुरू की और सफलतापूर्वक दो स्टंट धमनियों में लगाये और ब्लॉकेज को दूर किया. एंजियोप्लास्टी प्रोसीजर कामयाब रहा. कामयाबी मिलती ही डॉ. अशोक सेठ की एकाग्रता भंग हुई और जैसे ही एकाग्रता भंग हुई उनके पिता को ब्लीडिंग होने लगे. रक्त के प्रवाह को देखकर डॉ. अशोक सेठ भी काफी घबरा गए, लेकिन फिर खुद को दृढ़ दिया और ब्लीडिंग को रोका. ये एक ऐसा प्रोसीजर था जिसे डॉ. अशोक सेठ चाह कर भी कभी नहीं भूल सकते. जिस व्यक्ति के जीवन और मूल्यों से प्रेरणा लेकर वे डॉक्टर बने थे उन्हीं का ऑपरेशन करना डॉ. अशोक सेठ के लिए जीवन की सबसे बड़ी परीक्षा थी, जिसमें वे पास हो गए. डॉ. अशोक सेठ ने बताया कि उनके पिता की उम्र अब 93 साल है और आराम से जी रहे हैं. दिल भी उनका अच्छे से धड़क रहा है.
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स्वदेश आये और हर दिल पर छाये
डॉ. अशोक सेठ का भारत आना सिर्फ उनके लिए ही फायदेमंद नहीं रहा, पूरे देश को उनकी स्वदेश वापसी से लाभ मिला. भारत में उन्होंने दिल की बीमारियों के इलाज के लिए अंतर-राष्ट्रीय स्तर के चिकित्सा संस्थान – एस्कॉर्ट्स हार्ट इंस्टिट्यूट शुरू करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. आगे चलकर डॉ. अशोक सेठ ने एक और विश्व-स्तरीय चिकित्सा संस्था – मैक्स हार्ट एंड वैस्कुलर इंस्टिट्यूट खोलने में भी अपना अमूल्य योगदान दिया. दिल की बीमारियों के इलाज के लिए अत्याधुनिक, सबसे सुरक्षित और असरदार चिकित्सा तकनीकों को भारत में लाने का श्रेय भी डॉ. अशोक सेठ को ही जाता है. इंसानी दिल, उसके जुड़ी बीमारियों और इन बीमारियों के इलाज पर डॉ. अशोक सेठ ने काफी शोध और अनुसंधान किया है. उनके शोध-पत्रों को दुनिया की बड़ी-बड़ी पत्रिकाएँ प्रकाशित कर चुकी हैं. डॉ. अशोक सेठ ने भारत ही नहीं बल्कि दुनिया-भर में इंसानी दिल की सही देख-रेख के लिए दिशा-निर्देश बनाने में भी महती भूमिका अदा की है. दिल की बीमारियों के इलाज के मानक तय करने में भी उनका योगदान काफी सराहा गया. डॉ. अशोक सेठ ने भारत में कई सारे डॉक्टरों को दिल की बीमारियों के सही इलाज के तौर-तरीके सिखाये और समझाए हैं. एंजियोग्राफी और एंजियोप्लास्टी की उत्कृष्ट तकनीकें भी उन्होंने कई डॉक्टरों को सिखाई हैं. सही मायने में वे भारत में दिल के डॉक्टरों के एक ऐसे ‘गुरु’ हैं, जिन्होंने एक पूरी पीढ़ी के दिल के डॉक्टरों को अपने अनुभव और अध्ययन से बहुत कुछ सिखाया है. उनका व्यक्तित्व इतना ओजस्वी और प्रभावी है कि उनसे प्रेरणा लेकर कई लोग दिल का डॉक्टर बने हैं.
डॉ. अशोक सेठ की सबसे बड़ी कामयाबी ये है कि उन्होंने कई ऐसी चिकित्सा-तकनीकें इजाद की हैं जिनका अनुसरण अमेरिका और यूरोप के विकसित देशों में दिल के मरीजों के इलाज में किया जाने लगा. डॉ. अशोक सेठ कहते हैं, “मुझे इस बात की बेहत खुशी है कि मैंने इस धारणा को तोड़ा कि भारत जैसे डेवेलोपिंग नेशन अपने से कुछ नया नहीं कर सकते और तकनीक के लिए इंग्लैंड, यूएस जैसे देशों पर ही निर्भर रहते हैं. मैंने उस ट्रेंड को रिवर्स किया जहाँ हम विदेशी डॉक्टरों से सीखा करते थे, अब भारतीय डॉक्टर विदेशी डॉक्टरों को सिखा रहे हैं.”डॉ. अशोक सेठ ने दिल की बीमारियों के इलाज में भारत को एक अलग और विशिष्ट पहचान दिलाई है. अपनी कामयाबियों से विदेशों में भारतीय डॉक्टरों और वैज्ञानिकों का सम्मान बढ़ाया है. डॉ. अशोक सेठ भारत ही नहीं बल्कि दुनिया में चिकित्सा-क्षेत्र की कई सारी संस्थाओं से जुड़े हुए हैं. दुनिया-भर में उन्हें दिल की बीमारियों का बड़ा जानकार माना जाता है. इंसानी दिल से जुड़े जटिल मामलों को सुलझाने के लिए डॉ. अशोक सेठ से सलाह माँगी जाती है.
चिकित्सा-क्षेत्र में अमूल्य और अतुल्य योगदान के लिए डॉ. अशोक सेठ को कई राष्ट्रीय और अंतर-राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है. भारत सरकार ने उन्हें साल 2003 में ‘पद्मश्री’ और फिर साल 2015 में ‘पद्मभूषण’ उपाधि से अलंकृत कर चुकी है. भारत में चिकित्सा-क्षेत्र में योगदान के लिए दिए जाने वाले सबसे बड़े अवार्ड – यानी डॉ. बी. सी. रॉय अवार्ड से भी डॉ. अशोक सेठ को सुशोबित किया गया है. स्पेन सरकार ने उन्हें ‘क्रॉस इन्सिग्निया ऑफिसर आर्डर ऑफ़ इसाबेला द कैथोलिक’ से नवाज़ा. बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय, एमिटी विश्वविद्यालय, तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी उन्हें ‘ डॉक्टर ऑफ़ साइंस’ की मानद उपाधि से पुरस्कृत कर चुके हैं. वे देश-विदेश के कई सारे विश्वविद्यालयों और चिकित्सा-संस्थाओं के परामर्शदाता और अतिथि प्रोफेसर भी हैं. उनको अलग-अलग संस्थाओं से मिले सम्मानों, अवार्डों की सूची बहुत ही लम्बी है. पूरे भारत में चिकित्सा-क्षेत्र में डॉ. अशोक सेठ सेठ का नाम सम्मान और गौरव के साथ लिया जाता है.
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लोगों के दिल को मज़बूत बनाने वाले दिल के इस बड़े डॉक्टर का दिल ‘कमज़ोर’ है
डॉ. अशोक सेठ सेठ से जब ये पूछा गया कि उन्हें इंसानी दिल की सबसे बड़ी खूबी क्या लगती है, तब उन्होंने कहा, “दिल ही इंसान की ख़ूबसूरती को निखारता है. दिल ही इंसानी जिस्म को ख़ूबसूरती देता है. शरीर-भर में खून संचारित रहता है तो ये दिल की वजह से ही है.”
दिल से जुड़ी एक बात ऐसी भी है जो दिल के इस बड़े डॉक्टर को भी काफी हैरान करती है. डॉ. अशोक सेठ भी ये नहीं समझ पाए हैं कि आखिर इंसान का दिल खराब क्यों हो जाता है. कुछ चीज़ें हैं जोकि इंसान के दिल पर बुरा असर करती हैं, जैसे तम्बाकू, शराब, खराब खान-पान, अनियमित और अनिश्चित जीवन-शैली, तनाव. लेकिन कई लोगों में ये देखा गया है कि वे इन सब बुराइयों से दूर हैं फिर भी उनका दिल खराब हो गया है. जब डॉ. अशोक सेठ से उनके खुद के दिल की खूबियों के बारे में पूछा गया तब वे बहुत ही भावुक हो गए. उन्होंने कहा, “मेरा दिल कमज़ोर है, बहुत ही नाजुक है. मैं इंसान के दुःख और उसके दर्द को अच्छी तरह से समझता हूँ. मेरे दिल में दूसरे लोगों के प्रति हमदर्दी है. मेरा दिल कठोर नहीं है, बल्कि कमज़ोर है. कमज़ोर इस लिए क्योंकि इसे दूसरों के दर्द से भी दर्द होता है. डॉ. अशोक सेठ अगर किसी के दिल से सबसे ज्यादा प्रभावित है तो वो है उनके माँ का दिल. डॉ. अशोक सेठ के मुताबिक, “माँ ने मेरे लिए बहुत कुछ त्याग किया है. वे मेरी ख्वाइशों को पूरा करने के लिए घर-परिवार के खर्चों में से बचत करती थीं. वे मुझसे बहुत प्यार करती थीं. उनका सपना था कि मैं सबसे बड़ा डॉक्टर बनूँ. दुनिया-भर में मेरा नाम रोशन हो. ये माँ का आशीर्वाद ही है मैं कुछ बन पाया. माँ ने भगवान से भी हमेशा मेरे लिए ही माँगा है. माँ के दिल से बड़ा कोई दिल नहीं है.”
डॉ. अशोक सेठ को इस बात का दुःख है वे उतना ज्यादा समय अपनी माँ के साथ नहीं बिता पाए जितना कि बिताना चाहते थे. वे ये कहने से ज़रा भी नहीं हिचकिचाए कि, “मैं करियर बनाने में लगा रहा और माँ के साथ ज्यादा समय नहीं बिता पाया.” हकीकत तो ये है कि आज भी डॉ. अशोक सेठ अपने परिवार को ज्यादा समय नहीं दे पाते हैं. सुबह से लेकर रात तक उनका समय अस्पताल में ही दिल के मरीजों का इलाज करते हुई बीतता है.
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नयी-नयी जगह जाना, स्कूबा डाइविंग करना और मस्ती में गाना – यहीं हैं डॉ. सेठ के शौक
दिल के मरीजों का इलाज करने के अलावा डॉ. अशोक सेठ सेठ को तीन काम बेहद पसंद हैं, उन्हें अपने परिवारवालों के साथ नयी-नयी जगह जाना और प्रकृति का आनद लेना पसंद है. डॉ. अशोक सेठ को स्कूबा डाइविंग का भी शौक है. समुंदर में पानी के अंदर जाकर वहां की अलौकिक सुंदरता का आनंद लेने से उनके दिल को सुकून मिलता है. गीत-संगीत डॉ. अशोक सेठ के दिल पर राज करते हैं. फ़िल्मी गाने सुनना उनका बहुत पुराना और कभी न मिटने वाला शौक है. एक बार तो गीत-संगीत का जादू उनके सर पर इस कदर सवार हुआ कि उन्होंने गाने की ट्रेनिंग भी ली. इतना ही नहीं एक कार्यक्रम आयोजित किया और वजह शानदार अंदाज़ में गाने गाकर सभी को मंत्र-मुग्ध कर लिया. अपने ज़माने के सुपरस्टार देवानंद की फिल्म ‘हम दोनों’ का गीत ... ‘अभी न जाओ छोड़कर कि दिल अभी भरा नहीं” उनका सबसे पसंदीदा गीत है.
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मूलतः पंजाबी, पैदाइश बिहार की, स्कूली शिक्षा बंगाल में, डॉक्टरी पढ़ाई उत्तरप्रदेश में और प्रैक्टिस दिल्ली में ... यानी तन-मन से पूरे हिन्दुस्तानी
डॉ. अशोक सेठ का जन्म 25 अक्टूबर, 1956 को बिहार के भागलपुर जिले के साबौर में हुआ. उनके पिता मूलतः अविभाजित भारत के लाहौर शहर के रहने वाले पंजाबी थे. वे लाहौर मेडिकल कॉलेज में पढ़ाई कर रहे तब भारत का विभाजन हुआ. आज़ादी के बाद वे पाकिस्तान छोड़कर भारत आ गए थे. चूँकि उन दिनों पाकिस्तान में डॉक्टरी की पढ़ाई कर रहे जितने विद्यार्थी विभाजन के बाद भारत आये थे उन सभी का दाखिला किसी न किसी भारतीय मेडिकल कॉलेज में किया गया था. डॉ. अशोक सेठ के पिता को भागलपुर मेडिकल कॉलेज में एडमिशन दी गयी. एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी होने के बाद डॉ. अशोक सेठ के पिता को बिहार में ही डॉक्टर की सरकारी नौकरी मिल गयी थी. डॉ. अशोक सेठ की प्रारंभिक स्कूली शिक्षा मुज्ज़फ्फरपुर के प्रभात तारा स्कूल में हुई. इसके बाद उनका दाखिला दुर्गापुर के सैंट ज़ेवियर स्कूल और स्टील प्लांट हायर सेकेंडरी स्कूल में हुआ. इसके बाद जब उन्होंने प्री-मेडिकल टेस्ट क्लियर कर लिया तब उन्हें एमबीबीएस कोर्स के लिए अलीगढ़ के जवाहरलाल नेहरु मेडिकल कॉलेज में दाखिला मिला. भारत से एमबीबीएस की डिग्री लेने के बाद डॉ. अशोक सेठ उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड चले गए और वहां बर्मिंघम यूनिवर्सिटी से इंटरनल मेडिसिन और कार्डियोलॉजी में सुपर स्पेशलिटी की डिग्रीयां लीं. कुछ साल वहां प्रैक्टिस करने के बाद डॉ. अशोक सेठ भारत आ गए और साल 1988 से लगातार देश की राजधानी में दिल के मरीजों का इलाज कर रहे हैं. यही वजह है कि डॉ. अशोक सेठ बड़े फक्र के साथ कहते हैं, “मैं पक्का हिन्दुस्तानी हूँ.” डॉ. अशोक सेठ अपने माता-पिता के एकलौते लड़के हैं. उनकी दो बहनें हैं, एक बड़ी और एक छोटी.