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डरे, सहमे मासूम चेहरों को मिलने वाली हिम्मत का नाम हैं रेखा मिश्रा

सुरक्षा और संवेदनशीलता एक दूसरे के पूरक हैं और इसीलिए नागरिक सुरक्षा के लिये जिम्मेदार पुलिस से संवेदना की अधिक अपेक्षा की जाती है। दरअसल संवेदना वो स्थिति है, जो मनुष्य के भीतर पिड़िया की वेदना के समतुल्य वेदना के अहसास को भर दे और यदि संवेदना प्रेरित सुरक्षाबोध में ममत्व का भाव भी मिश्रित हो जाये, तो सृजन होता है सब-इंस्पेक्टर रेखा मिश्रा जैसे किरदार का। ऐसे दौर में जब पुलिस की कार्यप्रणाली और उसकी संवेदनशीलता पर हर तरफ सवाल उठ रहे हों, मुंबई के छत्रपति शिवाजी टर्मिनस (सीएसटी) पर तैनात 32 वर्षीय रेखा मिश्रा उम्मीद की एक नई किरण उत्पन्न करती हैं।

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सेंट्रल रेलवे के मुंबई डिविजन में रेलवे पुलिस ने 2016 में 1150 बच्चों को बचाया था, जिसमें रेखा मिश्रा ने 434 बच्चों को बचाने में मदद की और 2017 के शुरुआती तीन महीनों में 100 से ज्यादा बच्चों को बचा चुकी हैं।

मुंबई के छत्रपति शिवाजी टर्मिनस पर लाखों लोगों का आना-जाना रोजाना होता है और उन लाखों यात्रियों की भीड़ में कुछ डरे-सहमे, सकुचाये किशोर और बाल चेहरे ऐसे भी होते हैं, जो लाखों की भीड़ में भी अकेले दिखाई पड़ते हैं। उन्हे खुद अंदाजा नहीं होता, कि अगला लम्हा उनकी क्या शिनाख्त तय करने वाला है? वे स्टेशन और सिग्नल पर भीख मांगेंगे या देह व्यापार के दलदल में फंस कर अपनी जिंदगी के क्रूरतम दौर से रूबरू होंगे? ऐसे डरे, सहमे चेहरों के लिए हौसले का नाम है रेखा मिश्रा

विदित हो, कि रेखा मिश्रा ने मानव तस्करों के चुंगल में फंसे या घर से भागे हुए 434 बच्चों को रेस्क्यू किया है। सेंट्रल रेलवे के मुंबई डिविजन में रेलवे पुलिस ने 2016 में 1150 बच्चों को बचाया था, जिसमें रेखा ने अकेले 434 बच्चों को बचाने में मदद की। इतना ही नहीं वे 2017 के शुरुआती तीन महीनों में 100 से ज्यादा बच्चों को बचा चुकी हैं। वे कहती हैं, कि 'सीएसटी से बचाए गए बच्चों में या तो वे किसी वजह से परिवार से बिछुड़ गए थे या वे किसी मानव तस्कर गैंग के शिकार थे।'

रेखा मिश्रा उत्तर प्रदेश इलाहाबाद शहर की रहने वाली हैं। उनकी शिक्षा-दीक्षा भी वहीं से हुई है। उनके माता-पिता बचपन से ही बच्चों से लगाव रखने की सीख देते रहे, शायद यही वजह है कि वे पुलिस की नौकरी में भी बच्चों को बचाने की भरसक कोशिश करती हैं।

रेखा बताती हैं, कि वैसे तो उन्होंने पिछले एक साल में 400 से अधिक बच्चों को बचाया है लेकिन चेन्नई की तीन लड़कियों की कहानी ने उनके दिल पर गहरा प्रभाव छोड़ा। उन तीन लड़कियों की उम्र 14 साल थी और वे तीनों किसी तरह देह व्यापार करने वालों के चंगुल से छूटकर भागी थीं। जिस दौरान उनकी लड़कियों पर नजर पड़ी लड़कियां बेहद घबराई हुई थीं, लेकिन जब उन्हें उनकी मां से मिलाया गया तो उनके चेहरे की खुशी देखते ही बनती थी और ये रेखा मिश्रा के जीवन का सबसे यादगार लम्हा था।

आरपीएफ के एक वरिष्ठ अफसर ने पहचान जाहिर न किये जाने की शर्त पर बताया है, कि 'मिश्रा जिन बच्चों को बचाती हैं उन्हें कोई नुकसान न पहुंचे ये सुनिश्चित करने के लिए किसी भी हद तक जा सकती हैं।' अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए अधिकारी कहते हैं, 'दरअसल ये एक थैंकलेस जॉब है। आप जिनके साथ डील कर रहे होते हैं वे कोई अपराधी नहीं होते। अक्सर वे पीड़ित होते हैं और आप उन्हें स्टेशन पर छोड़कर शाम को अपने घर नहीं जा सकते। आपको उनके लिए वहां रहना पड़ेगा और रेखा यही करती हैं।'

मौंजू सवाल ये है कि भारत का शायद ही ऐसा कोई रेलवे स्टेशन होगा, जहां भटकते हुए या भीख मांगते हुए बच्चे नजर न आयें लेकिन कितने पुलिस कर्मी या सामाजिक कार्यकर्ता हैं, जो इन्हें बचाने के प्रयास करते हैं? शायद इसीलिये रेखा सबसे जुदा, सबसे आला हैं। हालांकि ये रेखा की ड्यूटी का हिस्सा है लेकिन इतनी संवेदनशीलता के साथ परेशान बच्चों को देखकर ही उनकी तकलीफ समझ लेने का काम तो कोई महिला ही कर सकती है। बावजूद इसके हमारे देश में महिला पुलिस कर्मियों की संख्या बेहद कम होना सरकार की कार्य प्रणाली पर सवाल खड़े करता है।