बॉलीवुड की स्टार इकॉनमी: परिवारवाद और फ़ैमिली बिज़नेस
बॉलीवुड का इकोसिस्टम न सिर्फ़ स्टार पॉवर पर डिपेंड करता है बल्कि स्टार बनाने पर काम करता है. फ़िल्मी परिवारों द्वारा चलायी जाने वाली कंपनियां स्टार किड्स को स्टार बनाने के उद्देश्य से काम करती हैं ताकि फ़ैमिली बिज़नेस को एक स्थायी, लॉंग टर्म रेवेन्यू सोर्स मिल जाए. यह ‘नेपोटिज्म’ का अर्थशास्त्र है.
हिंदी सिनेमा, जिसे पिछले तीसेक साल में अमेरिकी फ़िल्म इंडस्ट्री हॉलीवुड की तर्ज़ पर, दुनिया भर में ‘बॉलीवुड’ की तरह जाना जाने लगा है, भारतीय – ख़ासकर उत्तर भारत के हिंदी इलाक़े – के सामाजिक और राजनीतिक जीवन को प्रभावित और प्रतिबिम्बित करने वाला कला माध्यम और उद्योग रहा है. हिंदी फ़िल्में और उसके स्टार लोगों के दिल, दिमाग़, ड्राइंगरूम, बेडरूम और ऑफ़िस में चलने वाली चर्चाओं और छवियों का हिस्सा शुरू से रहे हैं. उनका ग्लैमर, उनकी ‘लार्जर-देन-लाइफ़’ कट-आउट छवियाँ, उनके बंगलों के बाहर ‘दर्शन’ के लिए लगने वाली क़तारें, उनका राजनीति में घुसना और अक्सर चुनाव जीतना, उनके ‘अफ़ेयर’ और तलाक़, उनकी ‘हाई फ़ाई’ जीवन शैली, उनकी ‘सनकें’, उनकी सेक्स लाइफ़, उनका बेहिसाब पैसा, उनकी हिट और फ़्लॉप फ़िल्मों की दास्तानें – सब कुछ लोगों की नज़रों, बातों और अवचेतन में रहता है.
पिछले कुछ सालों में बॉलीवुड में ‘नेपोटिज्म’ को लेकर एक बहस बड़े पैमाने पर शुरू हुई है जिसके केंद्र में बॉलीवुड के वे सितारे हैं जिनका परिवार फ़िल्मों में रहा है. बहस प्रिविलेज, मेरिट और अवसरों की समानता की है. अपने प्रिविलेज के कारण स्टार फ़ैमिली के बच्चों को अवसर प्राप्त करने के लिए कोई संघर्ष नहीं करना पड़ता, उनमें प्रतिभा हो या ना हो उन्हें अवसर मिलना तय रहता है.
इसके मुक़ाबले बाहर से आने वालों को, जिनका इंडस्ट्री में कोई सगा नहीं होता, उन्हीं अवसरों के लिए बेइंतहा संघर्ष करना पड़ता है. इस तरह यह बहस ‘इनसाइडर’ और ‘आउटसाइडर’ की भी बन जाती है. अवसरों के अलावा प्रिविलेज का असर इंडस्ट्री में मिलने वाले अवार्डस और मान्यता के अन्य रूपों तक भी देखा जा सकता है.
एक तरह से देखा जाय तो इस बहस और इसे मिलने वाला आवेगमय जन समर्थन यह दर्शाता है कि एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक बॉलीवुड को एक ऐसी लोकतांत्रिक जगह की तरह देखना चाहते हैं जिसमें सबके लिए बराबर अवसर हों, जिसमें प्रिविलेज प्रतिभा को रोक न पाए. इस अर्थ में यह बहस भारतीय राजनीति में परिवारवाद के प्रति व्यक्त होने वाले आक्रोश का एक रूप है. और इस ‘परिवारवाद’ का एक अर्थशास्त्र है. स्टार फ़ैमिली अक्सर एक ‘फ़ैमिली बिज़नेस’ भी होती है.
भारत में परिवार और बिज़नेस
जिस साल अंग्रेजों के ख़िलाफ़ भारत की आज़ादी की पहली लड़ाई लड़ी गयी थी, उसी 1857 में राजस्थान के एक बेहद छोटे-से क़स्बे पिलानी में सेठ शिव नारायण बिड़ला ने कपड़े का व्यापार शुरू किया. उसके ग्यारह साल बाद मुंबई में, 1868 में, जमशेदजी नाम के 29 साल के एक युवा ने इक्कीस हजार रुपए से एक ट्रेडिंग कंपनी की शुरुआत की.
सेठ शिव नारायण और जमशेदजी द्वारा शुरू किए गये बिज़नेस भारत में बिज़नेस और सम्पत्ति का दूसरा नाम बन गये, उनके सरनेम “टाटा बिड़ला’ बोलचाल का मुहावरा और ‘अथाह सम्पत्ति’ का प्रतीक बन गये.
1857 को ग़दर के लिए याद किया जाता है लेकिन यह ईस्ट इंडिया कंपनी के अंत की शुरुआत और भारत की बड़ी देसी कंपनियों के बनने का साल भी था. ग़दर के बाद के पहले दशक से निकले ‘टाटा-बिडला’ भारत देश की आज़ादी के आंदोलन, उसकी अर्थव्यवस्था, उसके अपने देसी पूंजीवाद, औद्योगिक विकास, मध्यवर्ग की आकांक्षाओं और सामाजिक ज़िम्मेवारी के उसके विचार – इन सबका अंग बन गये.
यह दोनों ‘फ़ैमिली बिज़नेस’ हैं. पिछले डेढ़ सौ साल से इनकी ओनरशिप फ़ैमिली के भीतर रही है. अध्ययन बताते हैं कि ‘फ़ैमिली बिज़नेस’ भारत की जीडीपी में 70 से 80% योगदान करते हैं. भारत में लिस्टेड फ़र्म्स में 91% की ओनरशिप फ़ैमिली के पास है, और क़रीब 85% कंपनियां परिवारों द्वारा चलाई जा रही हैं.
बिज़नेस एक ऐसा फ़ील्ड है जिसमें फ़ैमिली के नियंत्रण को आम राय में परिवारवाद की तरह नहीं देखा जाता, बल्कि ऐसा होना स्वीकार्य-सा है क्यूंकि सम्पत्ति को परिवार के भीतर रखना एक सामाजिक नॉर्म है. और इसलिए आश्चर्य नहीं कि भारत ही नहीं दुनिया भर में ज़्यादातर बिज़नेस फ़ैमिली ओनरशिप वाले हैं.
‘फ़ैमिली’ बिज़नेस और स्टार इकॉनमी
1948 में अभिनेता और शोमैन राजकपूर ने आर.के. फ़िल्म्स की स्थापना की जिसने अगले पचास साल में परिवार के कई लड़कों को ब्रेक दिया. 1977 में अभिनेता राकेश रोशन ने फ़िल्मक्राफ़्ट नाम से एक कंपनी लॉंच की जो 1999 में फ़िल्मक्राफ़्ट प्राइवेट लिमिटेड बन गयी. 2000 में फ़िल्मक्राफ़्ट ने राकेश रोशन के बेटे ह्रितिक रोशन की डेब्यू फ़िल्म प्रोड्यूस की.
1976 में यश जौहर ने धर्मा प्रोडक्शन्स की शुरूआत की जो उत्तराधिकार में उनके बेटे करण जौहर को मिली. उन्होंने उस कंपनी से बतौर डायरेक्टर अपना करियर शुरू किया और उनके निर्देशन में कई सफल फ़िल्में कंपनी ने प्रोड्यूस की. धर्मा ने फ़िल्मी परिवारों से आने वाले वरुण धवन और आलिया भट्ट का करियर लॉंच किया है.
1981 में स्टार अभिनेता धर्मेंद्र ने विजेता फ़िल्म्स नाम से एक कंपनी बनाई जिसने उनके परिवार के तीन सदस्यों सनी देओल, बॉबी देओल और अभय देओल का करियर लॉंच किया.
1987 में निर्माता मुकेश भट्ट ने ‘विशेष फ़िल्म्स’ की स्थापना की जिसके लिए कई फ़िल्में उनके भाई महेश भट्ट ने निर्देशित कीं और महेश की बेटी पूजा भट्ट के करियर की डेब्यू समेत कई फ़िल्में इस बैनर से रीलीज हुईं.
बॉलीवुड के बारे में नेपोटिज्म और परिवारवाद की बहस से बिज़नेस का आयाम अक्सर ग़ायब रहा है. ‘नेपोटिज्म’ की कहानी स्टार इकॉनमी और फ़ैमिली बिज़नेस की कहानी भी है. बॉलीवुड में एक फ़िल्म की सफलता बहुत हद तक ‘स्टार’ पर निर्भर करती आयी है. अधिकांश फ़िल्में एक या अधिक स्टार के इर्द-गिर्द सोची और बनायी जाती हैं.
फ़िल्म पर पैसा लगाने के लिए किसी प्रोड्यूसर का तैयार होना इस पर निर्भर करता है कि स्टार कौन है. एक तरह से यह इंडस्ट्री और इसका इकोसिस्टम न सिर्फ़ स्टार पॉवर पर डिपेंड करता है बल्कि स्टार बनाने के लिए काम करता है क्यूंकि स्टार इस इकॉनमी में सफलता और सम्पत्ति निर्माण का सबसे महत्वपूर्ण कारक है. ऐसे में फ़िल्मी परिवारों द्वारा चलायी जाने वाली कंपनियां स्टार किड्स को स्टार बनाने के उद्देश्य से काम करती हैं ताकि फ़ैमिली बिज़नेस को एक स्थायी, लॉन्ग टर्म रेवेन्यू सोर्स मिल जाए. यह ‘नेपोटिज्म’ का अर्थशास्त्र है.
इसके बावजूद बहुत-से आउटसाइडर इस इकॉनमी में अपनी जगह बनाने में, खुद को स्टार बनाने में कामयाब रहे हैं. बॉलीवुड अगर लोगों के सपनों, फंतासियों और वेल्यू सिस्टम का एक प्रतिबिम्ब है तो उसमें ऐसा होना ही होगा और होगा ही.
(फीचर डिजाइन क्रेडिट: सोनाक्षी सिंह)
Edited by Giriraj Kiradoo