थाने में चौकीदारी करने वाले बिहार के उमेश पासवान को मिला साहित्य अकादमी पुरस्कार
पुरस्कार की रेवड़ियों से कोई अघाए, कोई शर्माए!
कोई भी अकादमी है, सरकार के संरक्षण में है यानी उसका खर्चा-बर्चा, पद-प्रतिष्ठा सब सरकार की मर्जी पर निर्भर होती है तो निश्चित ही उसमें साहित्य की बजाय राजनीतिक दखलंदाजी, भाई-भतीजावाद, आपसी संबंधों को प्राथमिक देना स्वभाविक है। ऐसा पहले भी होता रहा है, आजकल जरा ज्यादा बेशर्मी से हो रहा है।
साहित्य अकादमी के अध्यक्ष के अनुमोदन के बाद ही यह पुरस्कार घोषित होता है। स्थापना के बाद से इसकी पुरस्कार राशि बढ़ती गई है। वर्ष 2003 के बाद से अब पुरस्कार स्वरूप 50 हजार रुपए और ताम्र पत्र दिया जाता है।
निजी साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाएं तो अब आए दिन चाहे किसी को भी सम्मानित कर देती हैं। जैसे कोई साहित्यिक पुरस्कार न हो, रेवड़ी की दुकान चलाई जा रही हो। हाल ही में साहित्य अकादमी दिल्ली की ओर से राजस्थानी युवा पुरस्कार इस बार हनुमानगढ़ के युवा साहित्यकार दीनदयाल शर्मा के बेटे दुष्यंत जोशी को उनकी पुस्तक ‘अेकर आज्या रै चांद’ को दिए जाने पर कई राजस्थानी साहित्यकारों ने गहरा दुख व्यक्त किया। पिछले दिनो साहित्य अकादमी ने इस बार 22 भाषाओं में युवा पुरस्कारों की घोषणा की। विवाद इस बात पर रहा कि साहित्य अकादमी सात साल के भीतर एक ही राजस्थानी परिवार के पिता, बेटी, बेटे को तीन पुरस्कार क्यों दे दिए?
इससे पहले 2015 में दीनदयाल शर्मा की बेटी ऋतुप्रिया को यह पुरस्कार मिला था। उससे पहले 2012 में बाल साहित्य पुरस्कार खुद दीनदयाल शर्मा को दिया गया था। यह पुरस्कार साहित्य अकादमी की तरफ से देश की 23 भाषाओं के लिए हर साल दिया जाता है। इसमें राजस्थानी भी शामिल है। साहित्य अकादमी के अध्यक्ष के अनुमोदन के बाद ही यह पुरस्कार घोषित होता है। स्थापना के बाद से इसकी पुरस्कार राशि बढ़ती गई है। वर्ष 2003 के बाद से अब पुरस्कार स्वरूप 50 हजार रुपए और ताम्र पत्र दिया जाता है। राजस्थानी के लिए यह पुरस्कार 1974 से मिल रहा है। नंद भारद्वाज कहते हैं कि पुरस्कार किस परिवार को मिला पता नहीं। मैं निर्णायक मंडल में था, लेकिन मुझे नहीं पता सोशल मीडिया पर क्या चल रहा है।
डॉ. मदन सैनी कहते हैं कि एक ही परिवार में कई साहित्यकार हो सकते हैं। पुस्तक सभी मापदंडों पर खरी उतरी है। इसलिए यह चयनित हुई है। इसमें शैली, भाव और भाषा सटीक होनी चाहिए। अश्लीलता नहीं होनी चाहिए। मानक रूप से समाज के लिए हितकर होनी चाहिए, तभी पुरस्कार मिला है। कहने से क्या होता है। एक ही परिवार में साहित्यकार हो सकते हैं। ऐसे बहुत से उदाहरण हैं। पुस्तक को पढ़ कर देखें, तब सही बात का पता चलेगा।
पुरस्कारों की राजनीति चलती रही है, चलती रहेगी। दोष सिस्टम के भीतर है। इसे रोकना किसी एक-अकेले के वश की बात नहीं। फिलहाल बात करते हैं पासवान मधुबनी (बिहार) के लौकही थाने में नौ साल से चौकीदारी कर रहे पिता खखन पासवान और मां अमेरीका देवी के कवि-पुत्र उमेश पासवान की। उनको इस बार अपने कविता संग्रह 'वर्णित रस' के लिए मैथिली का साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार मिला है।
उमेश कहते हैं - 'हम नवटोली गांव के चौकीदार हैं. गांव के माहौल में जो देखते हैं, वो लिख देते हैं. कविता मेरे लिए टॉनिक की तरह है। पुरस्कार मिला इसकी ख़ुशी है, लेकिन लिखता आत्म-संतुष्टि के लिए ही हूं। जब नौवीं क्लास में था, तब मधुबनी के कुलदीप यादव की लॉज में रहते वक़्त एक सीनियर सुभाष चंद्रा से मुलाक़ात हो गई। वह कविता लिखते थे तो हमने भी टूटी-फूटी कविता लिखनी शुरू कर दी। बाद में मधुबनी के जेटी बाबू के यहां चलने वाली स्वचालित गोष्ठी में जाकर कविता पाठ किया। कविता तो बहुत अच्छी नहीं थी, लेकिन प्रोत्साहन मिला और कविता लेखन ने ज़ोर पकड़ा। साहित्य अकादमी यहां कोई नहीं समझता। हम मधुबनी, दिल्ली, पटना सब जगह अपनी कविता सुनाते हैं, लेकिन हमारे गांव में कोई नहीं सुनता। जब किसी ने नहीं सुना तो हमने कांतिपुर एफएम और दूसरे रेडियो स्टेशनों पर कविता भेजनी शुरू की ताकि कम से कम रेडियो के श्रोता तो मेरी कविता सुनें।'
मां अमेरीका देवी कहती हैं कि वह बहुत छोटी उम्र से ही लिखने लगा था। हमने बहुत समझाया कि पढ़ाई पर ध्यान दो, कविता लिखने से क्या होगा, लेकिन वह कभी नहीं माना। कविताएं लिखता, मुझे भी सुनाता रहता है। उमेश की पत्नी प्रियंका कहती हैं कि हमें हमेशा लगता था कि ये एक दिन कोई बड़ा काम करेंगे। साहित्य के विद्वानों का कहना है कि उमेश की भाषा में एक नैसर्गिक प्रवाह है, जो आपको अपने साथ लिए चलता है। उन कविताओं में बहुत विस्तार है। कविताएं सामाजिक न्याय की बात करती हैं तो गांव के सुख-दुख से लेकर मैथिल समाज के तमाम सरोकारों को हमारे सामने रखती हैं। उमेश को अवॉर्ड मिलना दो वजहों से ख़ास है, पहला तो उनके पेशे के चलते और दूसरे, ये पुरस्कार यह धारणा तोड़ता है कि मैथिली पर सिर्फ़ दो जातियों का प्रभुत्व है। उमेश के अब तक तीन कविता संग्रह 'वर्णित रस', 'चंद्र मणि', 'उपराग' प्रकाशित हो चुके हैं। वह कहानियां भी लिखते हैं। अपने गांव में एक निःशुल्क शिक्षा केंद्र चलाते हैं।
पुरस्कारों को लेकर, जहां तक मनमुटाव, आरोप-प्रत्यारोप की बात है, ऐसा सिर्फ साहित्य में ही नहीं, कला-संगीत, खेल आदि क्षेत्रों में भी खूब हो रहा है। इस बार संगीत-नाटक अकादमी पुरस्कारों के लिए नाम सुनिश्चित करते समय भी इसी तरह की सूचनाएं मीडियां में सार्वजनिक होती रहीं। संगीत-नाटक अकादमी की सामान्य परिषद की मणिपुर की राजधानी इंफाल में बैठक हुई, जिसमें 42 नामों को मंज़ूरी दे दी गई मगर घोषणा 20 जून को की गई। रंगकर्मी सुनील शानबाग के नाम पर आरएसएस और भाजपा के नेताओं ने उंगली उठा दी। इसके बाद अकादमी छानबीन करने लगी, जिससे समय से पुरस्कारों की घोषणा नहीं हो सकी।
भाजपा-आरएसएस की इच्छा थी कि शानबाग को पुरस्कार न दिया जाए। कहना था कि शानबाग को सम्मानित करने से राष्ट्रवाद और हिंदू मान्यताओं को आघात लगेगा। शानबाग 2015 के पुरस्कार वापसी अभियान में शामिल रहे हैं। उन्होंने खुले तौर पर सांस्कृतिक संस्थानों पर सरकार की पकड़ मज़बूत किए जाने की कोशिशों का भी विरोध किया था। यह भी कहा गया कि शानबाग के माओवादी नेता कोबाद घांडी और अनुराधा से भी संबंध रहे हैं। अकादमी अध्यक्ष शेखर सेन का कहना है कि हमने इन आरोपों की जांच कराई लेकिन सभी आरोप ग़लत सिद्ध हो गए।
शानबाग को भी पुरस्कार देना मान्य रहा। जहां तक साहित्य की बात है, ऐसे भी लोग हैं, जो पुरस्कार अथवा किसी तरह के उपकृत करने संबंधी लेन-देन को साफ-साफ ठुकराते रहे हैं। उनसे सबक लेना चाहिए। हाल ही में आपातकाल पर प्रामाणिक टिप्पणी करने वाली अपनी 1978 की पुस्तक ‘जनाचा प्रवाहो चालिला’ के मराठी लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता विनय हार्दिकर कहते हैं कि आपातकाल के दौरान जेल गए लोगों के लिए महाराष्ट्र सरकार की पेंशन की पेशकश उन्होंने ठुकरा दी। वह ऐसी कोई पेंशन नहीं लेना चाहते हैं। वह मानते हैं कि इस फैसले का राजनीतिक पक्ष है जो भाजपा अध्यक्ष के संपर्क फोर समर्थन अभियान का हिस्सा जान पड़ता है। वह इस तरह के किसी झमेले में फंसना नहीं चाहते हैं।
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