गूंज रहे हैं जन-गण-मन में कवि नागार्जुन
जन-गण-मन के कवि नागार्जुन हिंदी साहित्य के पहले ऐसे शिखर-हस्ताक्षर हैं, जिन्हें 'बाबा' और प्रथम 'जनकवि' के रूप में जाना जाता है। यहां तक कि बाबा के अलावा किसी और को जनकवि कहे जाने पर शीर्ष कवि-साहित्यकार उसे संशय से लेने लगते हैं। दो दिन पहले ही जेएनयू में प्रथम नागार्जुन पुरस्कार से सम्मानित किए गए आज के प्रतिष्ठित कवि नरेश सक्सेना। आज (30 जून) बाबा का जन्मदिन होता है। इस मौके पर विशेष।
'जन-आन्दोलनों का इतिहास' नाम की किताब अगर आप लिखने की सोचें तो एकबार नागार्जुन के काव्य-संसार की ओर पलट कर देख लें। तेभागा-तेलंगाना से लेकर जे.पी. की सम्पूर्ण क्रान्ति तक और भगतसिंह से लेकर भोजपुर तक आप यहां दर्ज पाएंगे, और पाएंगे कितने ही स्थानीय प्रतिरोध, जिनको इतिहास की मुख्यधारा हमेशा ही भुला देती है पर यह कोई अंध आन्दोलन भक्ति का सबब नहीं।
अभी-अभी मानसून आया है। पूरे देश ने 'बादल को घिरते देखा है'। ...और अभी-अभी देश के प्रतिष्ठित हिंदी कवि नरेश सक्सेना को प्रथम नागार्जुन पुरस्कार से समादृत किया गया है। यह सम्मान सिर्फ साहित्यिक सूचना भर नहीं... और आज बाबा नागार्जुन का स्मृति-दिवस (जन्मदिन) है। इस अवसर पर आइए, पहले बाबा की एक लोकप्रिय रचना 'बादल को घिरते देखा है' की किंचित पंक्तियों का स्पर्श-सुख लेते हैं -
अमल धवल गिरि के शिखरों पर बादल को घिरते देखा है।
छोटे-छोटे मोती जैसे उसके शीतल तुहिन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम कमलों पर गिरते देखा है,
बादलों को घिरते देखा है।
तुंग हिमालय के कंधों पर छोटी बड़ी कई झीलें हैं,
उनके श्यामल नील सलिल में समतल देशों से आ-आकर
पावस की ऊमस से आकुल तिक्त-मधुर बिसतंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है।
कवि नरेश सक्सेना का सम्मान सिर्फ साहित्यिक सूचना भर क्यों नहीं! प्रश्न-संशय स्वाभाविक है। नरेश सक्सेना लगभग छह दशक से रचनारत हैं, फिर भी उनके मात्र दो कविता संग्रहों का छपना आश्चर्यचकित करता है। दरअसल, उनकी कविता की ताकत भी यही है - कम लिखना, ज्यादा पढ़ा जाना और पाठकों को याद रहना। वह हमारे समय के कुछेक कवियों में से हैं, जो कम लिखते हैं लेकिन जो लिखते हैं, यादगार लिखते हैं। आज, जबकि लोगों को कविताएँ याद नहीं रहतीं, लोग कविताओं को नहीं, कवियों को याद रखते हैं - तब नरेश सक्सेना को लोग उनकी कविताओं से जानते हैं, पहचानते हैं।
प्रसिद्ध आलोचक द्वय डा. मैनेजर पाण्डे और डा. विश्व नाथ त्रिपाठी ने दो दिन पूर्व जेएनयू (दिल्ली) के समिति कक्ष में नरेश सक्सेना को प्रथम नागार्जुन स्मारक निधि सम्मान से अलंकृत किया। उनको शमशेर सम्मान, पहल सम्मान, राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार, हिंदी साहित्य सम्मेलन सम्मान आदि से समादृत किया जा चुका है। इस अवसर पर डा. विजय बहादुर सिह, मंगलेश डबराल, मैत्रेयी पुष्पा आदि महत्वपूर्ण कवि-कवयित्रियों की उपस्थिति भी उल्लेखनीय रही। मैनेजर पाण्डेय कहते हैं, बहुत कम लोगों को पता है कि नागार्जुन चार-चार भाषाओं के कवि थे। कितने ही छोटे-बड़े कवियों के नाम पर न्यास बने हुए हैं लेकिन नागार्जुन के नाम पर यह पहला प्रयास है। इस सम्मान समारोह के बहाने हम सब भी बाबा के ऋण से थोड़े-थोड़े उऋण हो गए हैं। इस अवसर पर नरेश सक्सेना अज्ञेय को याद करते हुए कहते हैं कि 'जो कुछ भी लेना, आँचल पसार कर लेना।'
मेरा पात्र छोटा है, फिर भी पूरे मन से इसे स्वीकार करता हूँ और आगे इस उम्मीद पर खरा उतरने की कोशिश करूँगा। मैं इस न्यास से पुरस्कार पाने वाला पहला सौभाग्यशाली व्यक्ति हूँ। पहला पहला ही रहता है, कभी दूसरा नहीं हो सकता।' हिन्दी के समकालीन जिन बड़े कवियों की अक्सर चर्चाएं होती हैं, उनमें नागार्जुन, शमशेर, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल प्राथमिक हैं। इमरजेंसी के दौर में कैसे नागार्जुन एक जनकवि के रूप में स्थापित हुए, आंदोलनों में उनकी क्या भूमिका रही और कैसे उनके ख़ास अंदाज़ ने उन्हें एक अलग पहचान दी, इसके बारे में सबकी अपनी अपनी राय हो सकती है लेकिन नागार्जुन का अंदाज़ जिन लोगों ने देखा है, उन्हें क़रीब से समझा है, वह जानते हैं कि नागार्जुन अपने धुन और विचारों के पक्के थे, किस बात पर बिफर पड़ें और किसी सरकार, नेता या अफ़सर की परवाह किए बिना कैसे वह अपनी रचनाओं में, मंच पर या किसी भी जगह से अपनी बात कह जाएं, कोई पहले से अनुमान नहीं लगा सकता था।
वर्ष 1974-75 में जब बिहार में छात्र आंदोलन चरम पर था, जयप्रकाश नारायण छात्रों के मसीहा बन चुके थे और इंदिरा सरकार के ख़िलाफ़ पूरे देश में असंतोष फैल चुका था, गुजरात से शुरू होकर बिहार पहुंचा छात्रों और युवाओं का आंदोलन, जेपी का संपूर्ण क्रांति का आह्वान, पटना के गांधी मैदान की 18 मार्च 1974 की वो ऐतिहासिक सभा और उस दौरान तमाम कवियों का नुक्कड़ों पर सत्ता विरोधी तेवर - मानो हरेक के भीतर क्रांति का बीज बो दिया गया हो। ऐसे में पटना के कदमकुआं का साहित्य सम्मेलन भवन और यहां तमाम वक्ताओं के बीच बैठे जनकवि बाबा नागार्जुन।
नागार्जुन ने माइक संभाला और उस दौरान की अपनी सबसे चर्चित कविता सुनाने लगे - 'इंदु जी, इंदु जी क्या हुआ आपको, सत्ता की मस्ती में भूल गईं बाप को।' आधुनिक हिंदी साहित्य के अमर काव्य -शिल्पी, 'जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊं,जनकवि हूँ मैं साफ़ कहूँगा क्यों हकलाऊं' जैसी पंक्तियाँ लिखने वाले बाबा नागार्जुन पर युवा आलोचक मृत्युंजय लिखते हैं - 'समरगाथा' (हारवर्ड फास्ट) में जन नेता के लिए एक शब्द है- 'मकाबी'। मकाबी वह जो जनता से पैदा होता है, उसी के लिए लड़ता है, और आखिरकार उसी में बिला जाता है। यह पदवी छीनी नहीं जा सकती, जुटाई नहीं जा सकती। प्रतिष्ठान और सत्ता इससे डरते हैं। यह सिर्फ जनता किसी को दे सकती है। नागार्जुन भारत की जनता के कवि-मकाबी हैं। यों 'जनकवि' के खिताब की कीमत बहुत ज्यादा होती है और कसौटियां काफी खरी। लगभग यह 'तरवार की धार पे धावनो' है। आज़ादी के पहले से लेकर अपनी जिन्दगी की आख़िरी सांस तक जनता के साथ कंधा भिड़ाकर लड़ने-भिड़ने, उससे सीखने और उसे सिखाने की यह जिद नागार्जुन के कविता के क्रोड़ में है। सत्ता के खिलाफ खड़ा होना, समकालीन आलोचकों की कुटिल भ्रू-भंगिमा से मोर्चा लेना और साहित्य की पवित्र भूमि से बर्खास्तगी, यही तो मिलता है जनकवि को पर रुकिए, उसे जनता का प्यार मिलता है। दिल्ली की बसों के चिढ़े-खिझलाये ड्राइवरों से लेकर बिहार के धधकते खेत-खलिहानों के खेत-मजूर तक उसे सर-आँखों पर रखते हैं।
मृत्युंजय लिखते हैं कि नागार्जुन ने लोकप्रिय होने के लिए कोई समझौता नहीं किया। जब-जब उन्हें लगा क़ि जनता बदलाव के अपने रास्ते पर है, वे उसके साथ रहे- सीखते-सिखाते। 'जन-आन्दोलनों का इतिहास' नाम की किताब अगर आप लिखने की सोचें तो एकबार नागार्जुन के काव्य-संसार की ओर पलट कर देख लें। तेभागा-तेलंगाना से लेकर जे.पी. की सम्पूर्ण क्रान्ति तक और भगतसिंह से लेकर भोजपुर तक आप यहां दर्ज पाएंगे, और पाएंगे कितने ही स्थानीय प्रतिरोध, जिनको इतिहास की मुख्यधारा हमेशा ही भुला देती है पर यह कोई अंध आन्दोलन भक्ति का सबब नहीं। आन्दोलनों का टूटना-बिखरना, उनकी कमी-कमजोरी, सब अपनी सम्पूर्णता में यहां मौजूद है। जे.पी. आन्दोलन पर क्रमशः लिखी कविताएं इसकी गवाही हैं- 'क्रान्ति सुगबुगाई है' से 'खिचड़ी विप्लव देखा हमने' तक। सन 75 में उन्होंने इंदिरा गांधी की तानाशाही पर संधान करते हुए लिखा -
इसके लेखे संसद=फंसद सब फ़िजूल है
इसके लेखे संविधान काग़ज़ी फूल है
इसके लेखे
सत्य-अंहिसा-क्षमा-शांति-करुणा-मानवता
बूढ़ों की बकवास मात्र है
इसके लेखे गांधी-नेहरू-तिलक आदि परिहास-पात्र हैं
इसके लेखे दंडनीति ही परम सत्य है, ठोस हक़ीक़त
इसके लेखे बन्दूकें ही चरम सत्य हैं, ठोस हक़ीक़त
जय हो, जय हो, हिटलर की नानी की जय हो!
जय हो, जय हो, बाघों की रानी की जय हो!
नागार्जुन एक कवि होने के साथ-साथ उपन्यासकार और मैथिली के श्रेष्ठ कवियों में जाने जाते हैं। उनके स्वयं के कथनानुसार उनकी 40 राजनीतिक कविताओं का चिरप्रतीक्षित संग्रह ‘विशाखा’ आज भी उपलब्ध नहीं है। संभावना भर की जा सकती है कि कभी छुटफुट रूप में प्रकाशित हो गयी हो, किंतु वह इस रूप में चिह्नित नहीं है। हिंदी में उनकी बहुत-सी काव्य पुस्तकें हैं। यह सर्वविदित है। उनकी प्रमुख रचना-भाषाएं मैथिली और हिंदी ही रही हैं। मैथिली उनकी मातृभाषा है और हिंदी राष्ट्रभाषा के महत्व से उतनी नहीं जितनी उनके सहज स्वाभाविक और कहें तो प्रकृत रचना-भाषा के तौर पर उनके बड़े काव्यकर्म का माध्यम बनी। अब तक प्रकाश में आ सके उनके समस्त लेखन का अनुपात विस्मयकारी रूप से मैथिली में बहुत कम और हिंदी में बहुत अधिक है। अपनी प्रभावान्विति में ‘अकाल और उसके बाद’ कविता में अभिव्यक्त नागार्जुन की करुणा साधारण दुर्भिक्ष के दर्द से बहुत आगे तक की लगती है। 'फटेहाली' महज कोई बौद्धिक प्रदर्शन है। इस पथ को प्रशस्त करने का भी मैथिली-श्रेय यात्री जी को ही है। अपनी 'जी हाँ, लिख रहा हूँ' कविता में बाबा नागार्जुन लिखते हैं -
जी हाँ, लिख रहा हूँ ...
बहुत कुछ ! बहोत बहोत !!
ढेर ढेर सा लिख रहा हूँ !
मगर , आप उसे पढ़ नहीं
पाओगे ... देख नहीं सकोगे
उसे आप !
दरअसल बात यह है कि
इन दिनों अपनी लिखावट
आप भी मैं कहॉ पढ़ पाता हूँ
नियोन-राड पर उभरती पंक्तियों की
तरह वो अगले ही क्षण
गुम हो जाती हैं
चेतना के 'की-बोर्ड' पर वो बस
दो-चार सेकेंड तक ही
टिकती है ....
कभी-कभार ही अपनी इस
लिखावट को कागज़ पर
नोट कर पता हूँ
स्पन्दनशील संवेदन की
क्षण-भंगुर लड़ियाँ
सहेजकर उन्हें और तक
पहुँचाना !
बाप रे, कितना मुश्किल है !
आप तो 'फोर-फिगर' मासिक -
वेतन वाले उच्च-अधिकारी ठहरे,
मन-ही-मन तो हसोंगे ही,
की भला यह भी कोई
काम हुआ , की अनाप-
शनाप ख़यालों की
महीन लफ्फाजी ही
करता चले कोई -
यह भी कोई काम हुआ भला !
बाबा नागार्जुन की इस बात पर आलोचना भी होती थी कि उनकी कोई विचारधारा ही नहीं है, बाबा कहीं टिकते ही नहीं हैं। नागार्जुन का मानना था कि वह जनवादी हैं। जो जनता के हित में है वही मेरा बयान है। मैं किसी विचारधारा का समर्थन करने के लिए पैदा नहीं हुआ हूं। मैं ग़रीब, मज़दूर, किसान की बात करने के लिए ही हूं। उन्होंने ग़रीब को ग़रीब ही माना, उसे किसी जाति या वर्ग में विभाजित नहीं किया। तमाम आर्थिक अभावों के बावजूद उन्होंने विशद लेखन कार्य किया।
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