कैसे बनारस में सड़कों पर भीख मांगने वाली महिलाओं की किस्मत बदल दी सात समंदर पार से आई दो बहनों ने?
घाट किनारे भीख मांगने वाली महिलाओं को दे रही हैं रोजगार...मकसद पूरा करने के लिए जेसूमेल ने सीखी हिंदी...जेसूमेल के जज्बे पर नाज करता है बनारस...
मोक्ष की नगरी काशी में हर साल लाखों की संख्या में सैलानी पहुंचते हैं. सात समंदर से पार कर यहां पहुंचने वाले सैलानियों में से कुछ को यहां के घाट भाते हैं तो कुछ यहां की संस्कृति में ही रम जाते हैं. कई तो ऐसे हैं जो यहीं के बनकर रह गए. लेकिन अर्जेंटीना से आने वाले दो बहनों ने काशी में अपनी अलग ही छाप छोड़ी है. इन दो बहनों ने यहां की दर्जनों महिलाओं को जीने का नया नजरिया सिखाया है. जेसूमेल और साइकल नाम की इन दोनों बहनें इन महिलाओं की सूनी पड़ी जिंदगी में खुशहाली के नए रंग भर दिए हैं. जी हां कभी मंदिरों के बाहर, चौराहों, स्टेशनों पर मांगकर गुजारा करने वाले दर्जनभर परिवारों को अब जीने की नई राह मिल गई है. अपने हुनर और मेहनत की बदौलत दो वक्त की रोटी कमा रहे हैं. ये सबकुछ हुआ है किसी सरकारी योजना से नहीं बल्कि सात समंदर पार कर आने वाली इन बहनों की बदौलत....
जेसूमेल और साइकल की प्रेरणा से आज भीख मांगने वाली ये महिलायें अपने हाथों के हुनर से कामयाबी की नई इबारत लिख रही हैं. ये महिलायें आज टोपी, चप्पल के साथ ब्रेसलेट तैयार कर घाटों पर बेचती हैं और उससे मिले पैसों से अपना घर चलाती हैं. इतना ही नहीं अर्जेंटीना की इन बहनों की कोशिशों का ही नतीजा है कि इनके बच्चे भी शिक्षा ले रहे हैं. लगभग पांच साल पहले जेसूमेल काशी आई थीं. काशी के घाटों से उसे बहुत लगाव था. हर रोज वह घंटों घाटों पर बितातीं. घाट किनारे गंगा की अटखेलियां करती लहरें और उस पर पड़ने वाली सूरज की किरणों को बह निहारती रहती. यहां के रीति रिवाज, तहजीब, तमीज को देखती. समझने की कोशिश करती. लेकिन इन घाटों पर कुछ था जो उसे खटकता था. ये तस्वीरें उसके दिल को झकझोरती थी. दरअसल घाट पर दूसरों के सामने हाथ फैलाकर गुजारा करने वाली महिलाओं और बच्चों की तस्वीर जेसूमेल को पीड़ा देती थी. जेसूमेल ने इन महिलाओं और बच्चों के लिए कुछ करने की ठानी. जेसूमेल को काशी में बच्चों संग महिलाओं का मांगकर खाना इतना अखरा कि उन्होंने ऐसी एक दर्जन महिलाओं को अपने पैर पर खड़ा होने के लिए प्रेरित करना शुरु कर दिया....
योर स्टोरी से बात करते हुए जेसूमेल बताती हैं,
मेरे लिए बनारस के घाटों की ये तस्वीर काफी भयावह थी. भूख और गरीबी से लड़ती इन महिलाओं को देख मुझे कई दिनों तक नींद नहीं आई. और एक दिन मेरे अंदर इन महिलाओं की हालात को बदलने के लिए जज्बा पैदा हुआ. तब से लेकर आजतक मैं इसी मिशन में लगी हुई हूं"
जेसूमेल के लिए ये मिशन इतना आसान नहीं था. सबसे बड़ी कठिनाई भाषा की थी. ना जेसूमेल इन महिलाओं की बोली समझ पाती और ना ही ये महिलाएं. लेकिन जेसूमेल ने हार नहीं मानी. उन्होंने अपने प्रयासों से हिंदी सीखना शुरु किया. ताकि वह इन महिलाओं और बच्चों से और जुड़ सकें. उनकी भावनाओं को समझ सकें. जेसूमेल अब फर्राटेदार हिंदी बोलती हैं. इन महिलाओं को अपनी बात समझा पाती हैं. महिलाएं भी अब बिना झिझक अपनी बात साझा कर लेती हैं.....
जेसूमेल ने काशी के अस्सी, दशाश्वमेध और शीतला घाट पर भीख मांगने वाली समुद्री, चंद्री, सपना और लीला जैसी दर्जनों महिलाओं को इकट्ठा किया और इन्हें ट्रेनिंग देने की शुरुआत की. जेसूमेल की मदद से ये महिलाएं आज पर्स, खिलौना, माला, अगरबत्ती बनाती है. सबसे बड़ी बात है कि इस रोजगार के लिए जेसूमेल ने खुद पैसे का इंतजाम किया. आज इन महिलाओं के हाथों से बने सामानों की खूब धूम है. जेसूमेल इन सामान को अपने साथ अर्जेंटीना ले जाती है. और सेल करती हैं. यही नहीं कुछ महिलाओं ने तो घाट किनारे अपनी खुद की दुकान भी खोल ली है. पहले तो जेसू साल में छः महीने ही यहां समय गुजारती थी लेकिन इस बार पूरे साल यहां रहने वाली हैं. भीख मांगने वाली महिलाएं स्वावबलंबी बनी तो इनकी जिंदगी भी संवर गई. आज इन महिलाओं के बच्चे पढ़ने जाते हैं. चंदा बताती है,
"जेसू बहन की देन है कि आज हम अपने पैरों पर खड़े हैं. हमारे बच्चे पहले भीख मांगते थे लेकिन आज वो स्कूल जाते हैं. हमारे लिए ये सब किसी सपने की तरह ही है. हमने अपनी जिंदगी में कभी ऐसे दिन की कल्पना नहीं की थी"
जेसू के इस जज्बे को अब बनारस भी सलाम कर रहा है. गरीबों के कुछ करने की चाहत का ही असर है कि शहर की कुछ संस्थाएं भी अब जेसू के साथ काम करने लगी हैं.
इन महिलाओं के लिए जेसू किसी मसीहा की तरह हैं. यकीनन अगर खुद पर विश्वास और हौसला हो तो कोई भी काम कठिन नहीं होता. जेसूमेल ने इसे सच करके दिखाया है. जेसूमेल आज उन महिलाओं के लिए मिसाल है जो हालत से हारकर खुद को समेट लेती हैं.