स्टार्टअप में फैसला लेना लोकतंत्र की तरह संभव नहीं
सीबी इनसाइट्स ने साल 2014 में स्टार्टअप के नाकाम रहने की वजहों को तलाशलने के लिए उद्यमियों से निबंध लिखवाया। निबंध में स्टार्टअप के नाकाम रहने का दूसरा सबसे बड़ा कारण जो सामने आया उसमें उद्यमी खुद थे। इसके अलावा कंपनी के संस्थापक और टीम के वो सदस्य थे जो विभिन्न मुद्दों को लेकर एक दूसरे के साथ जुड़े थे।
संस्थापक से जुड़े मुद्दों में से कुछ ऐसे थे जो सीधे उन्ही से जुड़े थे और इसकी बड़ी वजह थी कि वो उस काम के लिए काबिल नहीं थे। क्योंकि जब उनके सामने धोखाधड़ी और चोरी के मामले सामने आये तो इसका प्रभाव उनके प्रदर्शन, योगदान और टीम की गतिशीलता पर पड़ा।
एक कंपनी जिसके साथ मैं काफी करीब से जुड़ा था तो उस कंपनी के तीन संस्थापकों में से दो ने हमसे सम्पर्क किया। इन दोनों ने सम्पर्क तब किया जब हमने एक महिने पहले ही उनकी कंपनी में निवेश किया था। दोनों संस्थापकों का कहना था कि अब वो अपने इस उद्यम से बाहर आना चाहते हैं। हमने उन दोनों को काफी समझाने की कोशिश की और उनको कंपनी में बने रहने को कहा। इस तरह के हालात अगले तीन सालों के दौरान कई बार आये और हर बार कोई एक संस्थापक कंपनी छोड़ने की बात करने लगा। हर बार कंपनी छोड़ने की वजह ये थी की उसका मानना था कि कंपनी में उसका रोल संस्थापक के कद के मुताबिक नहीं है। इतना ही नहीं वो ये भी मानता था कि किसी बड़ी एमएनसी में वो तीन सालों के दौरान ज्यादा सीख सकता था...अगर वो अपने इस स्टार्टअप का सह-संस्थापक नहीं होता। हम इस मामले में भाग्यशाली थे कि सकारात्मक बातचीत करने के बाद और उनके बाहर निकलने पर कोई भी नाकारत्मक प्रभाव टीम के सदस्यों पर नहीं पड़ा। इस कारण कंपनी अपने स्टेकहोल्डर पर विश्वास बरकरार रखने में भी कामयाब हो सकी।
अगर आप स्टार्टअप शुरू करने जा रहे हैं या सह-संस्थापक ढूंढ रहे हैं तो महत्वपूर्ण है कि समझौता सही ढंग से होना चाहिए। समझौते में सभी जरूरी बातों का जिक्र होना चाहिए। किसी भी समझौते को तैयार करने से पहले आपसी सहमति और विभिन्न मुद्दों पर ध्यान देने की जरूरत है।
भूमिका और जिम्मेदारी
समझौते में ये स्पष्ट होना चाहिए कि संस्थापक की कंपनी में क्या भूमिका और जिम्मेदारी होगी। ये सब संस्थापक के पुराने अनुभव के आधार पर तय किया जा सकता है। बावजूद इसके अगर किसी संस्थापक के पास लंबा चौड़ा अनुभव ना हो तो उसकी रूची के हिसाब से उसे जिम्मेदारी दी जा सकती है। (यहां पर इस बात को इस तरह से भी समझा जा सकता है कि अगर सह-संस्थापक किसी खास क्षेत्र में अपनी रूची दिखाता है तो उससे उम्मीद के मुताबिक कौशल का विकास होगा।) समझौते में इस बात का भी जिक्र होना चाहिए कि समय समय पर संस्थापकों के काम में बदलाव भी किये जा सकते हैं। उनकी जिम्मेदारी घटाई या बढ़ाई जा सकती हैं अगर कोई सह-संस्थापक कंपनी के मुताबिक प्रदर्शन ना कर पाये तो।
फैसले लेना
प्रत्येक सह-संस्थापक कंपनी का सीईओ या को सीईओ नहीं बन सकता। किसी भी स्टार्टअप के लिए जल्द से जल्द फैसला लेना जरूरी होता है। इसलिए किसी कमेटी के फैसले या बहुमत के आधार पर फैसला लेने में काफी वक्त निकल जाता है। इसलिए जरूरी है कि फाइनल और अंतिम फैसला कौन लेगा ये बात स्टेकहोल्डर के सामने स्पष्ट होनी चाहिए। इतना ही नहीं कंपनी का नेतृत्व किसके हाथ में होगा ये भी पहले से पता होना चाहिए। किसी भी नेतृत्व को बदलने के लिए उसकी क्षमता को आंकना चाहिए, ना कि रोटेशन के आधार पर ये बदलाव करने चाहिए। ये जरूरी है कि बड़े मुद्दों पर सभी सह-संस्थापकों के बीच विचार विमर्श और उनकी मंजूरी जरूरी होनी चाहिए, लेकिन इसका ये भी मतलब नहीं है कि सभी फैसले आम सहमति से लिये जाएं। क्योंकि लोकतंत्र में सहयोग और बातचीत काम करती है, फैसले लेने में नहीं।
इक्विटी विभाजन और वेस्टिंग:
सर्वे बताते हैं कि किसी भी स्टार्टअप की इक्विटी अक्सर समान रूप से संस्थापकों के बीच बंटी होती है। वहीं ये भी सच है कि अगर संस्थापक सदस्य समान तजुर्बा और पृष्ठभूमि से हों तो स्टार्टअप की इक्विटी के भविष्य में और बढ़ने की संभावनाएं रहती हैं। हालांकि ये भी जरूरी नहीं है कि टीम के सभी सदस्य एक समान तरीके से अपना योगदान दें और इसी तरह प्रदर्शन के मानकों को पूरा करें। अगर उनकी पृष्ठभूमि और तजुर्बा अलग अलग हो तो सभी सह संस्थापकों के बीच हिस्सेदारी बराबर नहीं होनी चाहिए। आप इसे एक नियम भी मान सकते हैं कि स्टार्टअप को नेतृत्व प्रदान करने वाला सीईओ के पास दूसरे सह-संस्थापकों के मुकाबले सबसे ज्यादा इक्विटी होगी। शुरूआत में अगर इसको लेकर बातचीत कर ली जाए तो बेहतर होगा हालांकि ये थोड़ा अप्रिय होता है, लेकिन भविष्य के लिए ये काफी अच्छी चीज है। क्योंकि संस्थापकों के बीच किसी भी तरह का मनमुटाव कंपनी के प्रदर्शन पर असर डालता है। इक्विटी से हटकर वेस्टिंग एक महत्वपूर्ण घटक है। इसके लिए संस्थापकों को बाजार आधारित सारणी पर काम करना चाहिए। अगर कोई सह-संस्थापक बीच में ही स्टार्टअप को छोड़ना चाहता हो तो उसका विकल्प उनके पास होना चाहिए। संस्थापक और टीम के बीच संबंध शादी के जोड़े की तरह होते हैं। हम उम्मीद करते हैं कि ये लंबे वक्त तक एक दूसरे के साथ चलें। इस यात्रा में हकीकत की शादी की तरह कई अप्रत्याशित घटनाएं होती रहती हैं इसलिए विवाह पूर्व ऐसा समझौता तैयार किया जाए कि बाद में उसको लेकर पछतावा ना रहे।