नोटबंदी के बाद का भारत
सरकार देश में जब भी कोई बड़ा फैसला लेती है, तो उस किसी भी प्रकार के फैसले से सबसे पहले वह खास वर्ग प्रभावित होता है, जिसके पास सुबह के भोजन का तो इंतजाम होता है, लेकिन शाम के भोजन का नहीं और यदि शाम के भोजन का जुगाड़ हो जाये, तो सुबह के भोजन का नहीं। यहां पढ़ें बदल रहे भारत में उस खास वर्ग के संघर्षों का एक छोटा-सा हिस्सा...
मोदी सरकार की नोटबंदी के फैसले के 50 दिन पूरे होने वाले हैं और विपक्ष की बहस अब भी जस की तस बनी हुई है। समर्थक इसके फायदे गिना रहे हैं तो विरोधी नुकसान। अर्थव्यवस्था के जानकारों की राय भी इस बारे में बंटी हुई है। किसी को सही लग रहा है, तो किसी को गलत। कुछ इसे देश के लिए फायदेमंद बता रहे हैं तो कुछ नुक्सानदेह। लेकिन आम जनता अब पूरी तरह से सरकार के इस फैसले को अपना चुकी है और अपनी आगे की ज़िंदगी को कैशलेस जीने को तैयार है। हालांकि, अभी भी एक बड़ा तबका परेशानियां झेल रहा है, लेकिन धीरे-धीरे ज़िंदगी पहले जैसी होनी शुरू हो गई है।
सरकार देश में जब भी कोई बड़ा फैसला लेती है, तो उस किसी भी प्रकार के फैसले से सबसे पहले वह खास वर्ग प्रभावित होता है, जिसके पास सुबह के भोजन का तो इंतजाम होता है, लेकिन शाम के भोजन का नहीं और यदि शाम के भोजन का हो, तो सुबह के भोजन का नहीं। इस खास वर्ग में वे लोग आते हैं, जिनके बैंक अकाउंट्स नहीं है, जो अपने घरों के गद्दे-रजाईयों में कालाधन छिपा कर नहीं रखते। जिनके बच्चे अंग्रेजी स्कूलों में नहीं जाते और जो न ही अपना वीकेंड मल्टीप्लेक्स में सिनेमा के बाद शॉपिंग करके मनाते हैं। बल्कि ये वो आबादी है, जो अपने शारीरिक श्रम के आधार पर कमाती और खर्चती है, फिर वो कोलकाता से बैंगलोर काम की तलाश में आई कामवाली बाई रिहाना हो या फिर दिल्ली रोहिड़ी में सब्जी का ठेला खींचने वाला सर्वेश हो। ये हमारे देश का वो तबका है, जो अपने मुंह में जाने वाले हर निवाले के लिए कई तरह के जतन करता है।
अलग-अलग शहरों के अलग-अलग क्षेत्रों में काम करने वाली लोवर क्लास आबादी से जब हमने बात की तो मालूम चला, कि ज़िदगी में नोटबंदी का तूफान आया था और तूफान गुज़रने के बाद जीवन फिर से पहले की तरह सामान्य होने की कोशिश में जुट गया है। सबसे अच्छी बात यह है, कि सभी खुद को डिजिटल बनाने की कोशिश मे जुट गये हैं, लेकिन कुछ जगहों पर समस्याएं बनी हुई हैं।
ठेल पर आकर बिंदी-लिप्स्टिक खरीदने वाली जनता इतनी आधुनिक नहीं है, कि वो पेटीएम से पैसा दे। अपने शहर में तो लोगों को कैशलेस होने में लंबा समय लगेगा : इरफान, आगरा।
आगरा के राजामंडी इलाके में ठेल पर बिंदी, लिप्स्टिक, चूड़ी, कंगन बेचने वाले इरफान का कहना है, कि "मोदी जी की नोटबंदी की वजह से बहुत दिक्कत हो रही है।" पेटीएम के बारे में पूछने पर इरफान के कहा, कि "हां इसके बारे में सुना तो है, लेकिन पेटीएम से पहले टच स्क्रीन मोबाईल चाहिए, मोबाईल के लिए पैसा कहां से आयेंगे। टच स्क्रीन मोबाईल हो, तो 24 घंटे वाला नेट कनेक्शन लेना पड़ेगा और यदि मैंने दोनों चीज़े किसी तरह जुगाड़ लगा कर कर भी लीं, तो हमारे आगरा में मेरे ठेल पर आकर बिंदी-लिप्स्टिक खरीदने वाली जनता इतनी आधुनिक नहीं है, कि वो पेटीएम से पैसा दे। अपने शहर में तो लोगों को कैशलेस होने में लंबा समय लगेगा।"
मेरी दुकान पर चाय पीने आने वाले कुछ लड़कों ने ही मुझे टच स्क्रीन फोन लेकर पेटीएम डाउनलोड करने का सुझाव दिया। पेटीएम के बाद बहुत आराम हो गया है : नरेश, दिल्ली।
वहीं दूसरी तरफ दिल्ली में चाय की दुकान लगाने वाले नरेश पेटीएम का तेज़ी से इस्तेमाल कर रहे हैं, योर स्टोरी से बात करने पर उन्होंने बताया, कि "नोटबंदी के बाद पंद्रह-बीस दिन तक तो बहुत दिक्कत हुई, लेकिन मेरी दुकान पर चाय पीने आने वाले कुछ लड़कों ने ही मुझे टच स्क्रीन फोन लेकर पेटीएम डाउनलोड करने का सुझाव दिया। पेटीएम के बाद बहुत आराम हो गया है। चाय से पहले लोग यही पूछते हैं, कि पेटीएम है क्या? अब मैंने दुकान के बाहर बोर्ड भी लिख दिया है, कि यहां पेटीएम चलता है। मैं खुद सब्जी, राशन खरीदने से लेकर मैट्रो तक का सफर पेटीएम की मदद से ही कर रहा हूं।" वहीं दिल्ली में सब्जी का ठेला खींचने वाले सर्वेश ने पीटीएम का इस्तेमाल ज़ोरों से शुरू कर दिया है। सर्वेश कहते हैं, कि "टच स्क्रीन फोन तो मेरे पास पहले से था और नोटबंदी के बाद मैंने पेटीएम भी डाउनलोड कर लिया। कोई दिक्कत नहीं होती। सारे काम आसानी से हो रहे हैं।"
नेटबंदी के बाद दिक्कत तो हुई है, लेकिन मुझे लगता है, कि लॉन्ग टर्म के लिए यह एक अच्छा फैसला है : सोनम, कानपुर।
कानपुर में एक ब्यूटीपार्लर चलाने वाली सोनम कहती हैं, कि " मोदी जी के फैसले के बाद धंधा मंदा तो हुआ है, लेकिन चल रहा है। कोई पेटीएम यूज़ करता है, कोई नहीं। शादी/पार्टी वाले सारे अॉर्डर्स अब हम बैंक में पैसे ट्रांसफर करवा के ले रहे हैं। कुछ लोग छोटे-मोटे काम यह कहकर करवा ले रहे हैं, बाद में दे जायेंगे। अभी कैश नहीं है। नेटबंदी के बाद दिक्कत तो हुई है, लेकिन मुझे लगता है, कि लॉन्ग टर्म के लिए यह एक अच्छा फैसला है।"
1 दिसंबर को मिलने वाली पगार 20 दिसंबर तक मिली और जो मिली वो दो-दो हज़ार के नोट थे। कोई दुकान वाला छुट्टे भी नहीं देता : रिहाना, बैंगलोर।
पांच साल पहले काम की तलाश में कोलकाता से बैंगलोर आई रिहाना सुबह 5 बजे से लेकर दोपहर के 2 बजे तक छ: घरों में झाड़ू-पोंछा-बर्तन का काम करती हैं। पूछने पर रिहाना ने बताया, कि "मेरे पास तो कोई बैंक अकाउंट भी नहीं था। 1 दिसंबर को मिलने वाली पगार 10-15 के बीच मिली और जो मिली वो भी दो-दो हज़ार के नोट थे। कोई दुकान वाला छुट्टे (खुले) भी नहीं देता। लेकिन मैंने अपनी दीदी (जिनके घर में रिहाना काम करती हैं) की मदद से अपना एक अकाउंट खुलवा लिया है। अब नये साल से सारी पगार उसमें ही आयेगी। मैं थोड़ी-पढ़ी लिखी हूं, तो कार्ड भी चलाना सीख लिया है। जो पैसे घर में थे सबको अकाउंट में जमा कर दिया। वैसे मेरे गांव में ग्रामीण बैंक में भी मेरा एक खाता है। मेरे पास थोड़ा कैश भी था, जिसे मैंने बैंक में जमा कर दिया।"
मुझे कोई खासा दिक्कत नहीं हुई, बल्कि बहुत खुशी हुई इस बात की, कि मोदी ने देश में अमीर-गरीब का भेद खतम कर दिया। अब मर्सीडीज़ में चलने वाला साहब भी हमारी ही तरह खाली जेब घूम रहा है : अब्दुल मियां, बैंगलोर।
वहीं बैंगलोर की सड़कों पर अॉटो चलाने वाले अब्दुल मियां भी पूरी तरह से कैशलेस हो चुके हैं। अपने साथ टच स्क्रीन फोन पर पेटीएम भी रखे हुए हैं और बैंक में अकाउंट खुलवाने के बाद अपनी किसी सवारी से ही कार्ड को इस्तेमाल करना भी सीख लिया है। अब्दुल कहते हैं, "मुझे कोई खासा दिक्कत नहीं हुई, बल्कि बहुत खुशी हुई इस बात की, कि मोदी ने देश में अमीर-गरीब का भेद खतम कर दिया। अब मर्सीडीज़ में चलने वाला साहब भी हमारी ही तरह खाली जेब घूम रहा है और उनके घरों में रखा काला धन ज़रूर देश के सुधार में लगाया जायेगा। अपनी दिक्कतों की उतनी तकलीफ नहीं, जितनी पैसे वालों को गरीब होता हुआ देखकर खुशी मिल रही है।"
अब्दुल मियां जैसे कई लोग दिल्ली/बैंगलोर/हैदराबाद/पूणे/दिल्ली की सड़कों पर मिल जायेंगे, जो नोटबंदी के बाद अपनी तकलीफों से परेशान नहीं, बल्कि पैसे वालों की तकलीफों से खुश नज़र आ रहे हैं। सभी के मिले जुले विचार हैं। सभी डिजिटल बनने की ओर अपना कदम बढ़ा चुके हैं और सभी दुनिया मुट्ठी में लेकर घूम रहे हैं। जिस तबके की तकलीफों का सहारा लेकर लोग मोदी पर निशाना साध रहे हैं, उस तबके को मोदी से कोई शिकायत नहीं। लेकिन उन्हीं में से कुछ ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें इस बात का डर है, कि यदि वे विरोध में खड़े हुए तो कहीं उन्हें किसी बड़ी परेशानी का सामना न कर ना पड़ जाये।
अमन की बड़ी बहन की शादी भी नोटबंदी की वजह से टूट गई, क्योंकि अमन के मां-पिता के पास डेढ़ लाख रूपये का कैश लड़के वालों को देने के लिए नहीं जमा हो पा रहा था।
बैंगलोर में ही उन्नाव (लखनऊ-कानपुर (यूपी) के बीच बसा हुआ एक जिला) से अपने बड़े भाई की छोटी-सी नर्सरी (पौधशाला) पर काम करने वाले अमन ने इस शर्त पर अपनी परेशानियों को साझा किया, कि "आप मेरी बातों को कहीं रिकॉर्ड तो नहीं कर रही हैं और विडियो भी मत बनाईयेगा।" अमन कहते हैं, कि "हमें बहुत परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। नर्सरी पूरी तरह से बंद ही पड़ी है। पौधों की बिक्री रुक गई है। हमारी भी जेब में पैसे नहीं हैं। जैसे तैसे खाने का जुगाड़ हो पा रहा है। भाईया को हमने बोल दिया है, कि उन्नाव वापस चलो, वहीं चलकर कुछ काम शुरू कर लेंगे। बड़े शहर में अब हमारा गुज़ारा नहीं। मोदी जी ने ये अच्छा नहीं किया। अब कौन गद्दे-रजाई में अपने पैसे रखता है। जिनके पास पैसे थे, उन्होंने तो पहले ही ज़मीनें खरीद लीं, फ्लैट खरीद लिए और विदेशी बैंकों में अपने पैसे जमा कर दिये। पेट पर लात तो हम जैसी गरीब जनता के पड़ी है।" अमन अभी उन्नाव से हिन्दी, इंग्लिश और एजुकेशन में ग्रेजुएशन कर रहे हैं। आगे चलकर इंग्लिश में एमए करना चाहते हैं। देश-दुनिया की अच्छी समझ रखते हैं और मोदी के फैसले से काफी नाराज़ हैं। अमन की बड़ी बहन की शादी भी नोटबंदी की वजह से टूट गई, क्योंकि अमन के मां-पिता के पास डेढ़ लाख रूपये का कैश लड़के वालों को देने के लिए नहीं जमा हो पा रहा था।
नोटबंदी के बाद भारत देश भले ही अनेक तरह की परेशानियों से जूझ रहा हो, लेकिन धीरे-धीरे हर वर्ग के लोगों ने इसे अपनाना शुरु कर दिया है। हालांकि विचार सबके मिले जुले हैं। कोई नोटबंदी से खुश है, तो कोई परेशान। गरीब जनता भी कैश से प्लास्टिक मनी पर आनी शुरू हो गई है और कई लोग पूरी तरह से डिजिटल हो चुके हैं, फिर भी शिकायतें जस-की-तस बनी हुई हैं।
कैश होने के बावजूद पूरी तरह से कैशलेस हो जाना एक बड़ी समस्या है, जिससे बाहर निकलने में अभी लंबा समय लगेगा।