शू-मेकिंग से लेकर न्यूज़ ब्रेकिंग तक: मिलें भोपाल के सुरेश नंदमेहर से, जो रात में सीते हैं जूते और दिन में करते हैं पत्रकारिता
भोपाल के सुरेश नंदमेहर, जिनका पुश्तैनी काम है जूते सीना है, लेकिन शू-मेकिंग के काम के साथ-साथ वे पत्रकारिता भी करते हैं। जब 27 दिनों तक भोपाल के रोशनपुरा चौराहे पर बैठकर सुरेश ने धरना दिया, तो उनकी मांग और उनके धरने को मीडिया का उस तरह से सपोर्ट नहीं मिला जिस तरह मिलना चाहिए था। फिर उन्होंने तय किया कि वे अपने शू-मेकिंग के काम को नहीं छोड़ेंगे, लेकिन अपने समाज की आवाज़ को जनता के सामने लाने के लिए अखबार भी निकालेंगे। सुरेश रात में जूते सीते हैं और दिन में पत्रकारिता करते हैं। आईये खोलते हैं सुरेश की ज़िंदगी वो पन्ने जो किसी को भी बहादुरी के साथ ज़िंदगी जीने की प्रेरणा दे सकते हैं...
देखने में ये दुनिया जितनी आसान लगती है, असल में है उतनी ही मुश्किल। एक इंसान सारी ज़िंदगी, अपनी ज़िंदगी को संवारने की लड़ाई लड़ता है और एक दिन दुनिया को अलविदा कह देता है। हर वर्ग की हर स्तर की हर इंसान की अपनी-अपनी लड़ाईयां हैं, जो ना तो किसी दूसरे की लड़ाई से बड़ी होती हैं ना छोटी।
मैं करीब 2 साल पहले एक सामूहिक कार्यक्रम में भोपाल के सुरेश नंदमेहर से मिली थी। उनके काम करने के तरीके और ज़िंदगी के प्रति उनके नज़रिये से मैं खासा प्रभावित हुई। जब उन्होंने मुझे बताया कि वे पेशे से एक पत्रकार भी हैं और शू-मेकर भी, तो उनकी कहानी जानने के प्रति मेरी जिज्ञासा और बढ़ गई। बात आई और चली गई, मुलाकात भी पीछे छूट गई। कोरोनावायरस महामारी के दौरान मैं सभी से फिर से संपर्क में आई और उसमें एक नाम था सुरेश नंदमेहर का। ऐसी क्या वजह थी कि सुरेश को चर्मकार के अपने पुश्तैनी काम के साथ-साथ अखबार निकालना पड़ गया? जब इस सच की गहराई में उतरी तो पता चला कि ये काम उन्होंने किसी शौक या प्रसिद्धी पाने के लिए नहीं बल्कि अपने समाज की ज़रूरत को देखकर मजबूरी में शुरू किया।
सुरेश नंदमेहर एक आठपृष्ठीय टेबुलाइट साईज की मासिक पत्रिका 'बाल की खाल' का प्रकाशन करते हैं। ये पत्रिका साल 2003 से वे निकाल रहे हैं। पेशे से मामूली चर्मकार लेकिन सोच से अन्याय के विरुद्ध एक बुलंद आवाज़ हैं सुरेश। अपने आसपास हो रहे किसी भी अन्याय को आवाज़ देना उन्हें बखूबी आता है। अपनी पत्रिका के ज़रिए वे अपने समाज के शोषण को सामने लाना चाहते हैं। पिछले कई सालों से 14 वर्ग फ़ुट की दुकान में बैठ कर जूते सीने का काम करने वाले सुरेश हर सामाजिक बुराई पर अपनी पैनी नज़र रखते हैं।
सुरेश के साथ हुई पूरी बातचीत को देखें इस वीडियो इंटरव्यू में....
मैगज़ीन शुरू होने के पीछे की वजह पर सुरेश नंदमेहर कहते हैं,
" नगर निगम वाले जब हमारी दुकानों हमारे घरों से हमें बेदखल कर रहे थे, तो अपने हक के लिए हम लगातार 27 दिनों तक धरने पर बैठे रहे, लेकिन बेनतीजा धरना खत्म करना पड़ा। अखबारों में धरने की खबर प्रमुखता से नहीं छपने के कारण शासन-प्रशासन भी गंभीर नहीं हुआ और हमारी मांग अधूरी रह गई। इस घटना ने मेरे भीतर विद्रोह पैदा कर दिया और मैंने तय कर लिया कि अब खुद का अखबार निकाला जाए और अपनी बात सबके सामने रखी जाए।"
'बाल की खाल' पहले अखबार के रूप में प्रकाशित किया जाता था, लेकिन आर्थिक कमी के चलते सुरेश ने साल 2011 में इसे पत्रिका में बदल दिया। इस पर सुरेश कहते हैं,
"अखबार को मैंने मैगज़ीन में कन्वर्ट किया। क्योंकि भोपाल सरकार ने कहा कि यदि आप अपने अखबार को मैग्ज़ीन में बदल देंगे तो हम सरकारी एड देंगे, जिससे मैग्ज़ीन का खर्च निकल जायेगा और इसके चलते हमें अखबार को 2011 में मैगज़ीन में बदलना पड़ा।"
40-45 साल पुरानी बात है, भोपाल आने से पहले सुरेश के पिताजी गांव में खेती-किसानी का काम करते थे। पिताजी के साथ सुरेश का परिवार जब भोपाल आया तो इन्होंने पाया कि उनके सभी रिश्तेदार और जान पहचान वाले शू रिपेयरिंग का काम कर रहे हैं और ऐसे में इनके परिवार ने भी इस काम को अपना लिया। घर की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। बचपन के दिनों में सुरेश स्कूल खत्म होने के बाद दूसरों के जूतों में पॉलिश करने का काम करते थे, जिससे उनको हर जूते से 15-20 पैसे ही मिल पाते थे।
अभी भी जूतों के काम से इतनी आमदनी नहीं होती कि सुरेश एक आरामतलब ज़िंदगी जी सकें। मैगज़ीन में लगने वाला खर्च सरकारी एड और क्राउडफंडिंग के माध्यम से निकलता है। कम आमदनी में सुरेश किसी के सामने हाथ नहीं फैलाते। जूते के काम से उन्हें जितना पैसा मिलता है, उससे वे अपना परिवार चलाते हैं और बचे हुए पैसों को मैगज़ीन के काम में लगाते हैं। बाल की खाल शुरू करने से पहले सुरेश ने जब लोगों से ये कहा कि वे अखबार या पत्रिका निकालना चाहते हैं, तो लोगों ने इसका विरोध किया।
सुरेश कहते हैं,
"जब मैंने कहा कि अपने समाज की लड़ाई लड़ने के लिए मैं अखबार निकालना चाहता हूं, तो लोगों ने कहा कि तुम अब पत्रकार बनोगे? कौन सुनेगा तुम्हारी आवाज़? तुम भूल गये हो कि तुम एक जूता सिलने वाले हो? बहुत बड़े लोग होते हैं वो जिनकी बात लोग सुनते हैं। तुम्हारी आवाज़ कोई नहीं सुनेगा।"
पत्रकारिता कैसे की जाती है, इसके लिए सुरेश ने अपने एक पत्रकार मित्र की सहायता ली। उनसे ही उन्होंने सीखा कि इस काम को कैसे करना है। मैगज़ीन का टाइटल भी उनके दोस्त ने ही दिया। 2003 में पत्रिका शुरू करने से सुरेश ने 2-3 साल तक अपनी दुकान रोक कर पत्रकारिता का काम सीखा।
2010 में सदी के महानायक अमिताभ बच्चन द्वारा सुरेश को सिटीजन जर्नलिस्ट अवॉर्ड और 2012 में इंडिया पॉज़िटिव अवॉर्ड भी मिल चुका है।
सुरेश कहते हैं,
"आर्थिक तौर पर हमें कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। पत्रकारिता पैसे कमाने वाली जगह नहीं है। स्वयं को मेहनत करनी है। सच की बात करनी है। सच बोलना आसान कहां होता है।"
यदि सुरेश की मानें तो कोरोनावायरस से पहले जूते सीने के काम से उन्हें 200-500 रूपये प्रतिदिन की आमदनी हो जाती थी, लेकिन कोरोनावायरस महामारी के दौरान सुरेश को कई तरह की आर्थिक दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। बारिश के दिनों में जूतों का काम नहीं होता है। जून-जुलाई-अगस्त वो महीने होते हैं जिनमें काम मंदा होता है। आमदनी लगभग ना के बराबर होती है और इसके सुरेश या सुरेश जैसे बाकी शू-मेकर्स पहले ही पैसा जमा करके रख लेते हैं, लेकिन कोरोना के आने से वो पैसे पहले ही खत्म हो गये। अब सुरेश और उनके परिवार को खासा दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है, लेकिन फिर भी ना तो सुरेश का जज़्बा खत्म हुआ है ना जोश। वो अब भी उसी ऊर्जा के साथ बात करते हैं और उन्हें यकीन है कि उनकी कोशिश कहीं ना कहीं तो बदलाव का बिगुल फूंकेगी ही।
सुरेश कहते हैं,
"इंसान कोई भी काम कर सकता है। ना काम बड़ा होता है ना छोटा, ना इंसान बड़ा होता है ना छोटा। बस अगर करने का जज़्बा हो तो हर काम किया जा सकता है। मुश्किलों का होना सही है, लेकिन नामुमकिन कहना गलत।"