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एक साइट इंजीनियर से एल एण्ड टी मेट्रो रेल हैदराबाद के चीफ तक की यात्रा करने वाले वी बी गाडगिल

एक साइट इंजीनियर से एल एण्ड टी मेट्रो रेल हैदराबाद के चीफ तक की यात्रा करने वाले वी बी गाडगिल

Wednesday May 11, 2016 , 9 min Read


कहानी शुरू होती है शिर्डी के पास एक छोटे से कस्बे संगमनेर के एक मराठी माध्यम सरकारी स्कूल से। गाँव के एक डाक्टर के घर पैदा हुआ लड़का। जो डाक्टर नहीं बनना चाहता है, कुछ रचनात्मक कार्य करना है, दुनिया घूमना चाहता है, दुनिया को कुछ देना है। वह औरंगाबाद के एक कॉलेज से इंजीनियर बनकर जब बाहर निकलता है, तो निर्माणोद्योग में कुछ ऐसी दुनिया रचता है कि दुनिया देखकर दंग रह जाती है। बात है, एल एण्ड टी मेट्रो रेल हैदरबाद के संस्थापक सीईओ और एमडी वी.बी. गाडगिल की।

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गाडगिल 67 वर्ष की उम्र में भी बिल्कुल युवा की तरह काम करते हैं। हैदराबाद में दुनिया की सबसे बड़ी पीपीपी मेट्रो रेल परियोजना स्थापित करने का 80 प्रतिशत से अधिक काम उन्होंने किया है। मई 2016 में वो अपने पद से रिटायर होने जा रहे हैं, लेकिन जो कुछ अनुभव उन्होंने एक साइट इंजीनियर से शुरू कर एल एण्ड टी के शीर्षस्थ पद तक पहुँचकर हासिल किये हैं, वे अद्भुत हैं।

गाडगिल के बचपन में महाराष्ट्र के गाँव संगमनेर में दसवीं तक की ही शिक्षा की व्यवस्था थी। औरंगाबाद से इंजीनियरिंग की शिक्षा पूरी करने बाद कंस्ट्रक्शन उद्योग में नौकरी हासिल करने वाले गाडगिल ने यह सोचा भी नहीं था कि वे एक बड़ी कंपनी में इतने बड़े पद तक पहुँचेंगे। वे बताते हैं,

मैंने कभी नहीं सोचा था कि गंतव्य क्या होगा। हाँ इतना ज़रूर था कि मैं सिविल इंजीनियर बनना चाहता था। जिस समय मैंने ईसीसी में साइट इंजीनियर की नौकरी हासिल की थी यह कंपनी एल एण्ड टी का हिस्सा नहीं थी। एल एण्ड टी उस समय ऊर्जा क्षेत्र में कार्य करती थी। कंस्ट्रक्शन में उसकी भूमिका नहीं थी। 1984 में जब ईसीसी का एल एण्ड टी में विलय हुआ, उसके बाद ही हम एल एण्ड टी एम्बलम उपयोग करने लगे। फिर मेहनत और प्रदर्शन के बल बूते पर सीढियाँ ऊपर चढ़ती गयीं। आबुधाबी, इराक, नेपाल, खाड़ी देशों सहित विभिन्न स्थानों पर काम करने का मौका मिला। फिर एक दिन कंपनी ने 63 वर्ष की उम्र में मुझे एल एण्ड टी मेट्रो रेल हैदराबाद का सीईओ एवं प्रबंध निदेशक बना दिया।
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गाडगिल के लिए यहाँ तक पहुँचना आसान नहीं रहा। थी तो इंजीनियरिंग की नौकरी, लेकिन एल एण्ड टी जैसी कंपनी में कुछ काम आता है तो सिर्फ मेहनत और कड़ी मेहनत। गाडगिल इसके लिए कभी घबराए नहीं। कंपनी जहाँ, जिस काम पर भेजती रही वो जाते। इसके लिए उन्हें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता। बस उन्हें लगता कि शौक पूरा हो रहा है और कुछ करने का मौका भी मिल रहा है। वे कहते हैं,

"मुझे कुछ रचने और दुनिया देखने का शौक़ था। अब इस रास्ते में जो कुछ मिला स्वीकार किया। सब से बड़ी चुनौती तो परिवार और काम के बीच समन्वय था। काम की जगह बदलती रहती। पत्नी का समझदार होना ज़रूरी था, किस्मत अच्छी थी सो वह समझ गयी और उन्होंने सब से बड़ी कुर्बानी यह दी कि अपना कैरियर कुर्बान कर दिया। मैं कहीं भी रहूँ, उन्हें विश्वास था कि एल एण्ड टी कंपनी एक फोन कॉल पर हाजिर हो जाती है। जब कोई अपने कर्मचारी का पूरा ख्याल रखता है तो वो चुनौतियाँ स्वीकार करने के लिए तैयार रहता है।"
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गाडगिल के जीवन में यूँ तो बहुत सारी निर्माण एवं ऊर्जा से जुड़ी कंपनियों की स्थापना का चुनौतीपूर्ण कार्य रहा, लेकिन सबसे अधिक चुनौतीपूर्ण कार्य नेपाल में पावर प्लांट स्थापित करना था। जहाँ उन्हें काम करना था, दूर दूर तक कोई सड़क नहीं थी। बल्कि बड़े शहर से उतरकर कई दिन तक पैदल चलना पड़ता। गाडगिल उन यादों को ताज़ा करते हुए कहते हैं,

मुझ से पहले कुछ लोगों ने वहाँ जाने से इन्कार कर दिया था। पावर प्लांट स्थापित करने से इस कार्य के लिए निरीक्षण हेतु जब भी जाना होता, सात दिन तक पैदल चलते जाना पड़ता। कोई सड़क नहीं थी। 4000 टन की सामग्री ऐसे ही लोगों ने पीठ पर और धोड़े या खच्चर पर स्थानांतरित की। जब काम पूरा हुआ तो स्थानीय लोगों की आखों में जो चमक मैंने देखी उससे बढ़कर कोई खुशी या आनंद नहीं हो सकता। उस छोटे से शहर के कई लोगों ने पहली बार बिजली की रोशनी देखी थी। जब परियोजना पूरी हुई और वहाँ के लोग 40 किलोमीटर तक पैदल मुझे छोड़ने के लिए आये।

वहाँ की गरीबी को याद करके अब भी गाडगिल की आँखों में पानी आ जाता है। वो बताते हैं कि कई लोग सपरिवार मज़दूरी करते, बल्कि घर के सारे लोग जिनमें नाती पोती से लेकर दादा दादी और नाना नानी तक जितना वज़न उठा सकते, उठा कर सात दिन की पैदल यात्रा तय करते। ईमानदारी इतनी की यदि कुछ हो भी जाए तो सामान गंतव्य स्थल तक पहुँचाने की चिंता अधिक होती। वे बताते हैं,

 गाँव में आदमी बहुत मासूम रहता है, जब वह शहर आता है तो यहाँ की हवा उससे उसकी मासूमियत छीन लेती है।
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वी. बी. गाडगिल मॉडर्न हैदराबाद के इतिहास में अपना महत्वपूर्ण नाम दर्ज कर चुके हैं। हालाँकि वो मेट्रो रेल परियोजना पूर्ण होने से पूर्व ही इसके मुख्य कार्यकारी अधिकारी का पद छोड़ रहे हैं, लेकिन एल एण्ड टी ने उन्हें हैदराबाद मेट्रो रेल परियोजना का भीष्म पितामह माना है। गाडगिल ने हैदराबाद से काफी लगाव रखते हैं। वे पहली बार साइबराबाद को बसाने हैदराबाद आये थे और दूसरी बार मेट्रो रेल का इतिहास रचने के लिए। इस बहाने उन्होंने जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा यहाँ बिताया है। गाड़गिल ने अपने जीवन के 44 वर्ष इस कंपनी को दिये हैं। साइट इंजीनियर के रूप में उन्होंने अपना कार्यजीवन शुरू किया था और कंपनी के उपाध्यक्ष जैसे उच्च पद तक पहुँचे।

गाडगिल का नाम जब हैदराबाद मेट्रो रेल परियोजना के लिए चुना गया तो वे किसी और परियोजना के प्रमुख थे। अपनी उम्र के 63 साल पूरे कर चुके थे, लेकिन एल एण्ड टी के लिए उन्हें बहुत बड़ा काम करना था। जब वे इसके लिए हैदराबाद आये तो लोगों का उत्साह देखकर उनमें नया विश्वास पैदा हुआ। गाडगिल बताते हैं,

"मुझे मालूम था कि मेट्रो रेल हैदराबाद परियोजना को लेकर लोगों में यह संदेह था कि यह परियोनजा पूरी होगी भी या नहीं। जब मैं पहली बार अजनबी बनकर लोगों से मिलने गया और कुछ फुटपाथों पर और बाज़ारों में इधर उधर लोगों से बात की तो उनमें उत्साह था। एक व्यक्ति ने बड़े विश्वास से कहा कि ...साब एल एण्ड टी ने लिया है तो काम हो जाएगा। हैदराबादियों में इस परियोजना को लेकर काफी उत्साह रहा। चाहे वह खोदा गया पहला गड्ढा हो या फिर पहला स्तंभ या फिर स्तंभों के ऊपर बिछाया जाने वाला पहला स्पैन और वाइडक्टर लोग आ आकर देखते और उत्सुकता जताते। हमने लोगों को असुविधा न हो इसलिए अधिकतर काम रातों में किया। लोगों ने यहाँ भी अपनी उत्सकुता नहीं छोड़ी, पूछते कि रात में छुपके छुपाके क्यों काम हो रहा है। कहीं यह काम ग़लत सलत तो नहीं हो रहा है। एक व्यक्ति ने तो यहाँ तक पूछ लिया कि..क्या इस पर केवल एक ट्रेन जाएगी। उसको समझाना पड़ा कि जो ब्रिज नीचे से छोटा दिख रहा है, ऊपर बड़ा है और दो ट्रेनें आ जा सकेंगी।"
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गाडगिल बताते हैं कि इस परियोजना के बहाने पहली बार उन समस्याओं के साथ जूझना पड़ा, जो नये प्रकार की थीं। चूँकि संपूर्ण परियोजना का कार्य सड़कों के बीचो-बीच चलना था। इसलिए यातायात समस्या गंभीर हो सकती थी। काम शुरू करने से पूर्व संपूर्ण हैदाराबाद के प्रमुख मार्गों का 24 घंटे का यातायात सर्वेक्षण और वीडियो शूटिंग की गयी। कोई भी समय ऐसा नहीं है कि जब ट्रैफिक रूका हो। सवाल पैदा हुआ कि काम कब करें। फिर प्रीकास्टिंग यूनिट की योजना बनायी गयी और इसके लिए किस्मत अच्छी थी कि शहर के उप्पल और मियाँपुर में कुल मिलाकर 140 एकड ज़मीन मिल गयी। कोई सोच भी नहीं सकता कि शहर में इतनी ज़मीन उपलब्ध होगी। अगर यह ज़मीन न मिलती तो शहर से दूर जान पड़ता और काम और मुश्किल होता। सब से दिलचस्प काम पंजागुट्टा फ्लाईओवर के ऊपर काम करना था। बिना यातायात रोके यह काम हुआ और फिर जो काम हुआ इतना खूबसूरत कि विशेषज्ञों ने दूसरी जगहों पर भी इस खूबसूरत काम की रेप्लिका का सुझाव दिया।

गाडगिल बताते हैं कि वे पहली बार एक इंजीनियरिंग छात्र के रूप में नागार्जुन सागर की यात्रा करने के लिए 1968 में हैदराबाद आये थे। अपने मित्रों के साथ काचीगुडा स्टेशन के पास सराय में रुके थे और उस समय ढाई रुपये उस सराय का किराया था। नेहरू ज़ूलोजिकल पार्क उन्हीं दिनों नयी जगह स्थानांतरित हुआ था। जब साइबर टावर बनने के दौरान परियोजना प्रमुख के रूप में 1997 में आये तो हैदराबाद बिलकुल बदल चुका था।

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गाडगिल निजी जीवन में पढने और संगीत सुनने के शौकीन हैं कहते हैं,

- कहानियाँ और उपन्यास पढ़ता हूँ। संगीत सुनने का शौक़ है। तानसेन तो नहीं हूँ, लेकिन कानसेन ज़रूर हूँ। कभी नाटकों में अभिनय किया था अब भी नाटक देखना पसंद करता हूँ।

रिटायरमेंट के बाद गाडगिल कौशल निर्माण के क्षेत्र में काम करने का इरादा रखते हैं। कंस्ट्रक्शन उनका पैशन रहा है, लेकिन वो देखते हैं कि पिछले 25 बरसों में इस क्षेत्र में कौशल की कमी बढ़ती जा रही है। पहले पिता के बाद पुत्र मिस्त्री, कारपेंटर एवं अन्य पेशे अपनाता था। अब ऐसा नहीं रहा। गाडगिल कहते हैं,

"कुशल मिस्त्री या कारपेंटर ढूंढने से भी नहीं मिलता। बल्कि एक दिन जो व्यक्ति मिस्त्री बन कर आता है, दूसरे दिन वही कारपेंट बनकर भी आता है। जो पढें लिखे हैं वे सब टाइ बांधकर मैनेजर बनना चाहते हैं। मैं चाहता हूँ कि कुशल कारीगर इस उद्योग को मिलें। इसके लिए एल एण्ड टी ने भी कुछ स्कूल शुरू किये हैं, लेकिन काम और बहुत होना है। मैं चाहता हूँ कि अपने अनुभव इस उद्योग को वापस लौटाऊँ।"


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