ऐसी हालत में भारत कैसे बनाएगा दूसरी कल्पना, इंदिरा और अमृता
आप जरा दिमाग भिड़ाइए और विश्वस्तरीय भारतीय महिला एकेडेमिक्स के नाम याद करने की कोशिश करिए। आपके दिमाग में कुछ नाम आएंगें फिर सब शून्य।
वो लड़कियां जिनका स्कूल छुड़ाकर घर बैठा दिया गया, उनमें से ही कोई कल की कल्पना चावला बन सकती थी, कोई इंदिरा नुई तो कोई रक्माबाई। लेकिन हमें तो यही सबसे बड़ा टास्क लगता है कि लड़की ज्यादा पढ़ लिख गई, काम करने लग गई तो घर कैसे चलेगा। हमें ये नहीं समझ आता कि अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए देश का कितना बड़ा नुकसान कर रहे हैं।
2011 की जनगणना के अनुसार देश की 48.9 करोड़ की महिला आबादी में मात्र 65.46 प्रतिशत महिलाएं हीं साक्षर थीं। इसका मतलब यह है कि भारत में आज लगभग 16 करोड़ महिलाएं निरक्षर हैं। सैम्पल रजिस्ट्रेशन सिस्टम बेसलाइन सर्वे 2014 की रिपोर्ट के अनुसार भारत के 61 लाख बच्चे अभी प्राइमरी स्कूलों में भी नहीं पहुंच पा रहे हैं, जिसमें लड़कियों की स्थिति तो और भी खराब है। 15 से 17 साल की लगभग 16 प्रतिशत लड़कियां स्कूल बीच में ही छोड़ देती हैं।
लगभग 22 लाख से भी ज्यादा लड़कियों की शादी कम उम्र में हो जाती है, जिससे उनका स्कूल और आगे की पढ़ाई भी छूट जाती है। ऐसे देश में जहां शिक्षा बच्चों का मूल अधिकार है, वहां हर 10 अशिक्षित बच्चों में से 8 लड़कियों का होना शर्म की बात है।
आप जरा दिमाग भिड़ाइए और विश्वस्तरीय भारतीय महिला एकेडेमिक्स के नाम याद करने की कोशिश करिए। आपके दिमाग में कुछ नाम आएंगें फिर सब शून्य। अब विज्ञान के क्षेत्र में आते हैं, यहां भी वही हाल। संगीत, साहित्य, अर्थशास्त्र, रिसर्च हर क्षेत्र में आप भारतीय महिलाओं की उपस्थिति को कम ही पाएंगे। वजह? अपने देश में अब भी लड़कियों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार। वही सदियों पुरानी कट्टर मानसिकता कि लड़कियां तो घर संभालने के लिए बनी हैं, ज्यादा पढ़ लिखकर क्या करेंगी। इस क्रूर चक्र से इस देश की अनगिनत प्रतिभाएं पनपने से पहले ही मसल दी जाती हैं, बांध दी जाती हैं। वो लड़कियां जिनका स्कूल छुड़ाकर घर बैठा दिया गया, उनमें से ही कोई कल की कल्पना चावला बन सकती थी, कोई इंदिरा नुई तो कोई रक्माबाई। लेकिन हमें तो यही सबसे बड़ा टास्क लगता है कि लड़की ज्यादा पढ़ लिख गई, काम करने लग गई तो घर कैसे चलेगा। हमें ये नहीं समझ आता कि अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए देश का किता बड़ा नुकसान कर रहे हैं। हमें ये क्यों नहीं समझ आता कि घर चलाना स्त्री और पुरुष दोनों ही के बराबर हिस्से का काम है।
भारत सरकार ने सभी को शिक्षा प्रदान करने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाई है। बावजूद इसके एशिया महाद्वीप में भारत में महिला साक्षरता दर सबसे कम है। 2011 की जनगणना के अनुसार देश की 48.9 करोड़ की महिला आबादी में मात्र 65.46 प्रतिशत महिलाएं हीं साक्षर थीं। इसका मतलब यह है कि भारत में आज लगभग 16 करोड़ महिलाएं निरक्षर हैं। सैम्पल रजिस्ट्रेशन सिस्टम बेसलाइन सर्वे 2014 की रिपोर्ट के अनुसार भारत के 61 लाख बच्चे अभी प्राइमरी स्कूलों में भी नहीं पहुंच पा रहे हैं, जिसमें लड़कियों की स्थिति तो और भी खराब है। 15 से 17 साल की लगभग 16 प्रतिशत लड़कियां स्कूल बीच में ही छोड़ देती हैं। छतीसगढ़ में 15 से 17 साल की 90.1 प्रतिशत लड़कियां स्कूल जा रही हैं, जबकि असम में यह आकड़ा 84.8 प्रतिशत है. बिहार भी राष्ट्रीय औसत से ज्यादा पीछे नहीं है यहां यह आंकडा 83.3 प्रतिशत है। झारखंड में 84.1 प्रतिशत, मध्यप्रदेश में 79.2 प्रतिशत, यूपी में 79.4 प्रतिशत और उड़ीसा में 75.3 प्रतिशत लड़कियां हाई स्कूल के पहले ही स्कूल छोड़ देती हैं। अगर 10 से 14 साल की लड़कियों की शिक्षा की बात करें तो इसमें गुजरात सबसे निचले पांच राज्यों में आता है। इस निम्न स्तरीय साक्षरता का नकारात्मक असर सिर्फ महिलाओं के जीवन स्तर पर ही नहीं अपितु उनके परिवार एवं देश के आर्थिक विकास पर भी पड़ा है।
अध्ययन से यह पता चलता है कि निरक्षर महिलाओं में सामान्यतः उच्च मातृत्व मृत्यु दर, निम्न पोषाहार स्तर, न्यून आय अर्जन क्षमता और परिवार में उन्हें बहुत ही कम अधिकार प्राप्त होते हैं। महिलाओं में निरक्षरता का नकारात्मक प्रभाव उसके बच्चों के स्वास्थ्य एवं रहन-सहन पर भी पड़ता है। उदाहरण के लिए, हाल में किये गये एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि शिशु मृत्य दर और माताओं की शैक्षणिक स्तर में गहरा संबंध है। इसके अतिरिक्त, शिक्षित जनसंख्या की कमी देश के आर्थिक विकास में बाधा उत्पन्न कर रही है। लगभग 22 लाख से भी ज्यादा लड़कियों की शादी कम उम्र में हो जाती है, जिससे उनका स्कूल और आगे की पढ़ाई भी छूट जाती है। ऐसे देश में जहां शिक्षा बच्चों का मूल अधिकार है, वहां हर 10 अशिक्षित बच्चों में से 8 लड़कियों का होना शर्म की बात है।
लगभग एक तिहाई सरकारी स्कूलों में लड़कियों के लिए शौचालयों की सुविधा नहीं है जिस कारण से लड़कियां बड़ी संख्या में स्कूल छोड़ रही हैं। इंडियास्पेंड द्वारा किए गए विश्लेषण में जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, करीब 12 मिलियन यानि 1.2 करोड़ भारतीय बच्चों का विवाह दस वर्ष की आयु से पहले हो जाता है। इनमें से 65% कम उम्र की लड़कियां हैं और बाल विवाह किए गए हर 10 अशिक्षित बच्चों में से 8 लड़कियां होती हैं। आंकड़ों के अनुसार, प्रति 1,000 पुरुषों की तुलना में कम से कम 1,403 ऐसी महिलाएं हैं जो कभी स्कूल नहीं गई। यूनेस्को ने अपनी एक स्टडी में पाया कि लड़कियों की प्राइमरी स्कूल में उपस्थिति तकरीबन 81 प्रतिशत रहती है, जो सेकेंडरी स्कूल आते-आते घटकर केवल 49 प्रतिशत रह जाती है।
फासला सिर्फ एक सोच बदलने भर का है
अच्छी बात ये है कि साल 2001 और 2011 की जनगणना में तुलना किया जाए तो इन दस सालों में महिला साक्षरता में वृद्धि दर्ज की है। हालांकि ये कोई बहुत गौरवशाली आंकड़ें नहीं है लेकिन फिर भी दिल में एक विश्वास जरूर जगाते हैं कि परिवर्तन संभव है। हम सबको अपनी गति तेज करनी होगी, अपनी रूढ़ियों को उखाड़ फेंक देना होगा। सबेरा होने में बहुत देर नहीं है। हम अच्छा कर रहे हैं, हमें और अच्छा करना है। बेहतरी के लिए एक एक कदम सबको उठाना होगा, हम सबकी बेहतरी के लिए। सरकारें योजनाएं चलाएंगी लेकिन उनके क्रियान्वयन के लिए हमें उठ खड़ा होना होगा। हमें अपनी सोच को परिवर्द्धित करना होगा। हम सबकी, इस समाज की सोच का दरवाजा खटखटाने में कई सारी स्वयंसेवी संस्थाएं जुटी हुई हैं।
हमने बात की ऐसे ही दो स्वयंसेवी संस्थाओं से जो लड़कियों की शिक्षा के लिए उम्दा काम कर रही हैं। दिल्ली बेस्ड एक एनजीओ है, 'रोशनी'। इनका नारा है, अंधकार जहां रोशनी वहां। टीम रोशनी दिल्ली के सरकारी स्कूलों से बातचीत करके वहां वर्कशॉप का आयोजन करती है। इन वर्कशॉप्स का मकसद होता है, बच्चों को रोजगार के लिए सही दिशा-निर्देशित करना, उनके मन की उलझनों को सुनना समझना। लड़कियों की शिक्षा पर टीम रोशनी की खासी नजर रहती है, क्योंकि उनका मानना है कि लड़कियों पर परिवार और रिश्तेदारों का काफी दवाब रहता है। जागरूकता के अभाव में उनके घरवाले उनकी जल्द शादी कर देते हैं। ऐसे में टीम रोशनी लड़कियों की खास काउंसलिंग करती है, उनके घर वालों से बात करके उन्हें समझाती है।
आत्मविश्वास से लबरेज जैनब की कहानी
ऐसा ही एक उदाहरण हमारे साथ साझा किया रोशनी की प्रोजेक्ट मैनेजर अस्मीत ने। वो बताती हैं, एक लड़की है जैनब (परिवर्तित नाम)। जैनब ने दो साल तक उसके सरकारी स्कूल में रोशनी प्रोग्राम में प्रतिभाग किया। वो एक संयुक्त परिवार से है। उसके पिता धोबी और मां घर के कामकाज देखती हैं। उसके घर के सारे निर्णय उसकी दादी लेती हैं। वो अपने परिवार की पहली लड़की है जो आगे की पढ़ाई कर पा रही है वरना अब तक कोई भी लड़की यूनिवर्सिटी की चौखट नहीं पार कर पाई। उसने 11वीं में विज्ञान चुना क्योंकि वो आगे चलकर एक डॉक्टर बनना चाहती थी। लेकिन परिवार की माली हालत, रिश्तेदारों के हर रोज के तानों से हारकर उसे एक ही महीने के भीतर अपने विषय बदलने पड़े। उसे आर्ट्स सब्जेक्ट चुनकर दूसरे स्कूल में एडमिशन लेना पड़ा। इन सब बदलावों और निराशा से जैनब बहुत उदास रहने लगी। इसी मानसिक ऊहापोह के बीच जैनब रोशनी प्रोग्राम के वर्कशॉप में आई। रोशनी के सानिध्य में जैनब को आर्ट्स फील्ड में कई सारी अपॉर्चुनिटी के बारे में पता चला।
जैनब में दोबारा आत्म विश्वास का संचार होने लगा और वो अपने तनाव से भी उबरने लगी। आज वो अपनी उन सारी चचेरी, ममेरी, फुफेरी बहनों के लिए आदर्श है जो कल तक उसे चिढ़ाती थीं, ताने देती थीं कि पढ़ लिखकर क्या होगा, आगे तो चूल्हा चौका ही करना है। जैनब ने 12वीं की परीक्षा में 92.4% अंक लाकर अपने मां-बाप का सिर गर्व से ऊंचा कर दिया। अपनी बिटिया की इस कामयाबी और पढ़ाई के लिए लगन देखकर उसे आगे पढ़ने की इजाजत दे दी गई। चूंकि घर के सारे बड़े निर्णय दादी लेती हैं और दादी लड़कियों के ज्यादा पढ़ाई-लिखाई करने की सख्त खिलाफ रहती थीं तो इस मुकाम तक पहुंचना काफी मुश्किल था। जैनब ने अपनी दादी को बड़े प्यार और यकीन से समझाया कि आगे की पढ़ाई कैसे उसके व्यक्तित्व निर्माण में मदद करेगी। अच्छी बात ये है कि जैनब की मां काफी सपोर्टिव रहीं। किसी भी और मां की तरह वो भी अपनी बिटिया के सपनों की उड़ान में भरपूर सहयोग देना चाहती थीं। वो चाहती थीं कि जैनब अपने पैरों पर खड़ी हो। जैनब की दादी को मनाना एक टफ टास्क था। टीम रोशनी जैनब के घर उसकी दादी से बात करने गई। आखिरकार जैनब की दादी मान गईं। जैनब अब दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित किरोड़ीमल कॉलेज से अंग्रेजी में बीए ऑनर्स कर रही है। इसके साथ ही वो अपने कॉलेज के एनएसएस और वीमेन सेल में एक्टिवली पार्टिसिपेट कर रही है। ग्रेजुएशन करने के बाद जैनब सोशल वर्क में मास्टर्स करना चाहती है। जो लोग जिंदगी से अपनी जंग लड़ रहे हैं जैनब उनकी मदद करना चाहती है।
शिक्षा का हक, बराबरी का हक
टीम रोशनी के इस काबिल और नेक काम के लिए हमने उन्हें धन्यवाद बोला और एक और एनजीओ की तरफ बढ़ गए। इस एनजीओ का नाम है अंकुर। अंकुर दिल्ली में अपने पांच जगहों पर सक्रिय है। अंकुर का मुख्य उद्देश्य है, लड़कियों और लड़कों को बराबरी का हक दिलाना और बाल मजदूरी को समाज से उखाड़ फेंकना। ऐसा देखा गया है कि तेरह-चौदह की उम्र आते-आते लड़कियों पर तमाम बंदिशें लगनी शुरू हो जाती हैं। जो तमाम खेल और गतिविधियां वो करती आई थीं, अचानक उनको लड़कों वाली चीज बताकर करने से मना कर दिया जाता है। उनको घर के कामों को सीखने की हिदायत दी जाने लगती है। कंप्यूटर, इलेक्ट्रॉनिक सामानों पर लड़कों का आधिपत्य स्वीकार करने को बोला जाता है। अंकुर इसी मानसिकता के खिलाफ खड़ा हुआ है।
अंकुर अपने सेंटरों में समय-समय पर ऐसी एक्टिविटीज करवाता है, जिसको समाज ने सिर्फ लड़कों वाली चीज बना रखा है। टीम अंकुर ने लड़कियों से उनके बचपन के दोस्तों के बारे में कहानियां भी लिखने को कहा जाता है जिनसे किशोरावस्था में बात करने तक से मनाही हो गई है। वो पतंगबाजी के सेशन करवाता है, जिसमें लड़कियां न सिर्फ पतंग बनाती हैं बल्कि खूब पेंच भी लड़ाती हैं। टीम अंकुर लड़कियों के उन सारे बचपन के दोस्तों को इकट्ठा करवाती है, जिनको किशोरावस्था में उनके परिवारवालों ने इसलिए दूर कर दिया था क्योंकि वो लड़के थे। वो सारे लड़के-लड़कियां आपस में वैसे ही बात करने लगे हैं जैसा कि वो बचपन में करते थे। टीम अंकुर का मानना है कि इससे एक स्वस्थ समाज का निर्माण होगा। इसके अलावा अंकुर के सेंटरों में लड़कियों को प्रोफेशनल स्किल भी सीखने की प्रेरणा भी दी जाती है, जैसे कंप्यूटर प्रोग्रामिंग, टैली, स्पोकेन इंग्लिश। अंकुर लड़कियों को सिखाता है कि केवल सिलाई-कढ़ाई ही नहीं, बहुत सारे ऐसे विकल्प हैं जिनमें लड़कियां अपना करियर जमा सकती हैं।
अंकुर के सुंदरनगरी टीम की संवादक आंचल ने हमें एक सुंदर सी केसस्टडी सुनाई, एक लड़की हमारे संटर पर आती थी काजल। उम्र 10 साल थी और छठी क्लास में पढ़ती थी। लगभग 3 महीने पहले जब मैं काजल से मिली तब वो बहुत सहमी-सहमी रहती और हिचक कर बात करती थी। उसके सांवले रंग और पुराने कपड़ों के लिए स्कूल की बाकी की लड़कियां उसे बहुत चिढ़ाती थीं। फिर मैंने भी कुछ लड़कियों से बात की तो उन्होंने भी यही बताया। धीरे धीरे मैंने काजल से ढेर सारी बातें करना शुरू किया, मैं उसे बालों में तेल लगाकर अच्छे से रहने को कहती। 'आज तो तुम बहुत अच्छी लग रही हो', इस तरह की बातों से उसका कॉन्फिडेंस बढ़ाने की कोशिश करती। फिर काजल ने स्कूल में समर वर्कशॉप में हिस्सा लिया और आखिरी दिन वो सर्टिफिकेट लेकर हमारे पास ही आयी। उसे बहुत खुशी थी कि उसने अपने पापा को दिखाने के लिये एक उपलब्धि हासिल की है। अब काजल काफी ऐक्टिविटीज में हिस्सा लेती है और लीडर की भूमिका में भी नजर आती है। मेरे कुछ समझाने के बाद अगर दुबारा समझाने की जरूरत पड़ी, तो काजल ही पहली लड़की होती है जो कहती है , दीदी मैं समझाऊं? उसके इस आत्मविश्वास को देखकर हमें विश्वास होने लगता है कि बदलाव संभव है।
तो आप भी अपनी सोच बदलिए। लड़के-लड़कियों को शिक्षा के, आगे बढ़ने के समान अवसर दीजिए। आप अपनी आशंकाएं उन पर थोपिए। डरिए मत। लड़कियां कहीं से भी कमजोर नहीं हैं। न ही वो केवल घर का कामकाज करने के लिए बनी हैं। झाड़ू-पोछा-बर्तन, खाना बनाना, कपड़े धोना, ये सब बड़े बेसिक से काम हैं। ये हर इंसान को अपने लिए खुद करना चाहिए। जरा सोचिए, इतने से काम के लिए आप देश की महान प्रतिभाओं को दबा देते हैं। ये किसका नुकसान है? बेशक आपका, हमारा, हम सबका।
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