गुलशन बावरा पर कभी हावी नहीं हुई विभाजन की त्रासदी
हिंदी फिल्मों में लगभग ढाई सौ गीत लिखने वाले कवि गुलशन बावरा आज (7 अगस्त) ही के दिन वर्ष 2009 में दुनिया छोड़ गए थे। उनको पहली सफलता 1957 में फ़िल्म 'सट्टा बाज़ार' के गीत से मिली। उनकी आंखों के सामने ही उनके माता-पिता को मार डाला गया था पर उन भर भारत विभाजन की त्रासदी कभी हावी नहीं हुई।
आज जब हम सिनेमा और साहित्य के बारे में बात करते हैं, तब हमें इस तथ्य पर भी विचार करना चाहिए कि आखिर क्या वजह है कि दुनिया की सर्वश्रेष्ठ फिल्में पश्चिम से नहीं आ रही हैं, बल्कि छोटे देशों से आ रही रही हैं।
'मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे-मोती, ..मेरे देश की धरती।' अपने 49 साल के रचनात्मक सफर में ऐसे लगभग ढाई सौ गीत लिखने वाले कवि गुलशन बावरा (गुलशन कुमार मेहता) आज (07 अगस्त) ही के दिन वर्ष 2009 में दुनिया छोड़ गए थे। उनकी इच्छानुसार उनका पार्थिव शरीर मुंबई के जेजे अस्पताल को दान कर दिया गया था। कहते हैं, जब बावरा साहब रेलवे में नौकरी कर रहे थे, प्रायः पंजाब से गाड़ियों में लदी गेहूँ की बोरियाँ उतरते देखा करते थे। उसी से उनको अपना वह मशहूर गीत लिखने की प्रेरणा मिली थी। विभाजन के दिनो में लाहौर से भारत लौटते समय उन्होंने ट्रेन में अपनी आंखों के सामने दंगाइयों द्वारा पिता का सिर तलवार से कलम होते, माँ को गोली से उड़ाए जाते देखा था। भाई के साथ भागकर जयपुर पहुंचने पर बहन ने उनकी परवरिश की थी। उन्होंने जीवन के हर रंग के गीतों को अल्फाज दिए। आइए, आज गुलशन बावरा के बहाने ही साहित्य और सिनेमा के तारतम्य से गुजर लेते हैं।
फिल्मों के लिए गीत लिखने वाले रचनाकारों के बारे गंभीर साहित्यकार और बुद्धिजीवी अक्सर नाक-भौंह नचाने लगते हैं लेकिन सृजन और जनसरोकार की दृष्टि से उनके शब्दों की पहुंच का विस्तृत दायरा किसी को भी ऐसी धारणा बदलने के लिए विवश कर सकता है। यह भी सुखद लगता है कि अज्ञेय की कुछ कविताओं के बांग्ला और अंग्रेजी अनुवाद का पाठ बांग्ला फिल्मों के चर्चित अभिनेताओं और अभिनेत्रियों ने किया। फिल्मी दुनिया में काम करने के लिए तो मुंशी प्रेमचंद भी पहुंचे थे। ये अलग बात है कि वहाँ का हवा-पानी उन्हें रास नहीं आया। गीतकार गोपाल सिंह नेपाली, कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु, प्रतिष्ठित कवि कुंवर नारायण, गुलजार, जावेद अख्तर, कैफी आजमी, हसरत जयपुरी, साहिर लुधियानवी आदि के फिल्मी सृजन पर भला कैसे कोई सवाल उठा सकता है। हिंदी भारत ही नहीं भारत के मुख्य सिनेमा की भी भाषा है। विश्व में हिंदी सिनेमा ही भारतीय सिनेमा का प्रतिनिधित्व करता है। हिंदी की साहित्यिक कृतियों पर तमाम फिल्में बनी हैं। ये दीगर बात है कि उनमें ज्यादातर लोकप्रियता की दृष्टि से ज्यादा सफल नहीं रहीं।
सिनेमा और साहित्य दो पृथक विधाएँ हैं लेकिन दोनों का पारस्परिक संबंध बहुत गहरा है। जब कहानी पर आधारित फिल्में बनने की शुरुआत हुई तो इनका आधार साहित्य ही बना। भारत में बनने वाली पहली हिंदी फीचर फिल्म दादा साहब फाल्के ने भारतेंदु हरिशचंद्र के नाटक 'हरिशचंद्र' पर बनाई थी। आज जब हम सिनेमा और साहित्य के बारे में बात करते हैं, तब हमें इस तथ्य पर भी विचार करना चाहिए कि आखिर क्या वजह है कि दुनिया की सर्वश्रेष्ठ फिल्में पश्चिम से नहीं आ रही हैं, बल्कि छोटे देशों से आ रही रही हैं। उनके सामने महँगी और भव्य तकनीक की बाढ़ में बह जाने का खतरा है, लेकिन वे इसकी क्षतिपूर्ति महानतर सिनेमा के निर्माण से कर लेते हैं। यह खुशी, मनोरंजन और उत्थान की रचना के आसपास पहुँचता है, जो काम साहित्य अब तक करता रहा है और आगे भी करता रहेगा।
हिंदी फिल्मों को मौजूदा परिदृश्य बहुत बदल चुका है हर तरह की फिल्में बन रही हैं। विषयों में इतनी विविधता पहले कभी नहीं दिखाई दी। छोटे बजट की फिल्मों का बाजार भी फूल-फल रहा है। साहित्यिक कृतियों पर फिल्म बनाने की समझ रखने वाले युवा हिंदी भाषी फिल्मकारों की जमात तैयार हो चुकी है लेकिन फिलहाल हिंदी फिल्में पत्रकारिता से फायदा उठा रही हैं। अभी जोर बायोग्राफिकल फिल्में बनाने पर अधिक है। शायद अगला नंबर साहित्यिक कृतियों का हो लेकिन जरूरी नहीं वे कृतियाँ हिंदी साहित्य की हों।
आजकल की फिल्मों पर गुलशन बावरा की बड़ी तल्ख टिप्पणी किया करते थे। वह कहते थे- 'मेरी बर्दाश्त से बाहर हैं नई फ़िल्में। मैं गाने लिख-लिखकर रखता था। फिर कहानी सुनने के बाद सिचुएशन के अनुसार गीतों का चयन करता था। कहानी के साथ चलना ज़रूरी है तभी गाने हिट होते हैं। आज किसे फुर्सत है कहानी सुनने की? और कहानी है कहाँ? विदेशी फ़िल्मों की नकल या दो-चार फ़िल्मों का मिश्रण। कहानी और विजन दोनों ही गायब हैं फ़िल्मों से। गीतों में भावना नहीं है और संगीत में आत्मा। अब हमें पूछने वाला कौन है? जो प्रतिष्ठा और सम्मान मैंने पुराने गीतों को रचकर हासिल किया था, क्या वह आज चल रहे सस्ते गीत और घटिया धुनों के साथ बरकरार रखा जा सकता है?' सारा जीवन गुलशन बावरा चुस्त-दुरुस्त रहे। कोई बीमारी न हुई। सुबह-शाम घूमने का खूब शौक था। रात को समय पर खाना खाकर सो जाते थे। वह दिखने में दुबले-पतले लेकिन व्यक्तित्व हंसमुख था। वे कवि से ज्यादा कॉमेडियन दिखाई देते थे। इस गुण के कारण कई निर्माताओं ने उनसे अपनी फ़िल्मों में छोटी-छोटी भूमिकाएँ भी अभिनीत करवायीं लेकिन विभाजन का दर्द उन्होंने कभी किसी के सामने जाहिर नहीं होने दिया। उनको पहली सफलता 1957 में फ़िल्म 'सट्टा बाज़ार' के गीत से मिली -
'तुम्हें याद होगा कभी हम मिले थे, मोहब्बत की राहों में मिल कर चले थे,
भुला दो मोहब्बत में हम तुम मिले थे, सपना ही समझो कि मिल कर चले थे।
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