कोलकाता को ‘सिटी ऑफ लिटरेचर’ मानने की यूनेस्को से पहल
इसे भारतीय भाषा-साहित्य का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या कहा जा सकता है कि सरकारों, ज्यादातर साहित्यकारों, साहित्यिक संस्थाओं को यूनेस्को की ‘सिटी ऑफ लिटरेचर’ योजना का पता ही नहीं। जिन्हे पता है, उनकी इसमें दिलचस्पी नहीं लगती। हां, कोलकाता के लोग वर्षों से इस दिशा में जरूर प्रयासरत हैं।
विश्व पटल पर एशिया में सबसे पहला नोबेल पुरस्कार कोलकाता के रवींद्रनाथ ठाकुर को ही मिला था। उर्दू के प्रसिद्ध शायर मिर्जा गालिब यहां वर्षों तक रहे। कोलकाता को इस बात का भी श्रेय दिया जा सकता है कि बांग्ला के साथ ही हिंदी, अंग्रेजी, गुजराती, मैथिली, उड़िया, पंजाबी और उर्दू के भी कई जाने-माने लेखकों को यहां से प्रतिष्ठा मिली।
कोलकाता को भारत की पहली ‘साहित्य नगरी’ (सिटी ऑफ लिटरेचर) घोषित करने की अपनी मांग पर यूनेस्को का ध्यान आकर्षित करने के प्रयास में शहर के उत्तरी इलाके में इन दिनो दुर्गा पूजा के आयोजकों ने ‘कविगुरु शांतिनीर’ या टैगोर के ‘शांति निकेतन’ की थीम पर पूजा पंडाल बनाए हैं। चलता बगान दुर्गा पूजा समिति ने अपने 76 साल पूरे होने पर इस साल यूनेस्को का ध्यान खींचने के लिए इस अनूठी थीम के साथ पंडाल बनाया है। समिति का कहना है कि कोलकाता न सिर्फ ‘सिटी ऑफ जॉय’ है बल्कि ‘सिटी ऑफ लिटरेचर’ भी है। समिति अध्यक्ष संदीप भूटोरिया ने कहा है कि पिछले साल चलता बगान ने पूजा में बंगाल के प्रमुख लेखकों और कवियों को आमंत्रित किया था। इस वर्ष टैगोर थीम चुनी गई है क्योंकि वे चाहते हैं कि यूनेस्को कोलकाता को भारत का पहला ‘सिटी ऑफ लिटरेचर’ घोषित करे, जिसके लिए प्रयास शुरू हो चुके हैं। भूटोरिया का व्यक्तिगत मत है कि साहित्यिक विरासत, विविधता और समृद्धि को देखते हुए, कोलकाता यूनेस्को द्वारा दी जाने वाली इस तरह की मान्यता के लिए सबसे मजबूत दावेदारों में से एक है।
दुनिया के चुनिंदा शहरों मिलान (इटली), एडिनबर्ग (स्कॉटलैंड), आयोवा सिटी (अमेरिका), मेलबॉर्न (ऑस्ट्रेलिया), डबलिन (आयरलैंड), क्रेकोव (पोलैंड), हीडलबर्ग (जर्मनी), क्यूबेक (कनाडा), प्राग (चेक गणराज्य), बगदाद (इराक), बार्सिलोना (स्पेन), डुनेडिन, ग्रेनाडा, लूबिजाना, मोंटेवीडियो, नॉटिंघम,ओबिडोस, तार्तू, उल्यानोवस्क, रिक्जाविक, नॉर्विच आदि में वहां के लेखकों के स्मारक, वहां पर लिखी गईं एवं प्रकाशित पुस्तकें, वहां की साहित्यिक संस्थाएं और वहां की साहित्यिक गतिविधियों के कारण यूनेस्को ने पिछले कुछ वर्षों में उनको ‘साहित्य का विश्व शहर’ घोषित किया है। इन शहरों में कुछ ऐसे भी हैं, जिनका किसी ने शायद कभी नाम भी न सुना हो या साहित्यिक दृष्टि से उन्हें कोई महत्व न दिया गया हो। वहां के प्रकाशन संस्थान, पुस्तकालय, पुस्तकों की दुकानें, साहित्यिक समारोह और साहित्यिक गतिविधियों के कारण यूनेस्को ने उन्हें इस ‘साहित्य का विश्व शहर’ की सूची में शामिल किया है।
यूनेस्को द्वारा संचालित ‘यूनेस्को क्रिएटिव सिटीज नेटवर्क’ इन साहित्यिक शहरों का चुनाव करती है। इसे भारतीय भाषा-साहित्य का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या कहा जा सकता है कि ज्यादातर भारतीय साहित्यकारों, हमारी सरकारों और साहित्यिक संस्थाओं को यूनेस्को की इस योजना का पता ही नहीं है। जिन्हे पता है, उनकी इसमें कोई दिलचस्पी नहीं लगती है। क्या हिंदी भाषा-साहित्य को केंद्र में रखकर इलाहाबाद, पटना, लखनऊ, वाराणसी, भोपाल, दिल्ली, जयपुर जैसे शहरों, मराठी भाषी मुंबई या पूना, गुजराती भाषी अहमदाबाद अथवा बड़ौदा आदि के नाम प्रस्तावित नहीं किए जा सकते हैं? बांग्लाभाषी तो इस दिशा में पहल कर चुके हैं।
लगभग डेढ़ दशक पूर्व 14 अक्तूबर, 2004 को यूनेस्को ने एडिनबर्ग को ‘साहित्य का पहला विश्व शहर’ चुना, तो इस पर पूरे विश्व में तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं हुईं। कुछ लोगों ने उसकी तुलना में लंदन, पेरिस, न्यूयॉर्क, डबलिन वगैरह को ज्यादा उपयुक्त माना। इसका कारण एडिनबर्ग के नाट्यगृह, प्रकाशन संस्थान, अंतरराष्ट्रीय प्रसिद्धि के वार्षिक पुस्तक मेले, साहित्यिक संस्थाएं और इन सबसे भी अधिक वहां के लोगों का साहित्य-प्रेमी होना था। भारत में कथित विकास और टेक्नोलॉजी के अंधड़ में आधुनिक दौर के साहित्यिक नक्शे पर ऐसे शहर चिह्नित करना कुछ मुश्किल सा भी हो चला है, जिसे ‘साहित्य का विश्व शहर’ घोषित किए जाने का दावा हो सके। वाराणसी और इलाहाबाद भले ही कभी हिंदी साहित्य के गढ़ रहे हों, पर अब वह स्थिति नहीं है। जहां तक दिल्ली की बात है, भले ही वहां से राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाएं छप रही हों, कई हिंदी साहित्यकार और प्रकाशक भी हैं, मगर उसे ‘साहित्य के विश्व शहर’ का दर्जा दिलाने में वहां के लोगों की भी कोई खास दिलचस्पी सामने नहीं आई है।
जहां तक भारतीय महानगर कोलकाता की बात है, इस समय वहां से प्रकाशित होने वाली लगभग 3,400 नियमित पत्रिकाओं में 1,581 बांग्ला, 978 अंग्रेजी, 362 हिंदी, 110 उर्दू और बाकी अन्य भाषाओं की हैं। कुछ पत्रिकाएं द्विभाषी भी हैं। विश्व पटल पर एशिया में सबसे पहला नोबेल पुरस्कार कोलकाता के रवींद्रनाथ ठाकुर को ही मिला था। उर्दू के प्रसिद्ध शायर मिर्जा गालिब यहां वर्षों तक रहे। कोलकाता को इस बात का भी श्रेय दिया जा सकता है कि बांग्ला के साथ ही हिंदी, अंग्रेजी, गुजराती, मैथिली, उड़िया, पंजाबी और उर्दू के भी कई जाने-माने लेखकों को यहां से प्रतिष्ठा मिली। चार्ल्स बादलेयर की बराबर इच्छा रही कि वह यहां आएं और मार्क ट्वेन तो यह शहर छोड़ना ही नहीं चाहते थे। किपलिंग और मैकाले के साथ ही गिंसबर्ग और गुंटर ग्रास का भी यह शहर प्रेरणा-स्थल रहा है लेकिन कोलकाता की असली पात्रता इस आधार पर बनती है कि वहां के साहित्य ने दुनिया भर की अन्य भाषाओं के साहित्य को प्रभावित किया है।
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