130 साल पहले इंग्लैंड में सांसद चुने गए थे दादा भाई नैरोजी, क्या ऋषि सुनक कल बन पाएँगे पीएम?
दादा भाई नैरोजी भारतीय इतिहास के पहले पार्लियामेंटेरियन हैं. 1892 में एक लिबरल सांसद के तौर पर ब्रिटिश संसद में पहुँचने वाले नैरोजी उससे पहले बॉम्बे विधान परिषद के सदस्य रह चुके थे. स्वराज की माँग पहली बार रखने वाले नैरोजी का आज जन्म दिन है.
भारतीय मूल के ऋषि सुनक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में हैं, कंजर्वेटिव पार्टी में बोरिस जॉनसन का उत्तराधिकारी चुनने के लिए वोटिंग हो चुकी है. नतीजा कल आना है. जॉनसन के इस्तीफ़े के बाद से ही दुनिया भर में चर्चा रही है कि क्या ब्रिटेन का अगला प्रधानमंत्री भारतीय मूल का हो सकता है? ब्रिटेन और भारत का जो इतिहास रहा है उसमें ऋषि सुनक का प्रधानमंत्री चुना जाना एक ऐतिहासिक क्षण होगा, ठीक वैसा ही जैसा अमेरिका में 2008 में बराक ओबामा का राष्ट्रपति चुने जाने का क्षण था.
इस अवसर पर उस शख़्स की याद आती है जिसका आज से ठीक 197 साल पहले जन्म हुआ था और जो ब्रिटिश सांसद बनने वाला पहला दक्षिण-एशियाई था. ‘द ग्रैंड ओल्ड मैन ऑफ इंडिया’- दादा भाई नैरोजी. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापक सदस्यों में से एक, बाल गंगाधर तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले और मोहनदास करमचंद गांधी के मेंटर, आज़ादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले, ‘स्वराज’ की साहसिक मांग रखने वाले दादाभाई नैरोजी ने कहीं न कहीं ऋषि सुनक की प्रबल दावेदारी की नीवं रख दी थी.
दादा भाई नैरोजी जब ब्रिटेन में सांसद चुने गए तब यह बात कल्पना से भी परे थी कि ब्रिटिश हुकूमत के गुलाम भारत से यू.के. के हाउस ऑफ कॉमंस में भारत का एक व्यक्ति वहाँ की संसद के भीतर से देश की आज़ादी के लिए आवाज़ बुलंद करेगा. उन्होंने भारत की गरीबी के पीछे ब्रिटिश नीतियों को जिम्मेदार ठहराया. नैरोजी ने एक कानून के जरिए भारतीयों के हाथ में सत्ता लाने का प्रयास भी किया. संसद सदस्य रहने के दौरान ही उन्होंने महिलाओं को वोट देने के अधिकार का समर्थन किया और बुजुर्गों को पेंशन और हाउस ऑफ लॉर्ड्स को खत्म करने जैसे मुद्दों को भी जोर-शोर से उठाया.
4 सितंबर 1825 को बॉम्बे [अब मुंबई] में जन्मे दादाभाई नैरोजी ने एल्फिंस्टन कॉलेज से पढ़ाई की थी. बाद में इसी संस्थान में पढ़ाने भी लगे. 1855 में कामा एंड कंपनी के हिस्सेदार के रूप में दादाभाई नैरोजी इंग्लैंड गए. इस तरह दादाभाई नैरोजी पहले ऐसे व्यक्ति भी बने जिन्होंने ब्रिटेन में किसी भारतीय कंपनी को स्थापित किया.
स्वराज एक साहसिक मांग थी. मानव इतिहास के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य से उसके ग़ुलाम यह अधिकार कैसे ले सकते हैं? कुछ आयरिश राष्ट्रवादियों के मॉडल की तर्ज़ पर उनका मानना था कि भारत को वेस्टमिंस्टर में सत्ता के हॉल के भीतर से राजनीतिक परिवर्तन की मांग करनी चाहिए. 1886 में नैरोजी पहली बार हाउस ऑफ कॉमंस के चुनावों में खड़े हुए. उन्होंने सेंट्रल लंदन की होल्बर्न सीट से चुनाव लड़ा, लेकिन हार गए. उनके लिए लड़ना ज़रूरी था. 1892 में एक बार फिर वे चुनाव में खड़े हुए. इस बार सेंट्रल फिंस्बरी से. उस क्षेत्र में ज्यादातर कामकाजी लोग रहा करते थे और भारतीयों के प्रति संवेदना रखते थे. नैरोजी प्रगतिशील मुद्दों के साथ चुनाव लड़ रहे थे, उनके एजेंडे में मज़दूरों की माँगों के साथ-साथ अमेरिकी साम्राज्यवाद-विरोधी अफ्रीकी-अमेरिकियों और काले ब्रिटिश आंदोलनकारियों के मुद्दे भी थे और उन्होंने उन्हें भी साथ लिया. उन्होंने ऐलान किया कि भारत को स्वराज की ज़रूरत थी और यही देश से बाहर जाते धन को रोकने का ज़रिया था, जिसे हम ‘ड्रेन थ्योरी’ के नाम से जानते हैं.
ये उस दौर का इंग्लैंड है जो भारतीयों पर अपने शाषण को सही ठहराता था. दादा भाई नैरोजी पर कई रंगभेदी टिप्पणियां की गईं. प्रधानमंत्री लॉर्ड सेलिस्बरी तक ने यह कह दिया था कि ब्रिटेन के लोग कभी भी एक काले भारतीय को अपना नेता नहीं चुनेंगे.
आज का दौर अलग है. भारत आजाद है और इंग्लैंड भी पहले की अपेक्षा एक बेहतर देश है. भारतीय मूल का एक व्यक्ति प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में शामिल है. अगर सुनक इसमें कामयाब हुए तो वो ब्रिटेन के पहले भारतीय मूल के और काली नस्ल के प्रधानमंत्री होंगे. ऋषि सुनक से पहले भी दक्षिण एशिया के मूल के नेता बड़े पदों पर आए हैं. वो मंत्री भी बने हैं और मेयर भी, जैसे कि प्रीति पटेल गृहमंत्री हैं और सादिक़ खान लंदन के मेयर हैं.
ये गौरतलब बात है कि ग़ुलाम भारत के ब्रिटिश सांसद दादाभाई नैरोजी लिबरल पार्टी के प्रत्याशी थे और आजाद भारत के सांसद और प्रधानमंत्री की रेस में शामिल ऋषि सुनक कंज़र्वेटिव पार्टी के अहम् नेता और प्रत्याशी हैं जिनकी पार्टी का शाही इतिहास पर अस्पष्ट दृष्टिकोण है और Brexit को लेकर अड़ियल रवैया.
बहरहाल, 6 जुलाई 1892 को नैरोजी हाउस ऑफ कॉमंस के सदस्य बनने में कामयाब रहे. उनका कार्यकाल हालांकि 3 साल का ही रहा. वे 1895 और 1907 का भी चुनाव लडे, पर जीत नहीं पाए. उसके बाद उन्होंने इंग्लैंड छोड़ दिया और भारत आए जहाँ उन्होंने आज़ादी की लड़ाई में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की.
दादा भाई नैरोजी की मृत्यु 30 जून साल 1917 में हुई. जब नैरोजी ने सार्वजनिक रूप से 1900 के दशक में स्वराज की मांग शुरू की, तो उनका मानना था कि इसे पाने में कम से कम 50 से 100 साल लगेंगे, उससे थोड़ा कम ही वक़्त लगा लेकिन भारत को अपना स्वराज हासिल करता हुआ देखने के लिए वे दुनिया में नहीं थे.