देश का पहला स्कूल जो कर रहा है बुज़ुर्ग महिलाओं को शिक्षित, किताबें पढ़ने से लेकर हस्ताक्षर करना सीख रही हैं ‘दादियाँ’
इस खास स्कूल में पढ़ने वाली सभी महिलाओं की उम्र 60 से 90 वर्ष के बीच है और शिक्षा को लेकर उनका उत्साह वाकई में देखने लायक है।
"योगेन्द्र बांगर के इस खास स्कूल में पढ़ने वाली 'दादियां' घरों में अपने पोते-पोतियों के साथ भी पढ़ाई करती हैं। इस दौरान वे एक दूसरे के पाठ को पढ़ते हैं और एक दूसरे को कविताएं सुनाते हैं। संस्थापक योगेंद्र की इस पहल को भारत समेत दुनिया के तमाम देशों में पहचान मिली है और कई विदेशी इसे देखने भी आये हैं।"
कहते हैं पढ़ने-लिखने की शुरुआत कभी भी, किसी भी उम्र में की जा सकती है और इस बात पर मुहर महाराष्ट्र के ठाणे जिले के फंगाने जिले में स्थित एक खास स्कूल लगा रहा है, जहां आपको गुलाबी साड़ी पहने हुए कई वृद्ध महिलाएं पढ़ाई करती हुई नज़र आ जाएंगी। इस स्कूल की सबसे खास बात यह है कि यहाँ पढ़ने वाली सभी महिलाओं की उम्र 60 से 90 वर्ष है, जो यहाँ मन लगाकर लिखना और पढ़ना सीख रही हैं। यह देश का पहला ऐसा स्कूल हैं जो इस तरह से वृद्ध महिलाओं को शिक्षित करने का काम कर रहा है।
इस स्कूल में पढ़ाई कर रही ये 'दादियां' अपने घरों में अपने पोते-पोतियों के साथ भी पढ़ाई करती हैं। इस दौरान वे एक दूसरे के पाठ को पढ़ते हैं और एक दूसरे को कविताएं सुनाते हैं। इस खास स्कूल के संस्थापक योगेन्द्र बांगर की इस पहल को भारत समेत दुनिया के तमाम देशों में पहचान मिली है और कई लोग विदेशों से इसे देखने के लिए इस खास स्कूल तक भी आए हैं।
इसकी शुरुआत कैसे हुई इस पर योरस्टोरी से बात करते हुए योगेंद्र कहते हैं,
“गाँव में धार्मिक अनुष्ठान होते रहते हैं, ऐसे ही एक अनुष्ठान में एक दिन कुछ बुजुर्ग महिलाएं मेरे पास आईं और उन्होने यह विचार सामने रखा कि यदि वे भी पढ़ सकती तो उनके लिए बेहतर होता। तब यह विचार मेरे मन में आया कि इस दिशा में कुछ करना चाहिए।”
विश्व महिला दिवस पर हुई शुरुआत
योगेंद्र ने 8 मार्च को महिला दिवस के मौके पर ये खास आजीबायची शाला (‘दादी माँ का स्कूल’) शुरू करने का फैसला किया। नेक विचार के साथ शुरू हुए इस स्कूल ने अब तक सभी का ध्यान अपनी ओर खींचा है और करीब 15 देशों से आए हुए लोग इस स्कूल का दौरा कर चुके हैं। इस स्कूल में दोपहर 2 बजे से शाम 4 बजे तक ही पढ़ाई होती है।
स्कूल के इस समय के चुनाव को लेकर योगेन्द्र कहते हैं,
“हमें ऐसा समय चुनना था जिसमें सभी महिलाएं अपने घर का दैनिक काम निपटा कर खाली हो चुकी हों और पढ़ाई कर सकें, इसलिए हमने दोपहर 2 बजे से लेकर 4 बजे तक का समय चुना।”
अपने शिक्षण कार्य के लिए अवार्ड जीत चुके योगेन्द्र की इस पहल का नतीजा है कि साक्षरता की ओर तेजी से कदम बढ़ा रही ये बुजुर्ग महिलाएं आज खुद पर गर्व महसूस करती हैं। स्कूल में इन महिलाओं को गणित के साथ ही वर्णमाला, कविता और कला आदि का भी ज्ञान दिया जाता है। इस पहल को आगे ले जाने का काम योगेन्द्र के साथ मोतीराम दलाल चैरिटेबल ट्रस्ट द्वारा किया गया है।
स्कूल की सबसे दिलचस्प बात यह है कि यहाँ महिलाएं बच्चों की तरह ही अपना होमवर्क करती हैं और होमवर्क पूरा ना होने की दशा में वे बड़ी मासूमियत के साथ एक दूसरे की शिकायत भी करती हैं। स्कूल में ये दादियाँ पढ़ाई के साथ खेलों में भी प्रतिभाग करती रहती हैं।
बड़ी खास है पहल
स्कूल में अधिकांश बुजुर्ग महिलाओं को उनके पोते-पोतियाँ स्कूल छोडने आते हैं। महिलाएं भी समय से अपने घर का काम समाप्त कर बाकायदा यूनिफॉर्म में स्कूल पहुँचती हैं।
कुछ महिलाएं अब अपनी कमजोर नज़रों के साथ साफ देखने में असमर्थ हैं, जबकि कुछ को सुनने में समस्या होती है, लेकिन इन समस्याओं के बावजूद उन्होने अपने हौसलों को कमजोर होने नहीं दिया है। इस पहल का ही नतीजा है कि आज ये दादियाँ किताबें पढ़ने के साथ ही अपने दस्तखत करना सीख गई हैं। आजीबायची शाला ने वाकई में उन्हे गर्व से चल सकने का मौका दिया है।
इस गाँव ने पानी के संकट, स्वच्छता और स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव जैसी बुनियादी समस्याओं को नजदीक से देखा है, ऐसे में शिक्षित हो रही ये महिलाएं अब इस दिशा में जागरूकता फैलाने का काम कर रही हैं। पहल का ही नतीजा है कि गाँव आज 'खुले में शौच' से मुक्त हो चुका है।