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जांबाज सैनिकों की बहादुरी की वजह से हम मनाते हैं 'विजय दिवस'

जांबाज सैनिकों की बहादुरी की वजह से हम मनाते हैं 'विजय दिवस'

Wednesday July 26, 2017 , 6 min Read

आज से ठीक 18 साल पहले 26 जुलाई 2017 को भारत और पाकिस्तान के बीच कारगिल युद्ध हुआ था जिसमें भारत के जांबांज सैनिकों ने अपनी हिम्मत से पाकिस्तान को परास्त कर दिया था। इसी के उपलक्ष्य में शौर्य और पराक्रम को याद करने के लिए हर साल इस खास दिन को विजय दिवस के रूप में याद किया जाता है।

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1999 में आज ही के दिन ऑपरेशन विजय को सफल करते हुए भारतीय सैनिकों ने दुश्मनों को खदेड़ दिया था। भारत ने युद्ध जीतने के बाद भारत की जमीन को पाकिस्तान के कब्जे से मुक्त कराया था।

कारगिल युद्ध के इतिहास में मश्कोह घाटी में भारत और पाकिस्तानी सेना के बीच युद्ध हुआ था। इस युद्ध में हमारी सेना के जवानों ने कर्मठता और साहस का परिचय देकर खुद को इतिहास में अमर कर दिया।

आज से ठीक 18 साल पहले 26 जुलाई 2017 को भारत और पाकिस्तान के बीच कारगिल युद्ध हुआ था जिसमें भारत के जांबांज सैनिकों ने अपनी हिम्मत से पाकिस्तान को परास्त कर दिया था। इसी के उपलक्ष्य में शौर्य और पराक्रम को याद करने के लिए हर साल इस खास दिन को विजय दिवस के रूप में याद किया जाता है। 1999 में इसी दिन ऑपरेशन विजय को सफल करते हुए भारतीय सैनिकों ने दुश्मनों को खदेड़ दिया था। भारत ने युद्ध जीतने के बाद भारत की जमीन को पाकिस्तान के कब्जे से मुक्त कराया था।

इस युद्ध में हमारे वीर जवानों ने जो बहादुरी दिखाई थी उसके किस्से सुनकर हमारी छाती गर्व से चौड़ी होनी स्वाभाविक है। कहा जाता है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यह पहली लड़ाई थी, जिसमें किसी एक देश ने दुश्मन देश की सेना पर इतनी अधिक बमबारी की थी। इस युद्ध में हमारे लगभग 527 से अधिक वीर योद्धा शहीद1300 से ज्यादा घायल हो गए वहीं पाकिस्तान के 2700 से ज्यादा सैनिक इस युद्ध में मारे गए थे।

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कारगिल युद्ध के इतिहास में मश्कोह घाटी में भारत और पाकिस्तानी सेना के बीच युद्ध हुआ था। इस युद्ध में हमारी सेना के जवानों ने कर्मठता और साहस का परिचय देकर खुद को इतिहास में अमर कर दिया। पाकिस्तानी सेना ने मश्कोह घाटी, द्रास, काकसर, कारगिल, बटलिक और इससे जुड़े क्षेत्रों से होकर कोबाल गली से जुड़ी हुई 170 किलोमीटर की लंबाई वाली नियंत्रण रेखा पर अतिक्रमण कर भारतीय सेना क्षेत्र में घुसपैठ करने का दुस्साहस किया था। भारत को 3 मई 1999 तक इस घुसपैठ का पता ही नहीं चला था, लेकिन 4 मई को दो चरवाहों के जरिए सेना को इसकी जानकारी हुई। 8 मई को सेना ने इस बात की पुष्टि करने के लिए अपने दल को भेजा था, लेकिन इस दल के 6 में से 4 जवान शहीद हो गए थे। उस समय तत्कालीन सेनाध्याक्ष विदेश यात्रा पर गए हुए थे। उनके वापस आने के बाद कारगिल समस्या की ओर ध्यान दिया गया।

11 जून 1999 को तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने एक आपातकालीन प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित किया था जिसमें उन्होंने एक 20 मिनट लंबे टेप का खुलासा किया था। इस टेप में पाकिस्तान के थलसेना अध्यक्ष परवेज मुशर्रफ और उनके लेफ्टिनेंट मुहम्मद अजीज की बातचीत थी। इस टेप में वे कह रहे थे कि भारत में कारगिल में हमला करने वाले पाकिस्तानी सेना के जवान नहीं बल्कि मुजाहिद हैं। इस टेप को हासिल करने का श्रेय भारत की खुफिया एजेंसियों को दिया जाता है। वैसे यह टेप कैसे हासिल हुआ था, यह आज भी रहस्य का विषय बना हुआ है।

कारगिल की पहाड़ियों में पाकिस्तानी घुसपैठिए अपनी स्थिति मजबूत करने में लगे हुए थे। वे सभी इतनी ऊंचाई पर बंकरों में सुरक्षित थे कि वहां भारतीय सेना का पहुंचना असंभव लग रहा था। केंद्रीय मंत्रिमंडल की स्वीकृति के बाद भारतीय एयरफोर्स प्रमुख ने केवल 12 घंटे का वक्त मांगा था।

विश्व में इतने कम समय में अपनी सेना को युद्ध में उतारने का यह भी एक रिकॉर्ड है क्योंकि वायु सेना को युद्ध में उतरने से पहले कई तैयारियां करनी होती हैं। उस वक्त भारतीय वायुसेना के अध्यक्ष एयर चीफ मार्शल अनिल यशवंत थे। 26 मई 1999 से लेकर 11 जुलाई 1999 तक भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तान के खिलाफ 1400 से अधिक उड़ाने भरी थीं। पश्चिमी वायुसेना के कमांड प्रमुख एयर मार्शल विनोद पटनी के अनुसार इसमें से 500 से अधिक टोही उड़ानें शामिल थीं। 'ऑपरेशन विजय' के तहत ऑपरेशन 'सफेद सागर' का संचालन करने वाले एयर मार्शन विनोद पटनी के मुताबिक यहा ऑपरेशन हमारे लिए काफी महत्वपूर्ण था इससे हमारी सेना ने कई सबक भी सीखे।

कारगिल के हीरो कैप्टन विक्रम बत्रा: फोटो साभार: सोशल मीडिया

कारगिल के हीरो कैप्टन विक्रम बत्रा: फोटो साभार: सोशल मीडिया


कारगिल युद्ध में शहीद कैप्टन बत्रा की कहानी

'कारगिल युद्ध' में कई जवान ऐसे भी थे जो वापस लौटकर नहीं आ सके। ऐसे ही एक वीर जवान कारगिल के हीरो थे कैप्टन विक्रम बत्रा। विक्रम बत्रा का जन्‍म हिमाचल प्रदेश के पालमपुर जिले में हुआ था। उन्होंने 1996 में इंडियन मिलिटरी अकैडमी देहरादून में दाखिला लिया था और वहां से सफलता पूर्वक पासिंग आउट परेड से निकलने के बाद 13, जम्मू एंड कश्मीर राइफल्स में 1997 में लेफ्टिनेंट की पोस्ट पर ज्वाइनिंग की थी। 1 जून 1999 को उनकी टुकड़ी को कारगिल युद्ध में भेजा गया था। हम्प व राकी नाब स्थानों को जीतने के बाद उसी समय विक्रम को कैप्टन बना दिया गया। इसके बाद श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर सबसे महत्त्वपूर्ण 5140 चोटी को पाक सेना से मुक्त करवाने का जिम्मा भी कैप्टन विक्रम बत्रा को दिया गया। काफी दुर्गम और मुश्किल क्षेत्र होने के बावजूद विक्रम बत्रा ने अपने साथियों के साथ 20 जून 1999 को सुबह इस चोटी पर कब्जा कर लिया था।

कैप्‍टन बत्रा ने जंग पर जाने से पहले कहा था कि वह या तो जीत का तिरंगा लहराएंगे या फिर तिरंगे में लिपटकर वापस आएंगे। सिर्फ 25 वर्ष की उम्र में उन्‍होंने कारगिल युद्ध को फतह दिलाने वाली दो अहम चोटियों 5140 और 4875 पर तिरंगा फहराया था। इन दोनों चोटियों का अपना खास महत्‍व था। इनमें से एक 5140 श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर स्थित थी, जो भारतीय जवानों के लिए घातक साबित हो रही थी। एक चोटी 4875 पर कैप्टन बत्रा ने करीब आठ पाकिस्‍तानी सैनिकों को मार गिराया था। इस लड़ाई में उनका साथ लेफ्टिनेंट नवीन दे रहे थे।

कैप्टन बत्रा की याद में पालनपुर में उनके नाम की एक 'शहीद शिला' लगाई गई है, जिससे लोग वहां जाकर जान सकें कि किस तरह से उनके जीवन की रक्षा के लिए देश के वीर सपूतों ने अपने प्राण न्योछावर कर दिए।

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