जोमाटो को चलाने के लिए पत्नी के साथ गली-गली भटके थे दीपिंदर गोयल
जोमाटो को पहली फंडिंग इन्फोएज के फाउंडर संजीव बिखचंदानी से मिली. नवंबर 2010 में संजीव ने जोमाटो को 1 मिलियिन डॉलर का इनवेस्टमेंट फंड दिया. उस समय तक जोमाटो फूडीबे के नाम से मौजूद थी. संजीव की सलाह पर ही इसका नाम बदला गया और जोमाटो किया गया.
फर्ज कीजिए आप दिन भर ऑफिस के काम से थके हारे, भूखे प्यासे बिना खाना खाये किसी कैफे पहुंचे. वहां खाने से पहले आपको दिखे लंबी कतारें…..क्या आप ये टॉर्चर झेल पाएंगे? जवाब होगा, नहीं. सिनेमा की टिकट खिड़की या मॉल के बिलिंग काउंटर पर लाइन में फिर भी खड़े रहा जा सकता है लेकिन पेट में चूहों की मैराथन चल रही तो कतार कटार बन कर मिजाज़ और अंदाज़, दोनों को छन्नी कर देती है. IIT से पासआउट होकर नौकरीपेशा जिंदगी की शुरुआत कर रहे दीपिंदर गोयल के साथ भी एक रोज़ कुछ ऐसा ही हुआ. बेन एंड कंपनी की कैंटीन में मेन्यू कार्ड की एक झलक पाने के लिए लोगों में रेस लगी थी. दीपिंदर से रहा नहीं गया और उन्होंने उसी मेन्यू कार्ड को सभी के फोन तक पहुंचाने का मन बना लिया.
कुछ इस तरह पड़ी जोमाटो की नींव
कॉलेज के दिनों में उपजे एक उटपटांग आइडिया को ऑफिस की कैंटीन ने सेंसिबल बना दिया और वहां शुरुआत हुई मोबाइल मेन्यू साइट फूडलेट की. फिर क्या था कैंटीन में भीड़ घटती गई और उनकी वेबसाइट पर बढ़ गई. कैफे वालों से तगड़ा रेस्पॉन्स मिला तो दीपिंदर का कॉन्फिडेंस सातवें आसमान पर पहुंच गया. उन्होंने सोचा क्यों न इसे एक बार फिर पूरे शहर में ले जाया जाए.
काम शुरू किया गया मगर एक लोचा हो गया. उन्होंने फूडलेट का डोमेन डॉटकॉम की बजाय डॉटइन ले लिया. इससे साइट की विजिबिलिटी का स्कोप बहुत कम हो गया, जिससे नाम मात्र का ट्रैफिक साइट पर दिख रहा था.
खैर, उन्होंने टेक्निकल लोचे को इग्नोर करते हुए ग्राउंड लेवल पर काम शुरू किया. दीपिंदर ने अपनी पत्नी के साथ दिल्ली के सभी रेस्त्रां में जाकर उनका मेन्यू फूडलेट पर अपलोड करना शुरू किया. लेकिन, बात कुछ खास बनी नहीं. जिस हिसाब से उनका मेहनत पसीना उस काम में लग रहा था, वैसा रिजल्ट नहीं मिल रहा था. उन्होंने सोचा सब करके देख लिया, लेकिन प्रॉब्लम खत्म ही नहीं हो रही. उन्हें लगा शायद नाम में ही कोई खामी है. इसलिए दीपिंदर एक पंडित के पास पहुंचे और अपनी दुविधा रखी. फिर सलाह मशविरे के बाद उन्होंने फूडलेट का नाम बदल कर फूडीबे कर दिया.
जब दीपिंदर को मिला को-फाउंडर
लेकिन टेक्निकल लोचा अब भी साइट को आगे बढ़ने नहीं दे रहा था. दीपिंदर की लड़ाई अब ट्रैफिक लाने की थी. इसी दौरान दीपिंदर की मुलाकात हुई अपने होने वाले को फाउंडर यानी पंकज चड्ढा से. पंकज भी आईआईटी दिल्ली से पासआउट थे और उसी कंपनी में काम करते थे. पंकज, दीपिंदर की जद्दोजहद से वाकिफ थे. एक दिन उन्होंने कुछ ट्रिक चलाई और एक ही घंटे में फूडीबे के विजिटर्स तीगुने हो गए. दीपिंदर को लगा अगर पंकज उनके साथ आ जाएं तो क्या ही बात हो. 10 जुलाई 2008 को दीपिंदर ने पंकज को फूडीबे का को फाउंडर बनने का ऑफर दिया और वो मान भी गए.
जब खुला किस्मत का बंद ताला
ये 2008 की बात है, जब इंडिया में फूड वेबसाइट्स की बाढ़ आनी शुरू हो रही थी. बेंगलुरु में हंग्री बेंगलुरु, मुंबई में बर्प, पुणे में टेस्टी खाना जैसी साइट पहले से धूम मचा रही थीं. दीपिंदर के लिए राहत की बात बस इतनी सी थी कि ये तीनों अलग-अलग शहर में थीं. मुश्किल तब बढ़ी जब दिल्ली में ही तीन और फूड प्लैटफॉर्म लॉन्च हो गए. इसलिए दीपिंदर और पंकज के पास जीतोड़ मेहनत करने के अलावा कोई ऑप्शन नहीं था.
जैसे ही इस फील्ड में कॉम्पिटीशन बढ़ा वैसे ही इन्हें न्यूज कवरेज मिलने लगी. इस कवरेज से फूडीबे को गजब का फायदा हुआ. उसे यही तो चाहिए था कि लोग उसे जानें. जैसे ही अलग चैनलों पर फूडीबे की बात होने लगी, प्लैटफॉर्म पर रेस्त्रां की जैसे बाढ़ लग गई. सबने फूडीबे पर अपने मेन्यू अपलोड करने शुरू कर दिए. ये फूडीबे के लिए ये एक टर्निंग पॉइंट था. या यूं कहें गेम चेंजर वाकया था.
2008 के आखिर तक वहां 1400 से ज्यादा रेस्त्रां रजिस्टर हो चुके थे. ये सिर्फ दिल्ली एनसीआर के आंकड़े हैं. 2009 में फाउंडर्स फूडीबे को मुंबई और कोलकाता ले गए. कई नए फीचर्स जोड़े. बढ़ते बिजनेस के साथ दीपिंदर और पंकज के लिए दो जगह काम करना मुश्किल हो रहा था. दोनों ने सोचा कि फूडीबे को ग्रो कराना है तो पूरा ध्यान वहीं देना होगा. दीपिंदर और पंकज दोनों ने नवंबर 2009 में अपनी नौकरी छोड़ दी.
फंडिंग और ग्रोथ का सिलसिला
बिजनेस शुरू करने से ज्यादा जरूरी होता है उसे बढ़ाना. दीपिंदर और पंकज के सामने अब अगला टारगेट था बिजनेस को फैलाने का. कॉम्पिटीटर्स के सामने टिके रहने का. दीपिंदर फूडीबे के साथ बहुत कुछ करना चाहते थे, लेकिन इसके लिए फंड की जरूरत थी. 2009 में दोनों ने ऐलान किया की वो 1 मिलियन डॉलर का फंड जुटाएंगे. मई 2010 की बात है, दीपिंदर के पास संजीव नाम से एक मेल आया. उन्हें लगा किसी सेल्समैन ने कुछ बेचने के लिए मेल किया होगा यह सोचकर उन्होंने मेल इग्नोर कर दिया.
कुछ दिनों बाद उन्होंने जब उस मेल को खोला तो मालूम पड़ा कि वो इतने दिनों से घर आई लक्ष्मी को लात मार रहे थे. वह मेल इंफोएज के फाउंडर संजीव बिखचंदानी का था. इंफोएज उस समय इंडिया की सबसे बड़ी इंटरनेट कंपनियों में से एक थी. मजे की बात ये थी कि संजीव खुद फूडीबे के बड़े रेग्युलर यूजर थे. उनके बिजनेस से इंप्रेस होकर उन्होंने इनवेस्ट करने का सोचा था. दीपिंदर को जैसे ही मालूम पड़ा उन्होंने झटपट संजीव के साथ मीटिंग करके डील फाइनल कर ली. नवंबर 2010 में संजीव से फूडीबे को 1 मिलियिन डॉलर के इनवेस्टमेंट के साथ पहली फंडिंग मिली. संजीव ने कंपनी इंफोएज के जरिए दो अलग-अलग राउंड में 3.3 मिलियन डॉलर का निवेश किया. अगले राउंड में सिकोया के साथ मिलकर और 35 मिलियन डॉलर का निवेश ले आई.
इस तरह नाम पड़ा जोमाटो
सबकुछ अच्छा चल रहा था कि एक और नई परेशानी सामने खड़ी हो गई. दरअसल फूडीबे के आखिरी चार लेटर एक बहुत बड़ी ईकॉमर्स कंपनी ईबे से मेल खाते थे. एक दिन ईबे की नजर फूडीबे पर पड़ गई. ईबे ने फूडीबे को इस बारे में लीगल नोटिस भेज दिया. हालांकि इन्फोएज के फाउंडर संजीव ने पहले ही इस बात का अंदाजा लगा लिया था. नोटिस मिलने से पहले ही कंपनी नाम बलदने की प्रक्रिया शुरू कर चुकी थी. नया नाम लॉन्च करने से 5 दिन पहले ही फूडीबे को लीगल नोटिस आया. इसलिए नोटिस पर जवाब देने की बजाय नाम बदलने की प्रक्रिया पर ध्यान दिया गया. फिर 2010 में फूडीबे का नाम बदलकर कर दिया गया
कर दिया. नाम बदलते ही जोमाटो के दिन भी बदल गए.अब बिजनेस बढ़ाने की प्लानिंग शुरू हुई. दीपिंदर एक इंटरव्यू में बताते हैं कि उन्हें लगा ऑनलाइन ऑर्डर, या फिर टेबल रिजर्वेशन जैसे बिजनेस में आना थोड़ा ज्यादा जल्दी हो जाएगा. उस समय दो विकल्प थे, या तो इंडिया में ही रहकर दूसरे बिजनेस में कदम रखा जाए या फिर इसी बिजनेस को दूसरे देशों में ले जाया जाए. दीपिंदर ने दूसरे विकल्प को चुना.
जोमाटो 2012, 2013 में टर्की, ब्राजील, न्यूजीलैंड, यूएई, फिलिपींस, कतर, श्रीलंका जैसे देशों में अपना बिजनेस ले गई. 2014 में मेन्यू-मेनिया को खरीदकर अपना पहला अधिग्रहण किया. उसके बाद न्यूजीलैंड, ईटली, पोलैंड में भी कई फूडटेक प्लैटफॉर्म्स को खरीद लिया. अभी तक कंपनी सिर्फ रेस्त्रां सर्च इंजन की तरह काम करती थी. 2015 में उसने ऑनलाइन डिलीवरी सर्विस की शुरुआत की. 2019 तक जोमाटो की पहुंच 24 देशों में बन चुकी थी.
इधर इन्फोएज और सिकोया से फंडिंग मिलने के बाद कंपनी में वीवाई कैपिटल, टेमासेक जैसे इनवेस्टर्स ने भी निवेश किया. 2008 से लेकर 2017 तक कंपनी ने कई बड़े-बड़े निवेशकों से कुल 223.8 मिलियन डॉलर जुटाए थे. इसके बाद आया 2018. यह साल जोमाटो के लिए बड़े उतार-चढ़ाव भरे सरप्राइजेज लेकर आया. कंपनी को एंट फाइनैंशल की तरफ से फरवरी में 150 मिलियन डॉलर मिले. अगले ही महीने मार्च में एंट फाइनैंशल ने दोबारा 150 मिलियन डॉलर का फंड दिया. इसके बाद कंपनी का वैल्यूएशन 1.3 अरब डॉलर हो गया यानी कंपनी यूनिकॉर्न क्लब में शामिल हो गई. जोमाटो ने 12 साल के बिजनेस में 15 देसी और विदेशी कंपनियों को खरीदा है. इनमें ऊबर ईट्स, ग्रोसरी वेंचर ब्लिंकिट, ड्रोन स्टार्टअप टेक ईगल, फिटसो, नेक्स्टेबल जैसे नाम शामिल हैं.
चुनौतियों के बीच शेयर बाजार में हुई लिस्ट
फूडलेट बनने से जोमाटो बनने तक का सफर कंपनी के खट्टे-मीठे एक्सपीरियंस से भरा रहा है. कंपनी के सामने आज की तारीख में अब भी कई बड़े पत्थर खड़े हैं जिनसे उसे निपटना है. जोमाटो अभी कमिशन बेस्ड बिजनेस मॉडल पर काम करती है. यानी कि आप जोमाटो पर जिस भी रेस्त्रां से खाना मंगाते हैं, उस रेस्त्रां को कुछ फीसदी कमिशन के नाम पर जोमाटो को देना होता है. हाल के दिनों में जोमाटो का रेवेन्यू का मुख्य जरिया तो ऐड स्पेस हो गया है, लेकिन कमिशन को लेकर लड़ाई बनी हुई है. डिलीवरी बॉयज की शॉर्टेज, बड़े-बड़े ब्रैंड्स का जोमाटो से अलग हो कर खुद अपना प्लैटफॉर्म बनाने की खबरें, गलत कारोबारी आदतों का आरोप, सीसीआई की जांच, NRAI के आरोप जैसी चीजों से कंपनी जूझ रही है. इस बीच दीपिंदर 2020 में जोमाटो को पब्लिक ले गए. यानी शेयर बाजार में लिस्ट कराया. और यह शेयर बाजार में लिस्ट होने वाली पहली यूनिकॉर्न कंपनी बन गई.