बैंक की नौकरी छोड़कर आदिवासियों के अन्नदाता बने डॉ राजाराम त्रिपाठी
बैंक की नौकरी और अपना गृहजनपद प्रतापगढ़ (उ.प्र.) छोड़कर, स्कॉटलैंड के 'अर्थ हीरो' और भारत सरकार के 'राष्ट्रीय कृषि रत्न' पुरस्कार से सम्मानित डॉ राजाराम त्रिपाठी विगत एक दशक से बस्तर (छत्तीसगढ़) में अपनी जैविक-हर्बल खेती में बीस हजार से अधिक श्रमिक-किसान आदिवासियों को रोजगार दिए हुए हैं।
प्रतापगढ़ (उ.प्र.) के डॉ राजाराम त्रिपाठी बैंक की नौकरी छोड़कर बस्तर (छत्तीसगढ़) में औषधीय खेती कर रहे हैं। इस किसानी में वह आदिवासियों को रोजगार दे रहे हैं। जैविक-हर्बल खेती में विशेष योगदान के लिए वह बैंक ऑफ स्कॉटलैंड के 'अर्थ हीरो' पुरस्कार और भारत सरकार के 'राष्ट्रीय कृषि रत्न' पुरस्कार से सम्मानित हो चुके हैं। अभी हाल ही में, नेशनल मेडिसिनल प्लांट बोर्ड के वैज्ञानिक डॉ. अशोक शर्मा, डॉ. मनीष गिरी गोस्वामी एवं राज्य वन अनुसंधान केंद्र जबलपुर के वैज्ञानिक डॉ. राजाराम त्रिपाठी के 'मां दंतेश्वरी हर्बल तथा रिसर्च सेंटर' चिकलपुटी पंहुचे। उन्होंने यहां डॉ. त्रिपाठी के विगत 25 वर्षों के शोधपरक, बहु स्तरीय जैविक पद्धति से की जा रही वन औषधियों की खेती के कोंडागांव मॉडल का निरीक्षण किया।
इस वैज्ञानिक दल ने डॉ त्रिपाठी की जैविक-हर्बल खेती पद्धति तथा इससे बनने वाले उत्पादों की भी जानकारी ली।
'मां दंतेश्वरी हर्बल समूह' के साथ मिलकर काम करने वाली महिलाओं की संस्था संपदा की अध्यक्ष जसमती नेताम से बातचीत करते हुए उन्होंने इस संस्थान के आस-पास के गांवों के आदिवासी किसानों को कितना लाभ मिल रहा है, यह जानकारी भी विस्तार से प्राप्त की। वैज्ञानिकों ने सीएसआईआर द्वारा विकसित कड़वाहट रहित विशेष स्टीविया की यहां पर बड़े पैमाने पर की जा रही खेती में विशेष रुचि के साथ खेतों का निरीक्षण किया।
उत्तर प्रदेश से छत्तीसगढ़ जाकर आदिवासियों के रोजगार के लिए डॉ राजाराम त्रिपाठी की हर्बल खेती की दास्तान कुछ इस तरह शुरू होती है। एक वक़्त में डॉ त्रिपाठी के दादा को बस्तर के तत्कालीन राजा ने कृषि नवाचार के लिए बस्तर बुलाया था, जो कालांतर में वहीं के स्थायी निवासी हो गए। जब पहली बार उनके दादा ने बस्तर में कलमी आम का पौधा रोपा, डॉ त्रिपाठी को उसी वाकये से प्रकृति के साथ सघनता से जुड़ाव की प्रेरणा मिली।
अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने एक कॉलेज में पढ़ाना शुरू किया। कुछ समय बाद स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में प्रोबेशनरी क्लर्क के पद पर चयन हुआ। काफी समय तक नौकरी करने के बाद मन ऊबने लगा तो कुछ नया कर दिखाने के जुनून में वह नौकरी छोड़कर खेती-किसानी की आधुनिक विधि-पद्धतियां जानने, समझने में जुट गए। उस दौरान उन्होंन कई देशों का दौरा किया। साथ ही, जगह-जगह जाकर औषधीय पौधों के बाजार का भी गहरा अध्ययन किया। उसके बाद उन्होंने 'मां दंतेश्वरी हर्बल ग्रुप' की स्थापना की।
इसके बाद उन्होंने एक निर्जल, ऊसर भूखंड पर पहली बार औषधीय खेती करने का प्रोजेक्ट तैयार किया। इससे पहले विदेशी सब्जियां उगाने की योजना पर काम करते हुए हॉलैंड से गोभी के बीज लाकर पौध तैयार की लेकिन इसमें उन्हे निराशा हाथ लगी। उसके बाद तो उनका पारंपरिक खेती से ही मोहभंग हो गया। उसके बाद पहली बार उन्होंने 25 एकड़ ऊसर खेत में आदिवासी श्रमिकों की मदद से सफेद मूसली की खेती शुरू की तो उपज में उम्मीद से ज्यादा मुनाफे ने उनका इस दिशा में उत्साह वर्धन किया। इसके बाद वह मीठी तुलसी (स्टीपिया), अश्वगंधा, लेमन ग्रास, कालाहारी, सर्पगंधा आदि दर्जनों किस्म की वनौषधीय प्रजातियों की जैविक विधि से खेती करने लगे। उन्होंने स्वयं मवेशी पालकर उनके गोबर का खाद के रूप में इस्तेमाल किया।
उसी एकाग्र श्रम और विवेक का नतीजा है कि आज डॉ. त्रिपाठी बीस हजार से अधिक आदिवासी श्रमिकों और किसानों के अन्नदाता बन गए हैं। लगभग दो हजार लोग तो उनके हर्बल काम से रोजगार के तौर पर जुड़े हैं। इतना ही नहीं, 25 एकड़ से शुरू उनकी हर्बल खेती का रकबा 1100 एकड़ तक पहुंच चुका है।