सबका अपना-अपना मन, जीवन जीने की अपनी-अपनी कला, अपनी-अपनी आदत, जैसा जी में आये करे, उन्हें और कोई रोकने वाला होता कौन है, लेकिन सच को उसके चेहरे की रंगिमा-भंगिमा में उतर आने देना अन्यथा नहीं। बाल्जाक, प्रेमचंद, टालस्टॉय, विजयदान देथा, गोर्की, भीष्म साहनी हर समय उपन्यास, कहानियां ही नहीं लिखते रहे, न ब्लॉग, फेसबुक और ट्विटर के दुनियादार चौबीसो घंटे वहां पर मंडराते रहते हैं। मनजौक भी हो, लेकिन दाल में नमक जैसा। सब लार-पोटा सोशल मीडिया पर ही बरसा देने की मंशा बेचैन करती है.... शायद!
आजकल फेस बुक पर रोजाना जितनी किस्म की सामग्रियां परोसी जाती हैं, एक दिन उन्हीं पर निगाह गड़ा लें तो कई चीजें स्वयं साफ होती चली जाती हैं। एक कामना तो सामान्यतः सभी किस्म के रचनाकारों में निहित होती है कि उसका ही परोसा हर कोई सरपोटे, जैसा कि संभव नहीं रहता है।
बाल्जाक, प्रेमचंद, टालस्टॉय, विजयदान देथा और गोर्की हर समय उपन्यास, कहानियां ही नहीं लिखते रहे, न ब्लॉग, फेसबुक और ट्विटर के दुनियादार चौबीसो घंटे वहां पर मंडराते रहते हैं। मनजौक भी हो, लेकिन दाल में नमक जैसी।
जैसे किसी बगीचे में बार-बार आने-जाने की लत। साहित्य में महान होने की खिड़की तो हर मन में खुली होती है, प्रश्न ये घेरे रहता है कि वह मन किस किस्म की महानता का कायल है, खुद के लिए अथवा बाकी दुनिया के लिए। वह रचना का क्षेत्र हो, राजनीति का, समाज के किसी भी पक्ष-विपक्ष का। महान हिटलर भी होना चाहता था। कातिल के महान होने के अभिप्राय और कविता की गुनगुनी पंक्तियों के अर्थ का जो अंतर हमारे जीवन और विचारों की राह सुझाता है, वहीं से हम अलग-अलग चल पड़ते हैं।
आजकल फेसबुक पर रोजाना जितनी किस्म की सामग्रियां परोसी जाती हैं, एक दिन उन्हीं पर निगाह गड़ा लें तो कई चीजें स्वयं साफ होती चली जाती हैं। एक कामना तो सामान्यतः सभी किस्म के रचनाकारों में निहित होती है कि उसका ही परोसा हर कोई सरपोटे, जैसा कि संभव नहीं रहता है। हमे कविताएं भी ललचाती हैं, क्षणिकाएं और बहुरंगी चित्र भी, जिस प्रस्तुति में, जिसके हिस्से की चाशनी जितनी सघन होती है, वह उतना उसमें लिप्त हो लेता है। अपने हिस्से की मिठास लूट ले जाता है, दूसरे के हिस्से का डबरा (मटमैला गड्ढा) छोड़ जाता है। हर तरह की विचार विथिकाओं में, हर तरह के मंचों पर, समूहों में जीवन इसी तरह के विविध रंग लेकर उतरता है, डोलता-थिरकता है और शब्दों-संवादों का आदान-प्रदान हमे आह्लादित-आंदोलित करता रहता है।
ये बातें प्रसंगवश हैं, अनायास नहीं। जैसे हम कविताओं की रेलमपेल मचाये रहते हैं, किसी नेता, अफसर का जिक्र होते ही लिखने के लिए बेकाबू हो लेते हैं, एक-दूसरे की वाह-वाह करते, बाकी को हाशिये का कीड़ा-मकोड़ा जानते हुए आगे सरक लेते हैं, यह चाल बड़ी संदिग्ध-सी लगती है लेकिन जिजीविषा का क्रंदन बड़ा बेहया होता है, उसका ताप किसी को भी अपनी लक्ष्मण रेखा से यूं सलामत से नहीं निकल जाने देता है, क्योंकि उसका एक लक्ष्य होता है। स्वांतः सुखाय हो तो कोई बात ही नहीं। आप क्यों अपने किस्म-किस्म के चेहरों, वस्त्रों, परिस्थियों के बेढंगेपन सामूहिक रूप से यहां साझा करना चाहते हैं, बेतुके बलगम परोसते हुए अपना समय जाया करते रहते हैं, और किंचित अन्यों का भी।
खैर, सबका अपना-अपना मन, अपनी-अपनी जीवन जीने की कला, अपनी-अपनी आदत, जैसा जी में आये करें, उन्हें और कोई रोकने वाला होता कौन है, लेकिन सच को उसके चेहरे की रंगिमा-भंगिमा में उतर आने देना, सार्वजनिक हो लेने देना भी कोई अन्यथा का उपक्रम नहीं। बाल्जाक, प्रेमचंद, टालस्टॉय, विजयदान देथा और गोर्की हर समय उपन्यास, कहानियां ही नहीं लिखते रहे, न ब्लॉग, फेसबुक और ट्विटर के दुनियादार चौबीसो घंटे वहां पर मंडराते रहते हैं। मनजौक भी हो, लेकिन दाल में नमक जैसी। सब लार-पोटा यही बरसा देने का इरादा इस मंच को भी बेचैन, अभिशप्त-सा करने लगता है.... शायद!