Brands
YSTV
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
Yourstory

Brands

Resources

Stories

General

In-Depth

Announcement

Reports

News

Funding

Startup Sectors

Women in tech

Sportstech

Agritech

E-Commerce

Education

Lifestyle

Entertainment

Art & Culture

Travel & Leisure

Curtain Raiser

Wine and Food

Videos

ADVERTISEMENT

हिन्दी की प्रतिष्ठित कथालेखिका चित्रा मुद्गल

अंतरजातीय विवाह रचाने पर अपनों ने ठुकराया: चित्रा मुद्गल

हिन्दी की प्रतिष्ठित कथालेखिका चित्रा मुद्गल

Sunday December 10, 2017 , 7 min Read

चित्रा जी के तेरह कहानी संग्रह, तीन उपन्यास, तीन बाल उपन्यास, चार बाल कथा संग्रह, पांच संपादित पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। आठ भाषाओं में अनूदित उनके उपन्यास 'आवां' को देश के छह प्रतिष्ठित सम्मान मिल चुके हैं। 'आवां' पर 2003 में 'व्यास सम्मान' मिला था। 

चित्रा मुद्गल (फाइल फोटो)

चित्रा मुद्गल (फाइल फोटो)


 'आवां' को इंग्लैंड का 'इन्दु शर्मा कथा सम्मान पुरस्कार' और दिल्ली अकादमी का 'हिन्दी साहित्यकार सम्मान पुरस्कार' भी मिल चुके हैं। उनको 2010 में 'उदयराज सिंह स्मृति पुरस्कार' से सम्मानित किया गया था।

चित्रा मुद्गल कहती हैं कि जिस तरह साहित्यकार कभी समझौता नहीं करता, एक पत्नी और माँ अपना दायित्व नहीं भूलती उसी तरह एक समाजसेवी भी समाज के प्रति अपना कर्तव्य नहीं भूलता। 

हिन्दी की अत्यंत प्रतिष्ठित कथालेखिका चित्रा मुद्गल का आज (10 दिसंबर) जन्मदिन है। आठ भाषाओं में अनूदित उनके उपन्यास 'आवां' को देश के छह प्रतिष्ठित सम्मान मिल चुके हैं। 'आवां' पर 2003 में 'व्यास सम्मान' मिला था। वह तेरहवां 'व्यास सम्मान' पाने वाली देश की प्रथम लेखिका हैं। हिन्दी की अत्यंत प्रतिष्ठित कथालेखिका चित्रा मुद्गल का आज (10 दिसंबर) जन्मदिन है। उनका जीवन किसी रोमांचक प्रेम-कथा से कम नहीं है। उन्नाव के जमींदार परिवार में जन्मी किसी लड़की के लिए साठ के दशक में अंतरजातीय प्रेमविवाह करना आसान काम नहीं था लेकिन उन्होंने यह साहस कर दिखाया।

उसके बाद उन्हें जीवन के तमाम कठिन रास्तों से गुजरना पड़ा। चित्रा जी के तेरह कहानी संग्रह, तीन उपन्यास, तीन बाल उपन्यास, चार बाल कथा संग्रह, पांच संपादित पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। आठ भाषाओं में अनूदित उनके उपन्यास 'आवां' को देश के छह प्रतिष्ठित सम्मान मिल चुके हैं। 'आवां' पर 2003 में 'व्यास सम्मान' मिला था। वह तेरहवां 'व्यास सम्मान' पाने वाली देश की प्रथम लेखिका हैं। 'आवां' को इंग्लैंड का 'इन्दु शर्मा कथा सम्मान पुरस्कार' और दिल्ली अकादमी का 'हिन्दी साहित्यकार सम्मान पुरस्कार' भी मिल चुके हैं। उनको 2010 में 'उदयराज सिंह स्मृति पुरस्कार' से सम्मानित किया गया था।

इसके अलावा 'एक जमीन अपनी' और 'गिलिगडु' भी उनके दो अन्य चर्चित उपन्यास हैं। 'एक ज़मीन अपनी' को 'फणीश्वरनाथ रेणु' सम्मान मिल चुका है। वह हिंदी अकादमी दिल्ली से 1996 में सम्मानित की गईं। उनके कहानी संग्रहों में भूख, जहर ठहरा हुआ, लाक्षागृह, अपनी वापसी, इस हमाम में, जिनावर, लपटें, जगदंबा बाबू गाँव आ रहे हैं, मामला आगे बढ़ेगा अभी, केंचुल, आदि उल्लेखनीय हैं।

उन्नाव (उ.प्र.) के गांव निहाली खेड़ा में जनमीं चित्रा मुद्गल चित्रकला के साथ ही महिलाओं के लिए संघर्ष करने में भी गहरी रुचि रखती हैं। वह सोमैया कॉलेज में पढ़ाई के दौरान श्रमिक नेता दत्ता सामंत के संपर्क में आकर श्रमिक आंदोलन से जुड़ी थीं। उन्हीं दिनों घरों में झाडू-पोंछा कर, उत्पीड़न और बदहाली में जीवन-यापन करने वाली बाइयों के बुनियादी अधिकारों की बहाली के लिए संघर्षरत संस्था 'जागरण' की बीस वर्ष की वय में सचिव बनीं। वह बताती हैं कि 'कई बार घर का माहौल और आस-पड़ोस की कई समस्याएं दुखी कर देती थीं।

पढ़ते-पढ़ते लगा कि इनका निदान तभी संभव है जब इनकी जड़ों को खंगाला जाए। इससे मन में लेखन की प्रवृत्ति पैदा हुई। कुछ निजी कारणों ने भी लिखने के लिए प्रेरित किया। कई बार घरेलू माहौल की वजह से भी क्षोभ होता था। मन के अंदर आग है तो उसका सकारात्मक उपयोग क्यों न करें? जो आक्रोश उभरता है, वो आम जन के साथ साझा होता है। मेरे अंदर के गुस्सा और असंतोष ने मुझे लिखने के लिए प्रेरित किया। मेरा शुरू से ही सामाजिक कार्यों में मन लगता था। सौमैया कॉलेज में पढ़ाई के दौरान मैं संगठित-असंगठित दोनों तरह के श्रमिक आंदोलनों में सक्रिय रही। रुचि और जरुरत के अनुसार वक्त निकल जाता है। जब मैं देखती हूँ कि लोग अपने ही देश में विस्थापन के लिए मजबूर हैं, उन्हें खाने के लिए, पहनने के लिए यानि उनकी मूलभूत जरुरतों के लिए भी सरकार कुछ नहीं कर रही तो एक इंसान होने के नाते मुझे इनकी सहायता करनी चाहिए और मैं यही प्रयास करती हूँ।

चित्रा मुद्गल कहती हैं कि जिस तरह साहित्यकार कभी समझौता नहीं करता, एक पत्नी और माँ अपना दायित्व नहीं भूलती उसी तरह एक समाजसेवी भी समाज के प्रति अपना कर्तव्य नहीं भूलता। सबकी अपनी-अपनी सीमाएं और प्रतिबद्धताएं हैं। हमारी शादी 17 फरवरी 1965 को हुई थी। उस जमाने में अंतरजातीय विवाह करने का फैसला लेने के कारण काफी कठिनाई हुई। लेकिन मुझे कठिन मार्ग अपनाने में कभी कोई झिझक नहीं हुई। अवध नारायण मुद्गल जी से मेरी शादी को लेकर घर वालों का काफी विरोध था। घर में बहुत हंगामा हुआ। किसी तरह शादी हुई लेकिन उन लोगों की नाराजगी कम न हुई। यहाँ तक कि मेरी शादी के बाद मुझे उन लोगों ने घरेलू समारोहों में बुलाना ही बंद कर दिया। इसके बाद जब मैं माँ बनी तो शायद पिताजी के गुस्से में कहीं कुछ कमी आई और वह अस्पताल में मेरे बेटे को देखने आये, लेकिन उन्होंने मुझसे कोई बात नहीं की। शादी के लगभग 10 साल बाद उन्होंने मुझसे बातचीत शुरू की। तो इस तरह जिंदगी बहुत चुनौतीपूर्ण रही। सफलता किसी को भी निर्वात में नहीं मिलती। वह लगन, परिश्रम और विद्वता की माँग करती है और जिस शख्स में ये सारे गुण हों वो अपने आप में एक मुकम्मल व्यक्तित्व है। संभवतः इन्ही सारी योग्यताओं के चलते भी उन्हें अन्य पुरस्कारों के अलावा रूस का अंत्यंत प्रतिष्ठित 'पुश्किन सम्मान' भी मिला।

कथाकार बलराम लिखते हैं- 'उपन्यास 'आवाँ' स्त्री–विमर्श का बृहद आख्यान है, जिसका देश–काल तो उनके पहले उपन्यास 'एक जमीन अपनी' की तरह साठ के बाद का मुंबई ही है, लेकिन इसके सरोकार उससे कहीं ज्यादा बड़े हैं, संपूर्ण–स्त्री विमर्श से भी ज्यादा श्रमिकों के जीवन और श्रमिक राजनीति के ढेर सारे उजले–काले कारनामों तक फैले हुए, जिसकी जमीन भी मुंबई से लेकर हैदराबाद तक फैल गई है। उसमें दलित जीवन और दलित–विमर्श के भी कई कथानक अनायास ही आ गए हैं। इस रूप में इसे आज के स्त्री–विमर्श के साथ–साथ दलित–विमर्श का महाकाव्य भी कह सकते हैं, जिसे लिखने की प्रेरणा चित्रा मुद्गल को मुंबई में जिए गए अपने युवा जीवन से मिली।

'आवाँ' का बीज चाहे मुंबई ने रोपा, लेकिन खाद–पानी उसे हैदराबाद से मिला और श्रमिकों के शहर कोलकाता में बैठकर वह लिखा गया तो दिल्ली ने आधार कैंप का काम किया। इस रूप में यह लगभग पूरे भारत का प्रतिनिधित्व करने वाला हिन्दी उपन्यास है, बड़े, बहुत बड़े फलक का उपन्यास। सही अर्थों में एक बड़ा उपन्यास, जिसमें लेखिका की अकूत अनुभव–संपदा काम आई है। इस उपन्यास में दलित पवार और ब्राह्मण नमिता के पारस्पारिक आकर्षण के माध्यम से 'आवाँ' में अगर दलित–विमर्श का जरूरी मामला आया है तो नमिता के पिता देवीशंकर पांडे की बिनब्याही दूसरी पत्नी किशोरी बाई के माध्यम से परकीया प्रेम पका है और किशोरी बाई की बेटी सुनंदा का सुहेल से प्रेम हिंदू–मुस्लिम विवाह की समस्या को उजागर कर गया है।

उपन्यास में आए श्रमिक वर्ग के परिवेश हों, निम्न मध्यवर्गीय परिवार हों, कामकाजी महिलाएँ हों, दलाल मैडमें हों, संजय कनोई, अन्ना साहब, पवार, किरपू दुसाध जैसों का रहन–सहन हो, सबके बीच में हैं आज की स्त्रियाँ, स्त्रियाँ ही स्त्रियाँ, उनकी जीवन स्थितियाँ, उनके संघर्ष, उनके समझौते, उनके पतन, उनके उत्कर्ष, उनकी नियति, उनके स्वप्न, मोह, मोहभंग और उनके फैसले। कुल मिलाकर हर तरह की स्त्री जीवन 'आवाँ' के फोकस में है। इसीलिए यह मुझे स्त्री–विमर्श का उपन्यास लगता है, श्रमिक राजनीति के परिवेश में लिपटे होने के बावजूद संपूर्ण स्त्री–विमर्श का उपन्यास, स्त्रीवाद को धता बताता हुआ। देहवादी अंधकूपों में उतरकर भी उन कूपों के विरूद्ध बिगुल बजाता हुआ। स्त्री को माल या चीज के बजाय उसे मानवी रूप में स्वीकार करने की जिरह करता हुआ यह एक यादगार उपन्यास है।'

यह भी पढ़ें: भारत की पहली महिला IAS के बारे में जानते हैं आप?