प्रवासियों के लिए भारत में बसना हुआ आसान, जबकि भारतीयों के लिए विदेश जाकर रहना मुश्किल: सर्वे
HSBC के एक नए शोध के अनुसार भारत में बसने वाले प्रवासियों में से 80 फीसदी लोगों का कहना है कि उन्हें यहां बसने में एक वर्ष से भी कम समय लगा- वे भारत के ही रहने वाले हैं, यह अहसास आने में उन्हें औसतन 7.4 महीने लगते हैं, जो कि 8.3 महीने के वैश्विक औसत से कम है.
हाइलाइट्स
- विदेश जाने वाले भारतीयों में से सर्वेक्षण में हिस्सा लेने वाले 33 फीसदी लोग इस बात से सहमत नहीं हैं कि उन्हें मेज़बान देश में "स्थानीय लोगों जैसा महसूस होता है", जबकि ठीक इसी तरह 31 फीसदी लोग अपनेपन की भावना को लेकर आश्वस्त नहीं हैं
- HSBC के सर्वे में हिस्सा लेने वाले प्रवासियों को भारत में बसने में वैश्विक औसत (8.3 महीने) से कम समय (7.4 महीने) लगता है, जबकि विदेश में बसने वाले 4 में से 1 भारतीय का कहना है कि उन्हें लगभग तुरंत ही घर जैसा महसूस होने लगता है (28 फीसदी).
- जेफ्री एल कोहेन, स्टैनफर्ड यूनिवर्सटी प्रोफेसर और अपनेपन यानी बिलॉन्गिंग से जुड़े मनोविज्ञान के विशेषज्ञ HSBC के नए अभियान का समर्थन करते हैं- उन्होंने नई जगह पर अपनेपन की भावना
जब बात भारत में बसने की हो, तो भारत में आने वाले अंतरराष्ट्रीय नागरिकों को कहीं अधिक आसानी का अनुभव होता है. यह जानकारी HSBC के एक नए शोध में सामने आई है जिसमें किसी नए देश में बसने और अपनेपन का अहसास करने के प्रमुख कारणों का पता लगाया गया है.
भारत में बसने वाले प्रवासियों में से 80 फीसदी लोगों का कहना है कि उन्हें यहां बसने में एक वर्ष से भी कम समय लगा- वे भारत के ही रहने वाले हैं, यह अहसास आने में उन्हें औसतन 7.4 महीने लगते हैं, जो कि 8.3 महीने के वैश्विक औसत से कम है. सर्वे में शामिल प्रवासियों में से 36 फीसदी लोगों को तुरंत ही घर जैसा महसूस होने लगता है, 23 फीसदी लोगों को इसमें 6 महीने से भी कम समय लगा और 21 फीसदी लोगों को 6 महीने से लेकर एक वर्ष तक का समय लगा.
हालांकि, काफी संख्या में विदेश जाने वाले भारतीयों (जो भारत में पैदा हुए) को अपने नए समुदायों का हिस्सा बनने में मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. खास तौर पर, विदेश में बसने वाले लगभग एक तिहाई (33%) भारतीय इस बात से सहमत नहीं हैं कि उन्हें मेज़बान देश में "स्थानीय लोगों जैसा अनुभव" होता है, जबकि ठीक इसी तरह करीब 31 फीसदी लोग अपनेपन के अहसास को लेकर आश्वस्त नहीं नज़र आते हैं.
अंतरराष्ट्रीय नागरिकों के बीच किए गए एचएसबीसी रिसर्च में पाया गया कि दुनिया भर में करीब एक तिहाई लोगों के लिए विदेश में बसने के पीछे सबसे अहम कारण बेहतर जीवनशैली का वादा है, अच्छी तरह बस जाने की भावना और वह भी अपनेपन के अहसास के साथ, जो हमेशा सीधा सपाट नहीं होता है.
इस सर्वे में 7,000 से ज़्यादा लोगों ("इंटरनेशनल सिटीजन") ने हिस्सा लिया जो रहने, पढ़ने या काम करने के लिए विदेश गए हैं या विदेश जाने की योजना बना रहे हैं, उन्होंने बताया कि अंतरराष्ट्रीय नागरिकों को विदेश में नई जगह पर अपनेपन का अहसास होने में औसतन लगभग आठ महीने लगते हैं. लेकिन सर्वे में हिस्सा लेने वाले करीब एक चौथाई (23 फीसदी) लोगों के लिए यह समय एक वर्ष से भी ज़्यादा है. इस अध्ययन में अलग-अलग पीढ़ियों और विदेश में बसने की उनकी क्षमता के बीच के भारी अंतर को भी बताया गया है. ज़ेनज़ी यानी युवाओं के यह कहने की संभावना कम ही होती है कि वे यह कहें कि वे अपनी नई जगह से संबंध रखते हैं, सिर्फ आधे लोगों (56 फीसदी) का कहना है कि ऐसा होता है, इसमें पांच में से तीन (70 फीसदी) प्रतिभागियों की उम्र 35 से 64 वर्ष थी.
जब प्रतिभागियों से घर जैसा महसूस करने में मदद करने वाली रणनीतियों के बारे में पूछा गया, तो अन्य लोगों के साथ जुड़ने के प्रयासों और स्थानीय संस्कृति का अनुभव लेने जैसी रणनीतियां शीर्ष पर रहीं. हालांकि, स्थानीय भाषा सीखना शीर्ष पांच प्रयासों में नहीं है- जिससे पता चलता है कि अपनेपन के अहसास के लिहाज़ से यह कोई बाधा नहीं है- दुनिया भर के जिन अंतरराष्ट्रीय नागरिकों से हमने बात की उनमें से 22 फीसदी लोगों ने इस बात को स्वीकार किया. उदाहरण के लिए, स्कूल तलाशने से प्रवासियों को भारत में अपने परिवारों के साथ अच्छी तरह बसने में मदद मिली. 69 फीसदी लोगों को अपने बच्चों के लिए उनकी ज़रूरत के हिसाब से बहुत ही आसानी से स्कूल मिल गया. दरअसल, बच्चों के स्कूल में आयोजित होने वाली गतिविधियों और कार्यक्रमों में हिस्सा लेना, शीर्ष कारण रहा जिससे प्रवासियों को भारत में आसानी से बसने में मदद मिली, 29 फीसदी लोगों ने यह माना कि इससे उन्हें अपनापना महसूस होने में मदद मिली.
इस अध्ययन में इस बात पर ध्यान दिया गया है कि किस तरह व्यक्तिगत परिस्थितियां विदेश में बसने वाले किसी व्यक्ति को अपनेपन का अहसास कराने में लगने वाले समय को प्रभावित कर सकता है.
दुनिया भर में अकेले नए देश में बसने वाले (किसी साथी या परिवार के बिना यात्रा करने वाले) लगभग एक चौथाई (28 फीसदी) लोगों को घर जैसा महसूस करने में एक वर्ष से अधिक समय लगा, जबकि नई जगह पर साथी/परिवार के साथ यात्रा करने वाले लोगों की संख्या 21 फीसदी है. टैक्नोलॉजी की मदद से काम करने वाले लोग यानी डिजिटल नोमैड** को, अकेले बसने आने वाले लोगों के मुकाबले कम समय में ही अपनेपन का अहसास हो जाता है. आधे से ज़्यादा ऐसे लोगों (55 फीसदी) को छह महीने के भीतर ही अपनापन महसूस होने लगता है जबकि अकेले नए देश में बसने वालों के मामले यह आंकड़ा 45 फीसदी है. संभवत: ऐसा इसलिए है क्योंकि घर पर परिवार और दोस्तों के साथ उनका जुड़ाव काफी मज़बूत होता है - ज़्यादातर डिजिटल नोमैड (72 फीसदी) का परिवार और दोस्तों के साथ अच्छा संबंध होता है जबकि अकेले विदेश में बसने वाले 53 फीसदी लोगों के मामले में ऐसा है.
इस अध्ययन से मिली जानकारी के बारे में स्टैनफर्ड प्रोफेसर एवं बिलॉन्गिंग- द साइंस ऑफ क्रिएटिंग कनेक्शन एंड ब्रिजिंग डिवाइड्स के लेखक जेफ्री एल कोहेन ने कहा, "किसी दूसरे देश में जाकर रहना रोमांचक और समृद्ध करने वाला अनुभव हो सकता है, लेकिन यह मुश्किल भी होता है. मुख्य चुनौती सिर्फ व्यावहारिक समस्या नहीं बल्कि मनोवैज्ञानिक भी है- घर बनाने का काम. घर एक भौतिक जगह होने के साथ-साथ मनोवैज्ञानिक स्थिति भी है जिसे अपनेपन के अहसास की मदद से परिभाषित किया जाता है यानी व्यापक समुदाय का स्वीकार्य हिस्सा होने का अहसास. ऐसे में लोगों के लिए धैर्य रखना और खुद पर दबाव न डालना महत्वपूर्ण होता है. अच्छी तरह बस जाने के लिए वे पर्याप्त समय ले सकते हैं - इसके साथ ही कुछ मददगार रणनीतियों के साथ इस प्रक्रिया को और भी आसान बनाया जा सकता है. एचएसबीसी रिसर्च से विदेश में बसने पर लोगों के सामने आने वाली भावनात्मक बाधाओं का पता चलता है. अकेलापन एक प्रमुख कारण है जिसकी वजह से कुछ लोगों को लगता है कि उनकी उम्मीदें पूरी नहीं हुई हैं और दूसरी तरफ नए देश में अपनेपन का अहसास होने से लोगों को लंबे समय तक टिकने की प्रेरणा मिलती है."
जब बात नई जगह पर बसने की हो और वह भी घर से बहुत दूर, तो इस अध्ययन से पता चलता है कि कुछ जगहें अन्य के मुकाबले ज़्यादा बेहतर होती हैं. यह जानकारी उन लोगों के अनुभवों पर आधारित है जिनसे हमने बात की है. प्रतिभागियों को जिन जगहों पर बसने में सबसे कम समय लगा, उनमें संयुक्त अरब अमीरात और भारत शामिल हैं, जहां क्रमश: 40 फीसदी और 36 फीसदी लोगों को "लगभग तुरंत" ही अपनेपन का अहसास हुआ. दोनों ही जगहों पर कार्यस्थल की भूमिका बहुत ही अहम है, क्योंकि कारोबारी नेटवर्किंग एक प्रमुख वजह है जिससे अंतरराष्ट्रीय नागरिकों को नए देश में बसने में मदद मिलती है (यूएई में 36 फीसदी और भारत में 22 फीसदी).
जीवन के किस पहलू का हमारे अपनेपन के अहसास पर असर पड़ता है और दुनिया भर के अलग-अलग लोगों के लिए यह किस तरह अलग होता है- यह जानना एचएसबीसी के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि कंपनी 60 लाख से ज़्यादा अंतरराष्ट्रीय नागरिकों की बैंकिंग और निवेश संबंधी सेवाएं देती है.
नई जगह पर लोगों को आसानी से बसने में मदद करने के लिए एचएसबीसी अनफॉरेन एक्सचेंज की शुरुआत कर रही है जो डिजिटल समुदाय है जिसे विदेश जाने वाले लोगों को जल्दी से जल्दी बसने में मदद करने के लिए डिज़ाइन किया गया है.
इस अध्ययन के बारे में संदीप बत्रा, हेड, वेल्थ एंड पर्सनल बैंकिंग, एचएसबीसी इंडिया ने कहा, "एचएसबीसी में हम किसी नए देश में बसने के लिए जाने पर व्यक्ति के सामने आने वाली चुनौतियों को अच्छी तरह समझते हैं. चूंकि मैंने खुद विदेश में समय बिताया है, ऐसे में मैं विस्थापन की भावनाओं को अच्छी तरह समझ सकता हूं, भले ही वहां हमें बेहतरीन अनुभव और अच्छे दोस्त मिलें. काम या पढ़ाई के लिए विदेश में रहे अपने सहकर्मियों और दोस्तों के अनुभवों के आधार पर हम "अनफॉरेन एक्सचेंज" प्रयास की शुरुआत करने के लिए प्रेरित हुए. यह प्रयास ऐसे दौर से गुज़र रहे लोगों को समुदाय और अपनेपन का अहसास कराने के लिए शुरू किया गया है और इसके लिए उन्हें एक प्लेटफॉर्म उपलब्ध कराया जाता है, ताकि वे सोशल मीडिया पर अपनी कहानियां साझा कर सकें और नए परिवेश में अच्छी तरह बसने और अन्य लोगों के साथ जुड़ने के तरीकों के बारे में हमारे साझेदारों और सहकर्मियों से सलाह ले सकें. हम चाहते हैं कि वे घर जैसा महसूस करें और जब वे विदेश जाएं तो उन्हें अपनेपन का अहसास हो."