सामाजिक और राजनीतिक जीवन की थाली में तुलसीदल की तरह थे लोक नायक
जयप्रकाश नारायण सरकार, मंत्रिमंडल तथा संसद का हिस्सा नहीं रहे, लेकिन उनकी राजनीतिक सक्रियता बराबर बनी रही । इन्होंने ट्रेड यूनियन के अधिकारों के लिए संघर्ष किया तथा यह कामगारों के लिए न्यूनतम वेतन, पेंशन, चिकित्सा-सुविधा तथा घर बनाने के लिए सहायता जैसे जरूरी मुद्दे लागू कराने में सफल हुए।
1971 के वर्ष में जयप्रकाश नारायण ने नक्सली समस्या का समाधान निकाल कर तथा चम्बल में डाकुओं के आत्मसमर्पण में अगुवा की भूमिका निभाई । 8 अप्रैल 1974 को 72 वर्ष की आयु में एक अदभुत नेतृत्व क्षमता तथा सचेत गतिविधि का प्रदर्शन किया।
5 जून 1974 को पटना के गाँधी मैदान में एक जनसभा को संबोधित करते हुए जयप्रकाश नारायण ने कहा, ‘यह एक क्रान्ति है, दोस्तो ! हमें केवल एक सभा को भंग नही करना है, यह तो हमारी यात्रा का एक पड़ाव भर होगा । हमें आगे तक जाना है । आजादी के सत्ताइस बरस बाद भी देश भूख, भ्रष्टाचार, महँगाई, अन्याय तथा दमन के सहारे चल रहा है । हमें सम्पूर्ण क्रान्ति चाहिए उससे कम कुछ नहीं…’
जयप्रकाश नारायण सरकार, मंत्रिमंडल तथा संसद का हिस्सा नहीं रहे, लेकिन उनकी राजनीतिक सक्रियता बराबर बनी रही । इन्होंने ट्रेड यूनियन के अधिकारों के लिए संघर्ष किया तथा यह कामगारों के लिए न्यूनतम वेतन, पेंशन, चिकित्सा-सुविधा तथा घर बनाने के लिए सहायता जैसे जरूरी मुद्दे लागू कराने में सफल हुए । 1971 के वर्ष में जयप्रकाश नारायण ने नक्सली समस्या का समाधान निकाल कर तथा चम्बल में डाकुओं के आत्मसमर्पण में अगुवा की भूमिका निभाई।
8 अप्रैल 1974 को 72 वर्ष की आयु में एक अदभुत नेतृत्व क्षमता तथा सचेत गतिविधि का प्रदर्शन किया । उस साल देश बेहद मंहगाई, बेरोजगारी तथा जरूरी सामग्री के अभाव से गुजर रहा था । इसके विरोध में जयप्रकाश नारायण ने एक मौन जुलूस का आयोजन किया जिस पर लाठी चार्ज किया गया । 5 जून 1974 को पटना के गाँधी मैदान में एक जनसभा को संबोधित करते हुए जयप्रकाश नारायण ने कहा, ‘यह एक क्रान्ति है, दोस्तो ! हमें केवल एक सभा को भंग नही करना है, यह तो हमारी यात्रा का एक पड़ाव भर होगा । हमें आगे तक जाना है । आजादी के सत्ताइस बरस बाद भी देश भूख, भ्रष्टाचार, महँगाई, अन्याय तथा दमन के सहारे चल रहा है । हमें सम्पूर्ण क्रान्ति चाहिए उससे कम कुछ नहीं…’
जनक्रांति झुग्गियों से न हो जब तलक शुरू,
इस मुल्क पर उधार है इक बूढ़ा आदमी ।।
लोकनायक जयप्रकाश नारायण के क्रांतिकारी व्यक्तित्व की झलक देतीं सूर्यभानु गुप्त की उपरोक्त पंक्तियाँ बतलाती हैं कि आम जन में परिवर्तन के सपने को जयप्रकाश नारायण ने कैसे रूपाकार दिया था। भगीरथ, दधीचि, भीष्म, सुकरात, चंद्रगुप्त, गांधी, लेनिन और न जाने कैसे-कैसे संबोधन जे.पी. को दिए कवियों ने। उन्हें याद करते हुए आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने सही कहा था कि ‘इस देश की संस्कृति का जो कुछ भी उत्तम और वरेण्य है, वह उनके व्यक्तित्व में प्रतिफलित हुआ है।’
महात्मा गांधी के आदर्शों से प्रेरित जयप्रकाश नारायण एक ऐसे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी थे जो पराधीन भारत में बर्फ की सिल्लियों पर लेटे तो आजाद भारत में भी उन्हें जेल की हवा खानी पड़ी। कभी अंग्रेजों से देश को आजाद कराने के मंसूबे से उन्होंने जेल यात्रा की थी तो आजादी के बाद जयप्रकाश नरायण ने व्यवस्था परिवर्तन के लिए लाठियां भी खाईं। आजादी के बाद नेहरू जी जेपी को सरकार में जगह देना चाहते थे लेकिन जेपी ने सत्ता से दूर रहना ही पसंद किया। लोकनायक जयप्रकाश नारायण के बेमिसाल राजनीतिक जीवन का सबसे बड़ा पहलू यह है कि उन्हें सत्ता का मोह नहीं था शायद यही कारण है कि नेहरू की कोशिश के बावजूद वह उनके मंत्रिमंडल में शामिल नहीं हुए. वह सत्ता में पारदर्शिता और जनता के प्रति जवाबदेही सुनिश्चित करना चाहते थे
यद्यपि जयप्रकाश नारायण सरकार, मंत्रिमंडल तथा संसद का हिस्सा नहीं रहे, लेकिन उनकी राजनीतिक सक्रियता बराबर बनी रही । इन्होंने ट्रेड यूनियन के अधिकारों के लिए संघर्ष किया तथा यह कामगारों के लिए न्यूनतम वेतन, पेंशन, चिकित्सा-सुविधा तथा घर बनाने के लिए सहायता जैसे जरूरी मुद्दे लागू कराने में सफल हुए। आजादी के बाद के दौर में जयप्रकाश नारायण की नजर रूस की ओर थी और उन्हें समझ में आ गया था कि कम्युनिज्म भारत के लिए सही राह नहीं है ।
अपने जीवन की एक महत्त्वपूर्ण घटना के तौर पर 19 अप्रैल 1954 को जयप्रकाश नारायण ने एक असाधारण-सी घोषणा कर दी । उन्होंने बताया कि वह अपना जीवन विनोबा भावे के सर्वोदय आन्दोलन को अर्पित कर रहे हैं । उन्होंने हजारीबाग में अपना आश्रम स्थापित किया जो कि पिछड़े हुए गरीब लोगों का गांव था । यहाँ जयप्रकाश नारायण ने गाँधी जी के जीवन-दर्शन को आधुनिक पाश्चात्य लोकतन्त्र के सिद्धान्त से जोड़ दिया । इसी विचार की उनकी पुस्तक ‘रिकंस्ट्रक्शन ऑफ इण्डियन पॉलिसी’ प्रकाशित हुई । इस पुस्तक ने जयप्रकाश को मैग्सेसे पुरस्कार के लिए चुने जाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई ।
हिंसक क्रन्ति हमेशा किसी न किसी रूप में तानाशाही को जन्म देती है। क्रांति के बाद विशेषाधिकार युक्त शासकों और शोषकों का नया वर्ग तैयार हो जाता है और समय के साथ साथ जनता मोटे तौर पर एक बार पुन: प्रजा बनकर जाती है। -जयप्रकाश नारायण
ऐसा कभी-कभी ही होता है कि कोई एक आंदोलन किसी राष्ट्र की सामूहिक चेतना में समा जाता है। 1974 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्त्व में हुआ संपूर्ण क्रांति का आंदोलन हमारे देश के लिए ऐसा ही एक आंदोलन है। यह 1974 में शुरू हुआ और तब से आज तक चला ही चल रहा है। करीब आधी शताब्दी पहले हुआ एक आंदोलन अगर इतने सारे लोगों के इतने सारे आरोपों के केंद्र में आज भी है तो इससे भी उसकी ताकत व असर का अंदाजा लगाया जा सकता है।
लेकिन सबसे बड़ी बात यह पहचानने की है कि किसी क्रांतिकारी आंदोलन में क्या हुआ, इसकी खोज बहुत मतलब नहीं रखती बल्कि यह पहचानना बहुत मतलब रखता है कि उस आंदोलन से क्या हासिल हुआ। 1974 के संपूर्ण क्रांति के आंदोलन से सबसे बड़ी बात यह हुई कि जिस लोकतंत्र को लोगों ने नौकरशाही की एक मशीन बना कर रख दिया था, उस लोकतंत्र में जनता के सीधे हस्तक्षेप का दरवाजा खुल गया। इस आंदोलन ने पहली बार यह सिद्ध किया कि तंत्र की नहीं, लोक की ताकत से लोकतंत्र की कुंडली लिखी, बनाई व बदली जाती है।
“भ्रष्टाचार मिटाना, बेरोजगारी दूर करना, शिक्षा में क्रान्ति लाना, आदि ऐसी चीजें हैं जो आज की व्यवस्था से पूरी नहीं हो सकतीं; क्योंकि वे इस व्यवस्था की ही उपज हैं. वे तभी पूरी हो सकती हैं जब सम्पूर्ण व्यवस्था बदल दी जाए. और, सम्पूर्ण व्यवस्था के परिवर्तन के लिए क्रान्ति, ’सम्पूर्ण क्रान्ति’ आवश्यक है।”- जयप्रकाश नारायण
जयप्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति के आंदोलन के दौरान एकाधिक बार यह स्वीकार किया कि जब वे अंधेरे में टटोल रहे थे कि लोकतंत्र के इस मृत होते ढ़ांचे में प्राण-संचार करने की रणनीति क्या होगी तब गुजरात के नवनिर्माण आंदोलन के युवाओं ने और फिर बिहार के युवाओं ने उनका रास्ता दिखलाया। ऐसा कहना उनका विनय-मात्र नहीं था बल्कि युवा-शक्ति की असीम संभावना को रेखांकित करना भी था। अदम्य उत्साह और अपूर्व साहस से भरे युवक जयप्रकाश की सेना में शामिल हुए और फिर वह सब हुआ जिसने आपातकाल का संवैधानिक अमोघ शस्त्र भी बेकार कर दिया और आजादी के बाद पहली बार दिल्ली की केंद्रीय सत्ता से कांग्रेस का एकाधिकार टूटा।
एक गैर- कांग्रेसी सरकार बनी। लेकिन जयप्रकाश ने कहा जरूर कि यह सरकार मेरी कल्पना की संपूर्ण क्रांति को साकार करने वाली सरकार नहीं है क्योंकि वह परिकल्पना किसी सरकार के बूते साकार नहीं हो सकती है। इसलिए बीमार व बूढ़े जयप्रकाश ने अपनी क्रांति की फौज अलग से सजाने की तैयारी शुरू की और दिल्ली की नई सरकार के एक साल का समय दिया। कहा, इस अवधि में मैं आपकी आलोचना आदि नहीं करूंगा लेकिन देखूंगा कि जनता से हमने जो वादा किया है, आप उसकी दिशा में कितना और कैसे काम कर रहे हैं। एक साल के बाद मैं आगे की रणनीति बनाऊंगा।
जयप्रकाश नारायण को वर्ष 1977 में हुए ‘संपूर्ण क्रांति आंदोलन के लिए जाना जाता है लेकिन वह इससे पहले भी कई आंदोलनों में शामिल रहे थे। उन्होंने कांग्रेस के अंदर सोशलिस्ट पार्टी योजना बनायी थी और कांग्रेस को सोशलिस्ट पार्टी का स्वरूप देने के लिए आंदोलन शुरू किया था। इतना ही नहीं जेल से भाग कर नेपाल में रहने के दौरान उन्होंने सशस्त्र क्रांति शुरू की थी। इसके अलावा वह किसान आंदोलन, भूदान आंदोलन, छात्र आंदोलन और सर्वोदय आंदोलन सहित छोटे-बड़े कई आंदोलनों में शामिल रहे और उन्हें अपना समर्थन देते रहे। रामबहादुर राय ने बताया कि जयप्रकाश नारायण के ‘संपूर्ण क्रांति’ आंदोलन का उद्देश्य सिर्फ इंदिरा गांधी की सरकार को हटाना और जनता पार्टी की सरकार को लाना नहीं था, उनका उद्देश्य राष्ट्रीय राजनीति में एक बड़ा बदलाव लाना था।
लोकनायक नें कहा कि सम्पूर्ण क्रांति में सात क्रांतियाँ शामिल है- राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, शैक्षणिक व आध्यात्मिक क्रांति । इन सातों क्रांतियों को मिलाकर सम्पूर्ण क्रान्ति होती है। सम्पूर्ण क्रांति की तपिश इतनी भयानक थी कि केन्द्र में कांग्रेस को सत्ता से हाथ धोना पड़ गया था। जय प्रकाश नारायण जिनकी हुंकार पर नौजवानों का जत्था सड़कों पर निकल पड़ता था। बिहार से उठी सम्पूर्ण क्रांति की चिंगारी देश के कोने-कोने में आग बनकर भड़क उठी थी। जयप्रकाश जी के लिए यह दुर्भाग्य की बात थी कि उनका अनुयायी होने का तो सभी दावा करते थे, लेकिन उनके सपनों के साथ निष्ठा के साथ अपने आचरण को प्रभावित करना अधिकांश लोगों ने नहीं किया। इसीलिए 1977 में जनता क्रांति के बाद भी जब बुनियादी राजनीतिक सुधार नहीं हुए और शिक्षा और रोजगार की उपेक्षा की गयी, तो जयप्रकाश जी ने असंतोष को लिखित रूप में तबके प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को भेजने में संकोच नहीं किया।
जयप्रकाश जी की सबसे बड़ी विरासत राजनीति में लोकनीति को प्राथमिकता देना और राजसत्ता से लोकशक्ति को महत्वपूर्ण मानना रहा है। जयप्रकाश जी शायद दलविहीन लोकतंत्र के सपने के साथ जोड़कर याद किये जाते हैं, लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि भारत की तीन शानदार राजनीतिक पार्टियों के निर्माण में जयप्रकाश जी ने बुनियादी योगदान किया था। 1948 का कांग्रेस पार्टी, समाजवादी पार्टी और 1977-78 में जनता पार्टी। इस प्रसंग को रेखांकित करने का यह अभिप्राय है कि जयप्रकाश जी लकीर के फकीर नहीं थे, वह मूलत: एक समाजवौज्ञानिक थे, जिसने परिस्थिति के अनुकूल या प्रतिकूल होने पर दिशा में सुधार करने में कभी कोई संकोच नहीं किया। वह राजनीतिक वाद के समर्थक नहीं थे। अपनी छवि के प्रति तो उन्हें कोई चिंता ही नहीं थी। इसीलिए अपने समय के तमाम अलोकप्रिय प्रश्नों पर खुलकर साहस के साथ मानवीयता की राह पकड़ी। और तिब्बत से लेकर हंगरी तक उनके दिखाये रास्ते पर लोगों ने जाने की निर्णय किया।
आज भी जयप्रकाश जी द्वारा भारत की निर्धनता, कृषि, नक्सल समस्या, शिक्षा में नवनिर्माण और सबसे ऊपर लोकतंत्र को जनसाधारण के शक्ति का माध्यम बनाना प्रासंगिक है। लेकिन, यह अफसोस की बात है कि जयप्रकाश जी के नाम पर विश्वविद्यालय, चिकित्सा केंद्र और हवाई अड्डे तक बन गये, लेकिन राजनीति के क्षेत्र में जयप्रकाश जी के रास्ते पर चलनेवालों का अभाव है। यह जरूरी है कि भारत के भविष्य के बारे में लगातार सोचने और रचनात्मक तरीके से रास्ता बनाने वाले भारतरत्न जयप्रकाश जी के विचारों और उनके चलाये गये कार्यक्रमों का पुन: अध्ययन मूल्यांकन किया जाये, क्योंकि आज हम जहां खड़े हैं, वहां बाजारवाद, भोगवाद और व्यक्तिवाद बढ़ता जा रहा है।
भारत देश जयप्रकाश जी को त्याग-तपस्या के प्रतीक और जनहित के लिए सर्वस्व निछावर करने वाले महान योद्धा तथा जनभावना को स्वर देने वाले विचार-क्रांति के महावीर की तरह हमेशा याद रखेगा। उन्हें कभी कोर्इ मोह बाँध न सका, पद-लिप्सा उन्हें स्पर्श भी न कर सकी। वह तो बस, लोकसेवा का सूत्र थामें जीवन भर चलते रहे-जलते रहे। यह भारत देश का सामाजिक एवं राष्ट्रिय सत्य है कि भारत के सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन की थाली में वह तुलसीदल की तरह सर्वाधिक पवित्र आत्मा थे। उनका संपूर्ण जीवन जैसे पुरातन शास्त्रों की पवित्रता की सर्वाधिक सटीक और सामयिक व्याख्या थी।
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