आज भी मौजूं है इश्क-ओ-इंकलाब के मिज़ाज़ का शाहकार 'मजाज'
दरअसल मजाज प्रगतिशीलता के सारे तत्वों के स्वाभाविक समर्थक थे। जज्बाती तबीयत वाले मजाज हर उस वंचित इंसान से नजदीकी महसूस करते थे जिसे उसका बुनियादी हक नहीं मिला। यही निकटता उन्हे प्रगतिशीलता की राह पर ले गई।
मुक्ति और नारीवाद के जिस आन्दोलन की बात आज होती है उसे मजाज 30 के दशक में ही अपनी नज्मों के जरिये कह रहे थे। उनकी शायरी रूमानी होते हुए भी औरत को किसी दूसरे जहां की शै नहीं मानती थी।
उनकी रूमानी शायरी से प्रभावित आलोचक जाफर अली खान 'असर' लखनवी उनके बारे में कहते हैं कि, उर्दू में एक कीट्स पैदा हुआ था लेकिन इन्कलाबी भेडिय़े उसे उठा ले गये लेकिन तमाम मतभेदों के बावजूद मजाज के फन को सभी ने सलाम किया है।
दर्द, टूटन, तड़पन, बगावत और शिकस्त जैसे जज्जबातों की रोशनाई से वक्त की पेशानी पर इश्क और इंकलाब की इबारतों का शाहकार रचने वाले उर्दू के जॉन कीट्स असरार-उल-हक 'मजाज' ने अवध के इलाके रुदौली में 1909 में अपनी आंखे खोली थी। महज एक ही कविता संग्रह 'आहंग' के प्रकाशन के बाद उर्दू शायरी के कीट्स का खिताब मिलना तस्दीक करता है कि वह अपने जमाने के शायरों से कितना आगे थे। दरअसल अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में बीए की पढ़ाई के दौरान 'मजाज' की शायरी को एक मुकाम मिला।
यहां उस दौर में मशहूर शायरों की एक पूरी जमात थी जिनमें मोईन अहसन जज्बी, अली सरदार जाफरी और जांनिसार अख्तर भी शामिल थे लेकिन इन सबमें जो नाम सबसे ज्यादा मकबूल हुआ वो मजाज लखनवी का ही था। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का तराना भी मजाज का ही लिखा हुआ है। कम उम्र में ही मजाज ने उर्दू शायरी को उस दौर में जो दे दिया, उसके समानांतर कई दशक देख चुके शायर भी नहीं आ पाते। मजाज की शायरी में एक ओर प्रेम और रूमानियत हिलोरे ले रही थीं तो वहीं वर्जनाओं, विधानों को तोड़ती प्रगतिशीलता भी थी।
दरअसल मजाज प्रगतिशीलता के सारे तत्वों के स्वाभाविक समर्थक थे। जज्बाती तबीयत वाले मजाज हर उस वंचित इंसान से नजदीकी महसूस करते थे जिसे उसका बुनियादी हक नहीं मिला। यही निकटता उन्हे प्रगतिशीलता की राह पर ले गई। स्त्री मुक्ति और नारीवाद के जिस आन्दोलन की बात आज होती है उसे मजाज 30 के दशक में ही अपनी नज्मों के जरिये कह रहे थे। उनकी शायरी रूमानी होते हुए भी औरत को किसी दूसरे जहां की शै नहीं मानती थी। एक बार मशहूर फिल्म अभिनेत्री नर्गिस जब लखनऊ आईं तो मजाज का आटोग्राफ लेने गयीं थीं। नर्गिस के सर पर तब सफेद दुपट्टा था इस पर मजाज ने नर्गिस की डायरी पर अपने दस्तखत के साथ अपना ये शेर लिख दिया था-
तेरे माथे पे यह आंचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन,
तू इस आंचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था।
यह कालजयी शेर आज भी जिन्दगी की जद्दोजहद में औरत की बराबरी और उसके निसाई हुस्न, दोनो का अहसास दिलाता है। काबिले गौर है कि मजाज ने इन्कलाब और तब्दीली के नगमें लिखे जरूर हैं, लेकिन वह किसी एक इन्कलाब के नगमा-खवां नहीं, वह जिन्दगी के नगमा-खवां हैं, और उस के हुस्न, दिलकशी और मसर्रत के लिए, हमेशा एक ताजा इन्कलाब की तमन्ना करते हैं।
आओ, मिलकर इन्कलाबे ताजहतर पैदा करें,
दहर पर इस तरह छा जाएं कि सब देखा करें।
वह तरक्की पसंद तहरीक के नुमाइंदा शायरों में थे। जिन्दगी की बदलती हुई कदरों और असरी तकाजों पर उन की गहरी निंगाह थी। मजाज की शायरी रूमानियत या इन्कलाबी रूमानियत की मिसाल बाद में है, पहले वह अपने अहद की मिससियत की अलामत है। वह उस वक्त की जिन्दगी, तहजीब, तजादात, जद्दो-जेहद, उस वक्त की घुटन, तशनगी और बेबसी की अलामत है। असरार-उल-हक 'मजाज' लखनवी उर्दू शायरी का एक ऐसा नाम है जिसे मुख्तलिफ लोगों ने मुख्तलिफ नजरिये से देखा है। फैज़ उन्हें इन्कलाब का मुगन्नी (गायक) करार देते हैं तो उनकी रूमानी शायरी से प्रभावित आलोचक जाफर अली खान 'असर' लखनवी उनके बारे में कहते हैं कि, उर्दू में एक कीट्स पैदा हुआ था लेकिन इन्कलाबी भेडिय़े उसे उठा ले गये लेकिन तमाम मतभेदों के बावजूद मजाज के फन को सभी ने सलाम किया है।
जानकारी के लिए बता दें कि मजाज का एक ही कविता-संग्रह प्रकाशित हुआ है - 'आहंग' और बस इसी संग्रह के दम पर मजाज को उर्दू का कीट्स कहा जाता है। इस बात से मालूम होता है कि मजाज की लेखनी में कितना दम था। प्रमाण के लिए यह शेर मौजूद है
अपने दिल को दोनों आलम से उठा सकता हूं मैं
क्या समझती हो कि तुमको भी भुला सकता हूं मैं
बड़ी-बड़ी महफिलों की रौनक बनने वाले मजाज को मुफलिसी और गैर बराबरी से जूझते और टूटते समाज पर सरमाएदारी के असर का पूरा इल्म था। एक तरफ भूख से तड़पती आबादी तो दूसरी ओर ज्यादा खाने से इलाज को मजबूर जमात। एक तरफ कोठों की जीनत बनने को मजबूर जवानी की आह के सर्द आंसू तो दूसरी तरफ अस्मत के सौदागरों की आबाद होती महफिलें में बेशर्मी के कहकहें। तब मजाज लिखते हैं कि,
कलेजा फुंक रहा है और जबां कहने से आरी है,
बताऊं क्या तुम्हें क्या चीज यह सरमाएदारी है,
न देखें हैं बुरे इसने, न परखे हैं भले इसने,
शिकंजों में जकड़ कर घोंट डाले हैं गले इसने।
महल में नाचती है रक्सगाहों में थिरकती है।
जिधर चलती है बर्बादी के सामां साथ चलते हैं,
नहूसत हमसफर होती है शैतान साथ चलते हैं।
यह अक्सर टूट कर मासूम इंसानों की राहों में,
खुदा के जमजमें गाती है, छुपकर खनकाहों में।
यह गैरत छीन लेती है, हिम्मत छीन लेती है,
यह इंसानों से इंसानों की फतरत छीन लेती है।
बेबसी की तड़पपड़ाहट और बेखुदी के आलम में बगावत की शमशार ले कर वह ऐलान करते हैं कि
बढ़ के इस इंदर-सभा का, साज-ओ-सामां फूंक दूं
इस का गुलशन फूंक दूं, उस का शबिस्तां फूंक दूं
तख्त-ए-सुल्तां क्या, मैं सारा कस्र-ए-सुल्तां फूंक दूं
ऐ गम-ए-दिल क्या करूं, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं
जी में आता है, ये मुर्दा चांद-तारे नोंच लूं
इस किनारे नोंच लूं, और उस किनारे नोंच लूं
एक दो का जिक्र क्या, सारे के सारे नोंच लूं
ऐ गम-ए-दिल क्या करूं, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं
इंकलाब और रूमानियत की आवाज 'मजाज' की जिन्दगी के हालात बड़े दु:खद थे। कभी पूरी अलीगढ़ यूनिवर्सिटी, जहां से उसने बी.ए. किया था, उस पर जान देती थी। गल्र्स कालेज में हर जबान पर उसका नाम था। लेकिन लड़कियों का वही चहेता शायर जब 1936 ई. में रेडियो की ओर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'आवाज' का सम्पादक बनकर दिल्ली आया तो एक लड़की (मजाज जिस लड़की को चाहते थे वो शादीशुदा थी) के ही कारण उसने दिल पर ऐसा घाव खाया जो जीवन-भर अच्छा न हो सका।
एक वर्ष बाद ही नौकरी छोड़कर जब वह अपने शहर लखनऊ को लौटे तो उसके सम्बन्धियों के कथनानुसार वह प्रेम की ज्वाला में बुरी तरह फुंक रहे थे। और उन्होने बेतहाशा, शराब पीनी शुरू कर कर दी थी। इस्मत चुगताई कहते हैं कि मजाज की शराब छुड़ाने की हमने बहुत कोशिश की, लेकिन उसके शराबी दोस्तों ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा। 'मजाज' को खाने की कोई चिंता न थी, कपड़े फट गए हैं या मटमैले हैं, इसकी भी उसे कोई परवाह न थी। यदि कोई धुन थी तो बस यही कि कहां से, कब और कितनी मात्रा में शराब मिल सकती है! मजाज की जिंदगी उनकी दीवानगी, महकदे के चक्करों और बेपरवाही में गुजर गई। शायद उनके खुद कहे ये शेर उनके जीवन की सच्ची कहानी कहते हैं।
कुछ तो होते हैं मोहब्बत में जुनूं के आसार
और कुछ लोग भी दीवाना बना देते हैं
हम महकदे की राह से होकर गुजर गए
वर्ना सफर हयात का बेहद तवील था
खैर 6 दिसम्बर 1955 ई0 को पेपर मिल कालोनी, निशातगंज के कब्रिस्तान में दफ्न इश्क और इंकलाब के दस्तखत मजाज के इन्तकाल को 63 साल से ज्यादा गुजर चुके हैं, लेकिन उस आवाज का असर, उसकी शख्सियत की तरहदारी, उसकी शायरी की रजामियत और हौसलामंदी आज भी उसी तरह कायम और कबूल है। मजाज की यह खुसूसियत है कि वह अपने अहद की आवाज भी हैं और आने वाले जमाने की आवाज भी। जब तक इन्सानियत जुल्म, नाइंसाफी, दहशतगर्दी और ऊंच-नीच का शिकार है, जब तक नौजवान अपनी मोहब्बत और अपनी जिन्दगी की ताबीर के लिए आवारा है, जब तक 'बदलाव' के लिए खूने दिल नज़र करने की जरूरत है, मजाज के कलाम की कशिश बरकरार रहेगी। मजाज की यह आवाज आज भी उसी तरह दिलकश, उसी तरह खूबसूरत और दिल-आवेज है, और मुस्करा कर आने वाले जमाने से कह रही है-
जो हो सके, हमें पामाल करके आगे बढ़,
न हो सके तो, हमारा जवाब पैदा कर।
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