Brands
YSTV
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
Yourstory
search

Brands

Resources

Stories

General

In-Depth

Announcement

Reports

News

Funding

Startup Sectors

Women in tech

Sportstech

Agritech

E-Commerce

Education

Lifestyle

Entertainment

Art & Culture

Travel & Leisure

Curtain Raiser

Wine and Food

Videos

ADVERTISEMENT

साही ने जो भोगा, वह उनकी कविता का विषय नहीं रहा

साही ने जो भोगा, वह उनकी कविता का विषय नहीं रहा

Monday November 06, 2017 , 7 min Read

विजयदेव नारायण साही की कविताओं में मर्मस्पर्शी व्यंग्य का पुट होता है। साही का कहना था कि कवि अनिर्वाचित मंत्रदाता हो सकता है। निर्वाचित मंत्री हो जाने से कवि का हित और जनता का अहित होने की आशंका है। 

विजय नरायण साही (फाइल फोटो)

विजय नरायण साही (फाइल फोटो)


आज जहां तक हिन्दी कविता की बात है, हमारे समय के श्रेष्ठ कवि भी, आलोचक भी, और सुधी हिंदी पाठक भी निरंतर आशावादी रहे हैं। आज हिन्दी में पांच दर्जन खराब कवि हैं तो सात दर्जन अच्छे। लेकिन हिंदी कविता में आलोचना की स्थिति बहुत निराशाजनक रही है। 

साही लिखते हैं कि शैली महान क्रांतिकारी कवि था, इसलिए उसको चाहता हूं; लेकिन उसके नेतृत्व में क्रांतिकारी होना नहीं चाहता। बाबा तुलसीदास महान संत कवि थे, लेकिन वह संसद के चुनाव में खड़े हों तो उन्हें वोट नहीं दूंगा।

तीसरा सप्तक में छह अन्य कवियों के साथ समकालीन हिंदी साहित्य में दस्तक देने वाले नई कविता के प्रखर आलोचक विजयदेव नारायण साही से भला कौन परिचित नहीं हो सकता है। इस चर्चित प्रयोगवादी कवि का जन्म वाराणसी में हुआ। इलाहाबाद से अंग्रेजी में एम.ए. करने के बाद तीन वर्ष काशी विद्यापीठ और फिर प्रयाग विश्वविद्यालय में प्राध्यापक रहे। 

सृजन और शिक्षण के साथ वह लगातार सांगठनिक स्तर पर भी सक्रिय रहे। कई बार जेल गए। उनकी कविताओं में मर्मस्पर्शी व्यंग्य का पुट होता है। साही का कहना था कि कवि अनिर्वाचित मंत्रदाता हो सकता है। निर्वाचित मंत्री हो जाने से कवि का हित और जनता का अहित होने की आशंका है। दोनों ही अवांछनीय संभावनाएं हैं। कविता के क्षेत्र में केवल एक आर्य-सत्य हैः दुःख है। शेष तीन राजनीति के भीतर आते हैं। कविता को राजनीति में नहीं घुसना चाहिए। क्योंकि इससे कविता का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा, राजनीति के अनिष्ट की संभावना है। कविता से समाज का उद्धार नहीं हो सकता। 

यदि सचमुच समाज का उद्धार करना चाहते हैं तो देश का प्रधानमंत्री बनने या बनाने की चेष्टा कीजिए। बाकी सब लोग हैं। साही की एक लंबी कविता है 'बहस के बाद', जो हमारे समय की पूरी राजनीतिक, सामाजिक व्यवस्था पर कई गहरे सवाल जड़ती है-

असली सवाल है कि मुख्यमन्त्री कौन होगा ?

नहीं नहीं, असली सवाल है

कि ठाकुरों को इस बार कितने टिकट मिले ?

नहीं नहीं, असली सवाल है

कि ज़िले से इस बार कितने मन्त्री होंगे ?

नहीं नहीं, असली सवाल है

कि ग़फ़ूर का पत्ता कैसे कटा ?

नहीं नहीं, असली सवाल है

कि जीप में पीछे कौन बैठा था ?

नहीं नहीं, असली सवाल है

कि तराजू वाला कितना वोट काटेगा ?

नहीं नहीं, असली सवाल है

कि मन्त्री को राजदूत बनाना अपमान है या नहीं ?

नहीं नहीं, असली सवाल है

कि मेरी साइकिल कौन ले गया ?

नहीं नहीं, असली सवाल है

कि खूसट बुड्ढों को कब तक बरदाश्त किया जाएगा ?

नहीं नहीं, असली सवाल है

कि गैस कब तक मिलेगी ?

नहीं नहीं, असली सवाल है

कि अमरीका की सिट्टी पिट्टी क्यों गुम है ?

नहीं नहीं, असली सवाल है

कि मेरी आँखों से दिखाई क्यों नहीं पड़ता ?

नहीं नहीं, असली सवाल है

कि मुरलीधर बनता है

या सचमुच उसकी पहुँच ऊपर तक है ?

नहीं नहीं, असली सवाल है

कि पण्डित जी का अब क्या होगा ?

नहीं नहीं, असली सवाल है

कि सूखे का क्या हाल है ?

नहीं नहीं, असली सवाल है

कि फ़ौज क्या करेगी ?

नहीं नहीं, असली सवाल है

कि क्या दाम नीचे आयेंगे ?

नहीं नहीं, असली सवाल है

कि मैं किस को पुकारूँ ?

नहीं नहीं, असली सवाल है

कि क्या यादवों में फूट पड़ेगी ?

नहीं नहीं, असली सवाल है

कि शहर के ग्यारह अफसर

भूमिहार क्यों हो गये ?

नहीं नहीं, असली सवाल है

कि बलात्कार के पीछे किसका हाथ था ?

नहीं नहीं, असली सवाल है

कि इस बार शराब का ठीका किसे मिलेगा ?

नहीं नहीं, असली सवाल है

कि दुश्मन नम्बर एक कौन है ?

नहीं नहीं, असली सवाल है

कि भुखमरी हुई या यह केवल प्रचार है ?

नहीं नहीं, असली सवाल है

कि सभा में कितने आदमी थे ?

नहीं नहीं, असली सवाल है

कि मेरे बच्चे चुप क्यों हो गये ?

नहीं नहीं, असली सवाल …

सुनो भाई साधो असली सवाल है

कि असली सवाल क्या है?

विजयदेव नारायण साही की प्रमुख कृतियाँ हैं - मछलीघर, साखी, संवाद तुमसे, आवाज़ हमारी जाएगी, जायसी, साहित्य और साहित्यकार का दायित्व,वर्धमान और पतनशील, छठवाँ दशक, साहित्य क्यों, लोकतंत्र की कसौटियाँ, वेस्टर्निज्म एंड कल्चरल चेंज, कुर्सी का उम्मीदवार,कोठी का दान, एक निराश आदमी, सुभद्र, धुले हुए रंग, बेबी का कुत्ता, रामचरन मिस्त्री का बेटा के अलावा अनूदित साहित्य में हैं - गार्गांतुआ (फ्रांसीसी उपन्यास), सोसियोलोजिकल क्रिटिसिजम (ग्वेसटेव रुडलर - फ्रेंच से अंग्रेज़ी में) आदि।

आज जहां तक हिन्दी कविता की बात है, हमारे समय के श्रेष्ठ कवि भी, आलोचक भी, और सुधी हिंदी पाठक भी निरंतर आशावादी रहे हैं। आज हिन्दी में पांच दर्जन खराब कवि हैं तो सात दर्जन अच्छे। लेकिन हिंदी कविता में आलोचना की स्थिति बहुत निराशाजनक रही है। अकादमिक आलोचना ने आधुनिक कविता को छुआ तक नहीं है। रामविलास शर्मा ने ‘निराला' के अलावा उनके आस पास के किसी युवा कवि पर भी नहीं लिखा। मलयज पहले स्थान पर रहे हैं तो उनके बाद विजयदेव नारायण साही और तीसरे स्थान पर नामवर सिंह। जायसी पर दिए गए साही के व्याख्यान एवं नई कविता संबंधी उनके आलेख उनकी प्रखर आलोचकीय क्षमता के परिचायक हैं।

कविता अज्ञेय की हो या नरेश सक्सेना की, अशोक वाजपेयी की हो या माहेश्वर तिवारी की, विजयदेव नारायण साही उनमें एक श्रेष्ठ कवि हैं। साही का कहना था कि इससे पहले कि आलोचक मुझसे पूछे कि समाज का नागरिक होने के नाते आप ऐसा क्यों लिखते हैं, वैसा क्यों नहीं लिखते, मैं आलोचक से पूछता हूं कि पहले यह सिद्ध कीजिए कि समाज का नागरिक होने के नाते कविता लिखना भी मेरा कर्त्तव्य है। कवि अ-कवियों से अधिक संवेदनशील या अनुभूतिशील नहीं होता। जो कवि इसके विपरीत कहते हैं उनका विश्वास मत कीजिए; वे अ-कवियों पर रंग जमाने के लिए ऐसा कहते हैं। यह संभव है कि कवि की संवेदना का क्षेत्र अ-कवि से कम हो। प्रायः यही होता है।

साही लिखते हैं कि शैली महान क्रांतिकारी कवि था, इसलिए उसको चाहता हूं; लेकिन उसके नेतृत्व में क्रांतिकारी होना नहीं चाहता। बाबा तुलसीदास महान संत कवि थे, लेकिन वह संसद के चुनाव में खड़े हों तो उन्हें वोट नहीं दूंगा। नीत्शे का 'जरदुस्त्र उवाच' सामाजिक यथार्थ की दृष्टि से जला देने लायक है, पर कविता की दृष्टि से महान कृतियों में से एक है। उसकी एक प्रति पास रखता हूं और आपसे भी सिफारिश करता हूं। कविता पर एक विस्तृत टिप्पणी में साही लिखते हैं कि जो मैंने भोगा है वह सब मेरी कविता का विषय नहीं है। कविता का विषय वह होता है जो अब तक की भोगने की प्रणाली में नहीं बैठ पाता।

हर कलाकृति ठोस, विशिष्ट अनुभूति से उपजती है और उसका उद्देश्य अनुभूति की सामान्य कोटियों को नए सिरे से परिभाषित करना होता है। परिभाषा विशिष्ट और सामान्य में सामंजस्य का नाम है। बिना सामंजस्य के भोगने में समर्थ होना असंभव है। अ-कवि अपनी विशिष्ट अनुभूति और अब तक उपलब्ध सामान्य परिभाषा में असामंजस्य नहीं देखता। कभी दीख भी जाता है तो थोड़ी-सी बेचैनी के बाद वह अनुभूति को जबरदस्ती बदलकर परिभाषा में बैठा लेता है। यह अ-कवि का सौभाग्य है। कवि अभागा है। वह विशिष्ट अनुभूति को बदल नहीं पाता। तब तक बेचैन रहता है, जब तक परिभाषा को बदल नहीं लेता। 

असामंजस्य देखने का काम बुद्धि करती है। परिभाषा बदलने का काम कल्पना करती है। शब्दों में अभिव्यक्ति अभ्यास के द्वारा होती है। यह सब एक निमिष में हो सकता है, इसको एक युग भी लग सकता है; कवि-कवि पर निर्भर है। कवि की अमरता गलतफहमी पर निर्भर करती है। जिस कवि में गलत समझे जाने की जितनी अधिक सामर्थ्य होती है वह उतना ही दीर्घजीवी होता है। कविता राग है। राग माया है। माया और अध्यात्म में वैर है। अतः आध्यात्मिक कविता असंभव है। जो इसमें दुविधा करते हैं उन्हें न माया मिलती है न राम। जैसा हाल छायावादियों का हुआ। इससे शिक्षा लेनी चाहिए।

यह भी पढ़ें: ममता कालिया की कविताओं में छटपटाती घरेलू स्त्री