ठेठ ग़ज़लकार रामकुमार कृषक के बड़े निराले ठाट
हिंदी के जाने-माने ग़ज़लकार रामकुमार कृषक का आज (01 अक्तूबर) जन्मदिन है। वह ग़ज़ल पर केंद्रित हिंदी की विशिष्ट पत्रिका 'अलाव' के संपादक भी हैं। विधा में वह मुख्यतः ग़ज़लकार हैं और अपने शब्दों में जनपक्षधर बाबा नागार्जुन की तरह ठेठ।
रामकुमार कृषक साहित्य की तरह पत्रकारिता में भी समय-समय पर हस्तक्षेप करते रहते हैं। वह कहते हैं कि पत्रकारिता एक लोकतांत्रिक,जनतांत्रिक कर्म है। इसका पक्ष-विपक्ष हो सकता है। मुख्यधारा की पत्रकारिता की पहुँच समाज में व्यापक होती है, जबकि साहित्यिक पत्रकारिता की पहुँच सीमित होती है।
दिल्ली के नागार्जुन नगर में रहते हैं हिंदी के प्रतिष्ठित कवि रामकुमार कृषक, अपने स्वभाव, रहन-सहन और शब्दों में भी बाबा नागार्जुन की तरह ठेठ, स्वाभिमानी और जनपक्षधर। वह 'अलाव' नाम से एक पत्रिका निकालते हैं। विधा में वह मुख्यतः ग़ज़लकार हैं। समय-समय पर वह उनकी पत्रिका के अंक विशेषकर ग़ज़लों पर ही केंद्रित होते हैं। वैसे अब तक उनके 'फिर वही आकाश', 'आदमी के नाम पर मज़हब नहीं', 'मैं हूं हिन्दुस्तान', 'लौट आएंगी आंखें', 'बापू', 'ज्योति' आदि कविता संग्रह, 'नमक की डलिया' कहानी संग्रह, 'सुर्ख़ियों के स्याह चेहरे' गीत संग्रह, 'नीम की पत्तियाँ', 'अपजस अपने नाम' आदि ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। रामकुमार कृषक का जन्म 01 अक्टूबर 1943 को मुरादाबाद (उ.प्र.) के गांव गुलड़िया में हुआ था। वह हिन्दी से एम.ए. और साहित्यत्न हैं। वह बच्चों तथा नवसाक्षरों के लिए सात पुस्तकें 'कर्मवाची शील' नाम से संपादित कर चुके हैं। वह बुजुर्ग वय में भी विभिन्न साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों में हर समय सक्रिय रहते हैं। वह जन संस्कृति मंच की दिल्ली इकाई के संस्थापक सदस्य हैं। महत्वपूर्ण काव्य संग्रहों, पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। हिन्दी अकादमी, दिल्ली सहित कुछ अन्य संस्थाओं से वह पुरस्कृत-सम्मानित हो चुके हैं। कृषक जी की एक चर्चित ग़ज़ल है -
चेहरे तो मायूस, मुखौटों पर मुस्कानें दुनिया की।
शो-केसों में सजी हुईं खाली दुकानें दुनिया की।
यों तो जीवन के कालिज में हमने भी कम नहीं पढ़ा,
फिर भी सीख न पाए हम कुछ खास जुबानें दुनिया की।
हमने आँखें आसमान में रख दीं खुल कर देखेंगे,
कंधों से कंधों पर लेकिन हुईं उड़ानें दुनिया की।
इन्क़लाब के कारण हमने जमकर ज़िन्दाबाद किया,
पड़ीं भांजनी तलवारों के भ्रम में म्यानें दुनिया की।
हमने जो भी किया समझवालों को समझ नहीं आया,
खुद पर तेल छिड़ककर निकले आग बुझाने दुनिया की।
बड़े-बड़े दिग्गज राहों पर सूँड घुमाते घूम रहे,
अपनी ही हस्ती पहचानें या पहचानें दुनिया की।
फूट पसीना रोआँ-रोआँ हम पर हँसता कहता है,
क्या खुद को ही दफनाने को खोदीं खानें दुनिया की।
रामकुमार कृषक साहित्य की तरह पत्रकारिता में भी समय-समय पर हस्तक्षेप करते रहते हैं। वह कहते हैं कि पत्रकारिता एक लोकतांत्रिक,जनतांत्रिक कर्म है। इसका पक्ष-विपक्ष हो सकता है। मुख्यधारा की पत्रकारिता की पहुँच समाज में व्यापक होती है, जबकि साहित्यिक पत्रकारिता की पहुँच सीमित होती है। ऐसे में साहित्यिक पत्रकारिता के प्रयासों को जब हम सम्मान देते हैं तो इसका अर्थ होता है कि हम मूल्यों से जुड़े रहना चाहते हैं। अपनी पत्रिका 'अलाव' के संबंध में वह कहते हैं कि अगस्त, 1988 में अपने कुछ मित्रों के साथ उन्होंने इसकी शुरुआत की थी। वह यात्रा आज भी जारी है। हमारी कोशिश रही है कि अपने समय के सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और भाषा-साहित्य से जुड़े मुद्दों पर बेबाकी से बात की जाए। वह लिखते हैं-
आइए गांव की कुछ ख़बर ले चलें।
आँख भर अपना घर खंडहर ले चलें।
धूल सिंदूर-सी थी कभी माँग में,
आज विधवा-सरीखी डगर ले चलें।
लाज लिपटी हुई भंगिमाएँ कहाँ,
पुतलियों में बसा एक डर ले चलें।
एक सुबहा सुबकती-सिमटती हुई,
साँझ होती हुई दोपहर ले चलें।
देह पर रोज़ आँकी गई सुर्खियाँ,
चीथड़े खून से तर-ब-तर ले चलें।
राम को तो सिया मिल ही मिल जाएगी,
मिल सकें तो जटायु के पर ले चलें।
खेत-सीवान हों या कि हों सरहदें,
चाक होते हुए सब्ज़ सिर ले चलें।
राजहंसों को पाएँ न पाएँ तो क्या,
संग उजड़ा हुआ मानसर ले चलें।
देश दिल्ली की अँगुली पकड़ चल चुका,
गाँव से पूछ लें अब किधर ले चलें।
‘कृषक’ कहते हैं कि रचनाकारों को अपने सरोकारों की तलाश में मनुष्य जीवन को समग्रता में देखना होगा। किताबें हमें संस्कार देती हैं, लेकिन इन किताबों को भी वर्तमान परिदृश्य में परखना होगा कि वे आज कैसे संस्कार दे रही हैं। इस प्रकार जन उत्सव में सभी भाषाओं के लेखक रचनाकार अलोकतांत्रिक पद्धति के विरोध में खुल कर बोलें। ‘कृषक’ कहते हैं कि हिंदी ग़ज़ल की रचनात्मक यात्रा आसान नहीं है। ग़ज़ल की अपनी विशिष्ट प्रतिबद्धताएं होती हैं। समकालीन यथार्थ से कन्नी काटने वाले ग़ज़लकार कभी इस विधा में सशक्त नहीं हो सकते हैं। ग़ज़ल के शिल्प, उसकी संस्कृति को गहरे तक आत्मसात करना होता है। हिंदी की समूची काव्य परंपरा में ग़ज़ल को पृथक स्थान मिला हुआ है। वह लिखते हैं -
घेर कर आकाश उनको पर दिए होंगे।
राहतों पर दस्तख़त यों कर दिए होंगे।
तोंद के गोदाम कर लबरेज़ पहले,
वायदों से पेट खाली भर दिए होंगे।
सिल्क खादी और आज़ादी पहनकर,
कुछ बुतों को चीथड़े सी कर दिए होंगे।
हों न बदसूरत कहीं बँगले-बगीचे,
बेघरों को जंगलों में घर दिए होंगे।
प्रश्नचिह्नों पर उलट सारी दवातें,
जो गए-बीते वो संवत्सर दिए होंगे।
गोलियाँ खाने की सच्ची सीख देकर,
फिर तरक्क़ी के नए अवसर दिए होंगे।
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