“देश के लिए हॉकी को बचा लो”
भारतीय हॉकी टीम के बेहतरीन मिडफील्डर 16 साल तक देश के लिए हॉकी खेलने का गौरवसाल 1992,1996, 2000 में ओलंपिक टीम में शामिलसीनियर स्तर पर मुकेश ने 80 अंतर्राष्ट्रीय गोल कियेदस साल से हॉकी अकादमी खोलने की कोशिश में जुटेहॉकी अकादमी के लिए घर तक बेचा हॉकी के गिरते स्तर से चिंतित
दुनिया का सबसे खुशनसीब आदमी वो होता है जो अपने हिसाब से जीवन जीता है। जो सपने देखता है, उसे पाने में सफल रहता है। यही वजह है कि उसका सपना सिर्फ एक सामान्य सपना नहीं रह जाता है बल्कि वो जुनून में तब्दील हो जाता है। हालांकि देखा ये भी जाता है कि कई लोगों में अपने सपने के प्रति दीवानगी समय के साथ थोड़ी कमज़ोर होती जाती है, लेकिन कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो ताउम्र उस जुनून के साथ जीते मरते हैं। जिसने सपने को जीने मरने का सबब बना लिया वही महानता के शिखर को छूता है। नंदनूरी मुकेश कुमार उसी श्रेणी में आते हैं। अपने ज़माने में दुनिया के सबसे बेहतरीन मिडफील्डरों में शामिल रहे हॉकी खिलाड़ी नंदनूरी मुकेश कुमार। हॉकी के प्रति उनकी दीवानगी की एक बेमिसाल कहानी है। एक खिलाड़ी के हौसले और जुनून की अद्भुत कहानी। ऐसा जुनून जिसने भारत की एक अनजान बस्ती में एक मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मे एक बालक को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर ला खड़ा किया। भारत के लिए 16 साल तक हॉकी खेलने वाले मुकेश कुमार के लिए हॉकी ही जीवन का सबसे बड़ा मक़सद रहा है। मुकेश के लिए अपना आखिरी अंतर्राष्ट्रीय मैच खेले एक अरसा गुज़र गया है, लेकिन हॉकी के लिए उनका जज़्बा और दीवानापन अब भी वैसे ही बरक़रार है। 45 साल के हो चुके मुकेश कुमार का हॉकी के प्रति समर्पण, उन्हें समय समय पर कुछ नया करने के लिए प्रेरित करता रहता है।
हॉकी का पुराना वैभव लौटाने की कोशिश
एक समय था जब दुनिया भर में हॉकी के नाम पर भारत का डंका बजता था। दुनिया के दूसरे देश भारतीय हॉकी खिलाड़ियों के लिए आहें भरते थे और मिसाल देते थे। हमारे खिलाड़ियों को तोड़ने के लिए तरह-तरह के प्रलोभन देते थे। खेल की दुनिया में भारत, हॉकी के बेताज़ बादशाह के नाम से जाना जाता था। लेकिन समय के साथ दूसरे देश तो बेहतर होते गए। आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल से वो ऊपर चढ़ते गए और हमारा प्रदर्शन लगातार ख़राब होता गया। अपने उसी पुराने पुराने वैभव को वापस लाने के लिए मुकेश कुमार जी-जान लगाना चाहते हैं। लेकिन, ऐसा कर पाने में उनके सामने कई दिक्कतें आ रही हैं। वो पिछले 10 सालों से हैदराबाद में हॉकी अकादमी खोलने की कोशिश में लगे हुए हैं। पर कहते हैं ईमानदार कोशिश को इतनी आसानी से मंज़िल कहां मिलती है। सरकारी काम-काज के तरीकों और उदासीन नौकरशाही की वजह से मुकेश कुमार की अकादमी पन्नों में दम तोड़ने को मजबूर है।
योर स्टोरी से एक ख़ास मुलाकात में मुकेश कुमार ने जहाँ अपने खेल जीवन के सबसे बेहतरीन पलों को याद किया वहीं भारत में राष्ट्रीय खेल हॉकी के लगातार गिरते स्तर पर अपनी पीड़ा का खुलकर इज़हार किया।
हॉकी खेल नहीं ज़िंदगी से बढ़कर
मुकेश ने योर स्टोरी को बताया कि बचपन से ही हॉकी उनके लिए ज़िंदगी रही। हर सांस सिर्फ हॉकी के लिए ही धड़कता है। हॉकी की वजह से ही उन्हें रोज़ी-रोटी मिली। आज जो भी शोहरत और सम्मान है उसका एकमात्र कारण हॉकी है।
मुकेश के परिवार में खेल के प्रति बहुत ज्यादा दिलचस्पी थी। एक मायने में मुकेश का परिवार खिलाड़ियों से ही भरा था। मुकेश तीन भाइयों में मंझले थे। सिकंदराबाद शहर के सिख विलेज में मुकेश का मकान था जो हॉकी के लिए काफी लोकप्रिय था। बचपन से ही पूरे माहौल में, सोते-जागते, उठते-बैठते सिर्फ हॉकी ही दिलोदिमाग पर छाया रहता था। इसलिए मुकेश के लिए भी हॉकी पहली पसंद बन गयी। वैसे तो वे अपने दोस्तों के साथ बचपन में गिल्ली-डंडा और कांच की गोलियों से भी खेला करते थे, लेकिन धीरे-धीरे हॉकी के प्रति बढ़ती रूचि की वजह से दूसरे खेल छूटते गये। मुकेश जिस स्कूल और कॉलेज में पढ़े वहां भी हॉकी को बहुत ज्यादा तवज्जो दिया जाता था। मुकेश के लिए स्कूल-कॉलेज की हॉकी टीम में अपनी जगह बनाने में कोई दिक्कत नहीं हुई। कुछ ही दिनों में मुकेश ने अपने प्रतिभा के बल पर खूब नाम कमा लिए। कालेज के दिनों में ही मुकेश अपने शहर के सबसे मशहूर हॉकी खिलाड़ी हो गए।
भारतीय हॉकी में बड़ा नाम
16 अप्रैल, 1970 को हैदराबाद के एक माध्यम वर्गीय परिवार में जन्मे मुकेश ने अपने अंतरराष्ट्रीय कैरियर की शुरुआत 1992 में की थी। हॉकी के प्रति मुकेश की दीवानगी कुछ इस तरह की थी कि उन्होंने खेल के लिए पढ़ाई छोड़ दी। जब वो इंटरमीडिएट में थे तभी उन्हें जूनियर नेशनल टीम के एक कैंप का हिस्सा बनने का मौका मिला। मुकेश को समझ में आने लगा था कि भविष्य राह देख रहा है और वर्तमान उसमें भरपूर सहायता कर रहा है। हुआ भी ऐसी ही मुकेश अपने शहर के पहले ऐसे खिलाड़ी बनने जा रहे थे जो भारतीय जूनियर राष्ट्रीय टीम का हिस्सा होगा। कहते हैं अगर काबिलियत को सही समय मिल जाए और किस्मत साथ दे जाए तो फिर उसे कौन रोक सकता है। इसी दौरान मुकेश ने ऐसे कीर्तिमान स्थापित किये जो कई बड़े खिलाड़ियों के लिए अब भी एक सपना ही है। वैसे तो मुकेश को अपने खेल-जीवन की बहुत सारी घटनाएं आज भी याद हैं, लेकिन जूनियर टीम में रहते हुए उन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ जो गोल किया था उसे वे अपने जीवन की सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण घटना मानते हैं।
उन दिनों की यादें ताज़ा करते हुए मुकेश बताते हैं कि “जूनियर वर्ल्ड कप में भारत और पाकिस्तान के बीच का वो मैच काफी रोमांचक था। दोनों टीमों की प्रतिष्ठा दांव पर थी। काटें की टक्कर हुई। काफी समय तक स्कोर बराबरी पर रहा। लेकिन, ऐन मौके पर मुझे एक मौका मिला और मैंने डाइव मारकर एक शानदार गोल किया और इसी गोल की वजह से हम वो मैच जीत गए।”
इस गोल को जिस किसी ने देखा वो मुकेश का दीवाना बन गया। उस मैच को देखने के लिए भारतीय हॉकी टीम के कई नामचीन खिलाड़ी वहां मौजूद थे। सभी मुकेश की प्रतिभा से बहुत प्रभावित हुए। इसी शानदार गोल की वजह से मुकेश को सीनियर नेशनल टीम में जगह मिल गयी। मुकेश के लिए ये बहुत बड़ी उपलब्धि थी। उन्हें उस समय भारतीय नॅशनल टीम में जगह मिली जब भारत में हॉकी की लोकप्रियता चरम पर थी और भारतीय टीम में जगह पाने के लिए कई दावेदार थे।
मुकेश ने 22 साल की उम्र में ही अपना पहला ओलिंपिक खेला। मुकेश पहली बार 1992 में ओलिंपिक के लिए चुनी गयी भारतीय टीम में शामिल हुए।
मुरली के नाम से अपनों में पहचाने जाने वाला यह खिलाड़ी 1992 के ओलिंपिक की भारतीय टीम में शामिल हुआ। बार्सीलोना में हुए उस ओलिंपिक में भारत को सातवां स्थान प्राप्त हुआ था। बार्सीलोना (1992) के बाद मुकेश अटलांटा (1996) और सिडनी (2000) में हुए ओलिम्पिक खेलों में भी भारतीय टीम का महत्वपूर्ण हिस्सा रहे। मुकेश ने भारत के लिए लगातार तीन ओलिंपिक में अपना योगदान दिया। मुकेश ने दो बार एशियाई खेल और दो बार विश्वकप में भी भारत की नुमाइंदगी की है। अपने 16 साल के लंबे और गौरवशाली खेल-जीवन में मुकेश ने भारत के लिए 300 से ज्यादा अंतर्राष्ट्रीय मैच खेले। उन्हें भारत की राष्ट्रीय हॉकी टीम की कप्तानी करने का भी गौरव हासिल हुआ। मुकेश को उनकी उपलब्धियों के लिए अर्जुन पुरस्कार और "पद्म श्री" से भी नवाज़ा जा चुका है। 1995 में उन्हें अर्जुन पुरस्कार और 2002 में पद्मश्री सम्मान मिला।
पद्मश्री सम्मान की घोषणा वाला वो दिन याद कर मुकेश आज भी फूले नहीं समाते। मुकेश ने कहा,
" मैं एक्चुअली 2001 में ही पद्मश्री की उम्मीद कर रहा था। मेरे बेटी रोज़ दुआ करती कि मुझे पद्मश्री मिले। वो जब भी मंदिर जाती, यही दुआ मांगती। लेकिन मुझे 2001 में नहीं मिला। 2002 में जब मेरे घर ये टेलीग्राम आया कि मुझे पद्मश्री के लिए चुना गया है तो मेरी खुशी की कोई सीमा नहीं रही। मैं सातवें आसमान पर था। खुशी इतनी थी कि मैं खाना-पीना भी भूल गया। इतना जोशीला महसूस कर रहा था कि अगर कोई मुझे ग्राउंड पर ले जाता तो मैं प्रतिद्वंद्वी टीम के खिलाफ कई सारे गोल कर देता। इतनी खुशी थी। इतना जोश था। ख़ास बात तो ये थी कि पद्मश्री मिलने के बाद भी मेरी बेटी मंदिर में पद्मश्री की ही दुआ मांगती थी। उसे आदत जो हो गयी थे। हमें उसे समझाना पड़ा कि उसकी दुआ कबूल हो गयी है और मुझे पद्मश्र मिल चूका है।”
हॉकी फेडरेशन में बदलाव ज़रूरी
पद्मश्री सम्मान मिलने का जोश धीरे-धीरे ठंडा पड़ता गया। बड़े भारी मन के साथ मुकेश कहते हैं कि उनके लिए ये दोनों सम्मान ज्यादा फायदेमंद नहीं रहे। अंतर्राष्ट्रीय हॉकी से रिटायर होने के बाद वे हैदराबाद में हॉकी अकादमी खोल कर नए चैंपियन खिलाड़ी बनाना चाहते थे। लेकिन, किसी ने भी उनकी मदद नहीं की। चौकाने वाली बात तो ये भी है कि अकादमी खोलने की दीवानगी कुछ इस कदर उनपर सवार थी की उन्होंने अपना एक मकान भी बेच दिया। बावजूद इसके अकादमी शुरू नहीं हो पायी। अपनी पीड़ा बांटते हुए मुकेश कहते है कि अकादमी खोलने में हो रही देरी के वजह से उनका स्वभाव बदल गया। वो अचानक गुस्सैल हो गए। छोटी-छोटी बातों पर उन्हें गुस्सा आने लगा। घर में छोटी-छोटी बातों पर पत्नी के साथ तनातनी होने लगी। लेकिन, ऐन मौके पर मुकेश ने खुद को संभाल लिया।
दिलचस्प बात ये कि मुकेश की उम्मीद अभी भी ज़िंदा है, उन्हें यकीन है कि एक न एक दिन वे अकादमी खोलने में कामयाब हो जाएंगे और अकादमी के खुलने के बाद वे देश को चैंपियन खिलाड़ी देंगे। मुकेश भी हॉकी के पूर्व चैंपियन खिलाड़ियों की तरह भारत में हॉकी के लगातार गिरते स्तर से काफी दुःखी हैं। मुकेश का मानना है कि राजनेताओं और नौकरशाहों की हॉकी संघों और फेडरेशन में मौजूदगी की वजह से हॉकी बढ़ नहीं पा रही है। वे कहते हैं कि
“कुछ ताकतवर लोग ऐसे हैं जिन्होंने एसोसिएशन और फेडरेशन में अपनी पोजीशन और कुर्सी को परमानेंट मान लिया है। सालों से यही लोग महत्वपूर्ण पदों पर काबिज हैं। और सबसे बड़े दुःख की बात तो ये है कि ये लोग खिलाड़ियों की ज़रूरतों को समझते ही नहीं। इन्हें खेल और खिलाड़ी की तरक्की में कोई दिलचस्पी भी नहीं। इन लोगों को तो बाद सत्ता का मज़ा लेना है। सालों से एक ही पद पर काबिज़ कुछ लोग कुर्सी छोड़ने तो तैयार ही नहीं हैं। ये तो ऐसे लोग हैं जो चाहते हैं वे मरने तक उसी कुर्सी पर रहें और उनकी मौक के बाद उनका बेटा या बेटी की कुर्सी पर बैठें।”
मुकेश ज़ोर देते हुए कहते है कि “नौकरशाह हॉकी को चला ही नहीं सकते, दौड़ाना तो दूर की बात है। भारत में ज्यादातर फेडरेशनों पर नौकरशाहों का ही क़ब्ज़ा है। नौकरशाहों की वजह से ही भारतीय खिलाड़ी भी छोटे-छोटे काम के लिए भी फाइल लेकर इधर-उधर घूमने पर मजबूर हैं”।
मुकेश की राय में खेल की जानकारी न रखने वाले लोग एसोसिएशन और फेडरेशन से दूर हो जाने चाहिए। अनुभवी, प्रतिभाशाली और भरोसेमंद पूर्व खिलाड़ियों को खेल प्रशासन की ज़िम्मेदारी दी जानी चाहिए। मुकेश के मुताबिक, कई पूर्व खिलाड़ी फिर से हॉकी को समर्पित होने और भारत में बड़े-बड़े चैंपियन पैदा करवाने के लिए तैयार हैं। लेकिन, इनकी कोई सुनने वाला ही नहीं है। उदाहरण देते हुए मुकेश, परगट सिंह का नाम लेते हैं। मुकेश का कहना है कि
“दुनिया-भर में परगट सिंह जैसा डिफेंडर नहीं है। परगट के पास प्रतिद्वंदियों को गोल करने से रोकने के सारे गुर मौजूद हैं। आज के खिलाड़ी परगट सिंह से बहुत कुछ सीख सकते हैं। लेकिन हालत ऐसी है कि खेल से जुड़े अधिकारी परगट सिंह से बात करने को ही तैयार नहीं हैं। मोहम्मद शाहिद, धनराज पिल्लै जैसे खिलाड़ी भी अपनी सेवाएँ देने के लिए तैयार हैं लेकिन कोई सुनने वाला ही नहीं है”।
विदेशी कोचों को भारत में दी जाने वाली अहमियत पर नाराज़गी जाहिर करने हुए मुकेश कहते हैं कि
“भारत में खेल प्रबंधकों और अधिकारियों को भारत के पूर्व खिलाड़ी और उनका अनुभव, उनकी प्रतिभा नज़र ही नहीं आती। और वे ऐसे विदेशी कोच ले आते हैं जिनके पास न पर्याप्त अनुभव है ना ही भारतीय खिलाड़ियों की ताकत और प्रतिभा को समझने और उसका भरसक इस्तेमाल करने की क्षमता। मुकेश कहते हैं फेडरेशन विदेशी कोचों पर लाखों रुपये खर्च करने को तैयार हैं और देसी कोचों से मुफ्त में ट्रेनिंग की उम्मीद करते हैं”।
मुकेश बताते हैं कि जो पूर्व अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ी भारतीय हॉकी में नयी जान फूंकने को तैयार हैं वो लोग आग कल दफ्तरों में कंप्यूटर पर काम रहे हैं या फिर कोई दूसरा दफ्तरी काम-काज। जिन्हें खेल के मैदान पर युवाओं को खेल की बारीकियां सिखाना चाहिए वे सरकारी या निजी दफ्तरों के ताने-बानों में उलझे हैं।
मुकेश कुमार के नाम ओलिंपिक का सबसे तेज़ गोल करने का भी रिकार्ड भी दर्ज़ है। 2002 के सिडनी ओलंपिक्स में मुकेश ने मैच शुरू होने के 37 मिनट में ही ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ गोल कर दिया था। वैसे तो सीनियर स्तर पर मुकेश ने 80 अंतर्राष्ट्रीय गोल किये हैं पर ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ सबसे तेज़ इस गोल को वे सबसे बेस्ट गोल मानते हैं।
इस ट्रिपल ओलिंपियन खिलाड़ी के मुताबिक, अब की हॉकी और पहले की हॉकी में बहुत अंतर है। हॉकी अब अब हुनर और जौहर का खेल नहीं बल्कि ताकत का भी खेल हो गया है। अपने जमाने के धुरंधर खिलाड़ी मुकेश कुमार का मानना है कि भारत में प्रतिभा की कमी नहीं हैं। लेकिन इस प्रतिभा की पहचान नहीं हो पा रही हैं। पहचान हो भी जाती है तो उसे निखारा नहीं जा रहा है।
भारत में खेल-प्रबंधन की हालत पर चुटकी लेते हुए मुकेश कहते हैं कि “राज्यवर्धन सिंह राठौड़, जो ओलंपिक्स में पदक जीत चुके हैं और बहुत बड़े खिलाड़ी हैं उन्हें सूचना और प्रसारण मंत्री बनाया गया है और जिसने अपने जीवन में एक भी मैच नहीं खेल उसे खेल मंत्री बनाया गया है”।
मुकेश की राय में खिलाड़ियों को खेल नीति बनानी चाहिए न कि राजनेताओं और नौकरशाहों को। राजनेताओं और नौकरशाहों की नासमझी और स्वार्थपूर्ण रवैये की वजह से ही भारत में ज्यादातर खेल चौपट हो रहे हैं। मुकेश के मुताबिक, भारत में खेल और खिलाड़ियों के विकास के लिए खिलाड़ियों को खेल नीति बनाने दी जानी चाहिए। राजनेताओं और नौकरशाहों को बस इस नीति को अमल में लाने की ज़िम्मेदारी सौंपी जानी चाहिए।
हॉकी इंडिया की कोशिशों से भी मुकेश काफी नाखुश हैं। उनके मुताबिक हॉकी इंडिया बस दिखावा कर रहा है और काम के नाम पर औपचारिकताएं निभा रहा है। उदाहारण देते हुए मुकेश कहते हैं कि हॉकी को जमीनी स्तर पर बढ़ाना देने के मकसद से बनाई गयी हाई परफॉर्मेंस और विकास समिति की बैठक ही नहीं हुई है। इस समिति में ओलंपियन, अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों और मुख्य कोच शामिल हैं। जबकि इसी समिति को एक खाका तैयार करना है और ये भी सुनिश्चित करना है कि पूरे देश में सभी स्तर पर कोचिंग की एक ख़ास और प्रभावी तकनीक अपनाई जाए।
मुकेश मानते हैं कि अगर अभी सही कदम नहीं उठाये गए को देश में हॉकी लोगों से बहुत दूर चली जाएगी। हॉकी के प्रति युवाओं में जो थोड़ा बहुत क्रेज़ बचा है उसे भुनाना चाहिए। मुकेश की पत्नी निधि भी भारतीय राष्ट्रीय महिला टीम का हिस्सा रह चुकी हैं। काफी समय तक निधि ने भारत का प्रतिनिधित्व किया है। लेकिन इन दोनों ख्याति-प्राप्त पूर्व अंतर्राष्ट्रीय हॉकी खिलाड़ियों ने अपनी बेटी को हॉकी के मैदान पर न उतारकर बैडमिंटन कोर्ट पर उतारा है। ये बात भी भारत में हॉकी की मौजूदा हालात साफ़ बयान करती है।