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अब्दुल गफ्फार खान: हू-ब-हू बापू की तरह भारत रत्न एक और गांधी

98 वर्ष की जिंदगी में कुल 35 साल जेल में रहने वाले अब्दुल गफ्फार खान...

अब्दुल गफ्फार खान: हू-ब-हू बापू की तरह भारत रत्न एक और गांधी

Tuesday February 06, 2018 , 7 min Read

स्वतंत्रता संग्राम में महात्मा गांधी के सहयात्री रहे भारत रत्न से सम्मानित महान स्वतंत्रता सेनानी खान अब्दुल गफ्फार खान का आज (06 फरवरी) जन्मदिन है। वह अपनी 98 वर्ष की जिंदगी में कुल 35 साल जेल में रहे। सन् 1988 में पाकिस्तान सरकार ने उनको पेशावर स्थित घर में नज़रबंद कर दिया था और उसी दौरान 20 जनवरी, 1988 को उनकी मृत्यु हो गयी थी। आज के समय में भारत रत्न गफ्फार खान जैसे स्वातंत्र्य योद्धा के त्याग और संघर्ष से हमे मौजूदा राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्री राजनीतिक मूल्यों और भटकावों को जानने की दृष्टि मिलती है।

बापू के साथ अब्दुल गफ्फार खान

बापू के साथ अब्दुल गफ्फार खान


गांधी जी के कट्टर अनुयायी होने के कारण ही उनकी 'सीमांत गांधी' की छवि बनी। उनके भाई डॉक्टर ख़ां साहब भी गांधी के क़रीबी और कांग्रेसी आंदोलन के सहयोगी रहे। 

अविभाजित हिंदुस्तान के जमाने से भारत रत्न ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान को कई नामों से जाना जाता है - सरहदी गांधी, सीमान्त गांधी, बादशाह खान, बच्चा खाँ आदि। एकनाथ ईश्वरन गफ्फार खान की जीवनी 'नॉन वायलेंट सोल्जर ऑफ इस्लाम' में लिखते हैं - भारत में दो गांधी थे, एक मोहनदास कर्मचंद और दूसरे खान अब्दुल गफ्फार खां। उनका जन्म पेशावर (पाकिस्तान) के एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। गफ्फार खान बचपन से होनहार बिरवान रहे। अफ़ग़ानी लोग उन्हें बाचा ख़ान कहकर बुलाते थे।

हिंदुस्तान के लिए उनके दिल में अथाह प्यार था। स्वतंत्रता आंदोलन के दिनो में उन्होंने संयुक्त, स्वतन्त्र और धर्मनिरपेक्ष भारत बनाने के लिए सन् 1920 में 'खुदाई खिदमतगार' (सुर्ख पोश) संगठन बनाया। उनके परदादा आबेदुल्ला खान और दादा सैफुल्ला खान जितने सत्यनिष्ठ, उतने ही लड़ाकू थे। अंग्रेजों से लड़ने के साथ ही उन्होंने पठानी कबीलों के हितों की भी कई बड़ी लड़ाइयाँ लड़ी थीं। स्वतंत्रता आंदोलनकारी के रूप में वह प्राणदंडित हुए। आगे चलकर दादा-परदादा का शौर्य पुत्र के भी ज्ञान और पुरुषार्थ में प्रकट हुआ लेकिन उनके पिता बैराम खान शांत और आध्यात्मिक स्वभाव के थे। बीसवीं सदी में वह पख़्तूनों के प्रमुख नेता बन गए। वह महात्मा गांधी की राह चलने लगे।

तभी से उनका नाम पड़ गया सीमांत गांधी। आपका सीमा प्रान्त के क़बीलों पर अत्यधिक प्रभाव था। गांधी जी के कट्टर अनुयायी होने के कारण ही उनकी 'सीमांत गांधी' की छवि बनी। उनके भाई डॉक्टर ख़ां साहब भी गांधी के क़रीबी और कांग्रेसी आंदोलन के सहयोगी रहे। गांधी जी सहित अन्य स्वतंत्रता सेनानी भी अब्दुल गफ्फार खान को बादशाह ख़ान कहा करते थे। स्वतंत्रता आन्दोलन करते हुए उन्हे कई बार कठोर जेल यातनाओं का शिकार होना पड़ा। उन्होंने जेल में ही सिख गुरुग्रंथ, गीता का अध्ययन किया। उसके बाद साम्प्रदायिक सौहार्द्र के लिए गुजरात की जेल में उन्होंने संस्कृत के विद्वानों और मौलवियों से गीता और क़ुरान की कक्षाएं लगवाईं।

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अंग्रेज़ों ने जब 1919 में पेशावर में मार्शल लॉ लगाया तो ख़ान ने उनके सामने शांति प्रस्ताव रखा और बदले में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। सन 1930 में गाँधी-इरविन समझौते के बाद ही अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान को जेल से मुक्त किया गया। सन् 1937 के प्रांतीय चुनावों में कांग्रेस ने पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत की प्रांतीय विधानसभा में बहुमत प्राप्त किया तो ख़ान मुख्यमंत्री बने। उसके बाद सन् 1942 में वह फिर गिरफ्तार कर लिए गए। उसके बाद तो 1947 में अंग्रेजों से मुल्क आजाद होने के बाद ही उन्हें जेल से आजादी मिली। उससे एक दशक पहले ही वह महात्मा गांधी के सबसे करीबी और विश्वसनीय हो चुके थे। महात्मा गांधी के सचिव महादेव देसाई ने कभी कहा था कि अपनी खूबियों की वजह से गफ्फार खां तो गांधी जी से भी आगे निकल गए।

देश के बंटवारे तक खान के संगठन ख़ुदाई ख़िदमतगार ने कांग्रेस का साथ निभाया। वह हिंदुस्तान के बंटवारे के मुखर विरोधी रहे। अंग्रेजों से देश आजाद हो जाने और बंटवारे के बाद भी सरहदी गांधी ने पाकिस्तान में रहकर पख़्तून अल्पसंख़्यकों के हितों की लड़ाई छेड़ दी। अब उन्हें स्वतंत्र पाकिस्तान सरकार ने जेल में डाल दिया। उन्हें अपना निवास क्षेत्र पाकिस्तान से बदलकर अफगानिस्तान करना पड़ा। वह हमेशा ही भारत से अटूट मानसिक रूप से जुड़े रहे। उन्होंने सत्तर के दशक में पूरे भारत का भ्रमण किया। सन 1985 के 'कांग्रेस शताब्दी समारोह' में भी शामिल हुए। स्वतंत्र भारत में यह भी कितनी दुखद विडंबना है, पत्रकार विवेक कुमार बताते हैं कि उनके नाम पर आज देश की राजधानी दिल्ली की गफ्फार मार्किट में दो नंबर का सामान मिलता है।

ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान कहते थे कि इस्लाम अमल, यकीन और मोहब्बत का नाम है। उन्होंने कांग्रेस के समर्थन से भारत के पश्चिमोत्तर सीमान्त प्रान्त में ऐतिहासिक 'लाल कुर्ती' आन्दोलन चलाया। अब्दुल गफ्फार खान बताया करते थे कि 'प्रत्येक खुदाई खिदमतगार की यही प्रतिज्ञा होती है कि हम खुदा के बंदे हैं, दौलत या मौत की हमें कदर नहीं है। हमारे नेता सदा आगे बढ़ते चलते हैं। मौत को गले लगाने के लिए हम तैयार हैं। ...मैं आपको एक ऐसा हथियार देने जा रहा हूं जिसके सामने कोई पुलिस और कोई सेना टिक नहीं पाएगी। यह मोहम्मद साहब का हथियार है लेकिन आप लोग इससे वाकिफ नहीं हैं। यह हथियार है सब्र और नेकी का। दुनिया की कोई ताकत इस हथियार के सामने टिक नहीं सकती।'

फोटो साभार, सोशल मीडिया

फोटो साभार, सोशल मीडिया


इसके बाद तो सरहदी गांधी ने सरहद पर रहने वाले उन पठानों को अहिंसा का रास्ता दिखाया, जिन्हें इतिहास लड़ाकू मानता रहा। एक लाख पठानों को उन्होंने इस रास्ते पर चलने के लिए इस कदर मजबूत बना दिया कि वे मरते रहे, पर मारने को उनके हाथ नहीं उठे। नमक सत्याग्रह के दौरान 23 अप्रैल 1930 को गफ्फार खां के गिरफ्तार हो जाने के बाद खुदाई खिदमतगारों का एक जुलूस पेशावर के किस्सा ख्वानी बाजार में पहुंचा। अंग्रेजों ने उन पर गोली चलाने का हुक्म दे दिया। लगभग ढाई सौ लोग मारे गए लेकिन प्रतिहिंसा की कोई हरकत नहीं हुई। खुदाई खिदमतगार फारसी का शब्द है, जिसका अर्थ होता है ईश्वर की बनाई दुनिया का सेवक।

सन् 1929 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की एक सभा में शामिल होने के बाद ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान ने ख़ुदाई ख़िदमतगार की स्थापना की और पख़्तूनों के बीच लाल कुर्ती आंदोलन का आह्वान किया। विद्रोह के आरोप में उनकी पहली गिरफ्तारी तीन वर्ष के लिए हुई। उसके बाद उन्हें यातनाओं की झेलने की आदत सी पड़ गई। जेल से बाहर आकर उन्होंने पठानों को राष्ट्रीय आन्दोलन से जोड़ने के लिए अपना आन्दोलन और तेज़ कर दिया। सन् 1947 में भारत विभाजन के साल सीमान्त प्रान्त को भारत और पाकिस्तान में से किसी एक विकल्प को मानने की बाध्यता सामने आ गई। आखिरकार जनमत संग्रह के माध्यम से पाकिस्तान में विलय का विकल्प मान्य हुआ। ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान तब भी तब पाकिस्तान और अफगानिस्तान के सीमान्त जिलों को मिलाकर एक स्वतन्त्र पख्तून देश पख्तूनिस्तान की मांग करते रहे लेकिन पाकिस्तान सरकार ने उनके आन्दोलन को कुचल दिया।

अपनी डॉक्युमेंट्री 'द फ्रंटियर गांधीः बादशाह खान, अ टॉर्च ऑफ पीस' के बारे में बताते हुए मैकलोहान ने लिखा है- 'दो बार नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित हुए बादशाह खान की जिंदगी और कहानी के बारे में लोग कितना कम जानते हैं। 98 साल की जिंदगी में 35 साल उन्होंने जेल में सिर्फ इसलिए बिताए कि इस दुनिया को इंसान के रहने की एक बेहतर जगह बना सकें। सामाजिक न्याय, आजादी और शांति के लिए जिस तरह वह जीवनभर जूझते रहे, वह उन्हें नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग जूनियर और महात्मा गांधी जैसे लोगों के बराबर खड़ा करती हैं।

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