दिहाड़ी मजदूरों के बच्चों को पढ़ा लिखाकर नया जीवन दे रहे हैं ये कपल
दिहाड़ी मजदूर खासकर जो कंस्ट्रक्शन के क्षेत्र में काम करते हैं, अपने बच्चों की न तो अच्छे से देखरेख कर पाते हैं और न ही उनकी आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी होती है कि वे उन्हें स्कूल भेज पाएं, ऐसे में मसीहा बन कर आये ये युवा दंपति...
![दियाघर मे खेलते बच्चे](https://images.yourstory.com/production/document_image/mystoryimage/132ykbv1-DIYAGHAR.jpg?fm=png&auto=format)
दियाघर मे खेलते बच्चे
बेंगलुरु में एक यंग कपल ने बच्चों की जिंदगी संवारने का जिम्मा उठाया है। सरस्वती पद्मनाभन और उनके पति श्यामल कुमार मिलकर दियाघर नाम से एक संगठन चलाते हैं।
बच्चे के जन्म से लेकर शुरुआती 6 सालों तक उसकी देखरेख काफी जरूरी होती है। क्योंकि यह वक्त उसके समुचित विकास का होता है। अगर इस उम्र में उन्हें सही देखरेख और पालन पोषण न मिले तो उनकी आने वाली जिंदगी में अंधेरे के बादल छाने की पूरी संभावना रहती है। आमतौर पर हर किसी को अपने बच्चों से प्यार होता है और वे उनकी अपनी जान से भी ज्यादा परवाह करते हैं, लेकिन देश में एक तबका ऐसा भी है जो दो वक्त की रोटी कमाने के लिए अपने बच्चों की परवरिश नहीं कर पाता। दिहाड़ी मजदूर खासकर जो कंस्ट्रक्शन के क्षेत्र में काम करते हैं, अपने बच्चों की न तो अच्छे से देखरेख कर पाते हैं और न ही उनकी आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी होती है कि वे उन्हें स्कूल भेज पाएं।
बेंगलुरु में एक यंग कपल ने ऐसे ही बच्चों की जिंदगी संवारने का जिम्मा उठाया है। सरस्वती पद्मनाभन और उनके पति श्यामल कुमार मिलकर दियाघर नाम से एक संगठन चलाते हैं। यह संगठन कंस्ट्रक्शन क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों के बच्चों की शिक्षा-दीक्षा का प्रबंध करता है। दियाघर की वेबसाइट पर दी हुई जानकारी के मुताबिक अकेले बेंगलुरु में लगभग 13 लाख लोग स्लम इलाके में रहते हैं। जनसंख्या के लिहाज से यह शहर का 17 प्रतिशत होता है। बेंगलुरु में लगभग 40,000 बच्चे ऐसे हैं जिन्हें खाने, खेलने कूदने और शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं मिल रही हैं।
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सरस्वती ने बताया कि वे कंस्ट्रक्शन साइट पर काम करते लोगों के बच्चों को उनके साथ ही कार्यस्थल पर खेलते देखते थे। 2016 में उनके मन में इन बच्चों के लिए कुछ करने का ख्याल आया। जिसके बाद उन्होंने अपने पति श्यामल की सहायता से दियाघर की स्थापना की। उन्होंने कहा कि वह एक ऐसा स्पेस बनाना चाहती थीं जहां इन बच्चों को पढ़ाया लिखाया जा सके और उनकी देखभाल की जा सके। सरस्वती अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए कहती हैं, 'जब मैं छोटी थी तो हर जन्मदिन धूमधाम से मनाया जाता था और कई सारे बच्चे उसमें शामिल होने के िलए आते थे। इन बच्चों को देखकर मुझे बुरा लगता है कि इनकी जिंदगी में कितनी बड़ी चीज गायब है।'
सरस्वती पहले अमेरिका में जेल में रहने वाले सजायाफ्ता कैदियों के बच्चों के साथ काम करती थीं। उसके बाद उन्होंने मुंबई के स्ट्रीट चिल्ड्रेन के साथ काम किया। सरस्वती ने बताया कि उन्होंने दियाघर की स्थापना की लिए अपनी प्रॉपर्टी भी बेच दी। उन्होंने कहा, 'हमने अपनी प्रॉपर्टी बेचते वक्त एक बार भी नहीं सोचा। हमें लगता था कि हमें ऐसा करना चाहिए और हमने किया। इसके बाद दियाघर शुरू हुआ।' सरस्वती और श्यामल के खुद के तीन बच्चे हैं। जिनकी उम्र, 8, 5 और 4 साल है।
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जब उन्होंने दियाघर में बच्चों का दाखिला शुरू किया तो कई सारे माता-पिता काफी खुश थे और उन्हें यकीन नहीं हो रहा था कि उनके बच्चों को भी पढ़ने का मौका मिला था। लेकिन वहीं कुछ माता-पिता ऐसे भी थे जो थोड़ा संशकित थे और वे चाहते थे कि जहां वे काम कर रहे हैं वहीं अगर उनके बच्चों को पढ़ाने की व्यवस्था हो जाए तो शायद थोड़ा अच्छा रहे। दियाघर में सबसे पहले श्वेता और ऐरेश का दाखिला हुआ। उसके बाद कई सारे बच्चे आए। आज दियाघर में करीब 30 बच्चे हैं। यहां बच्चों को पढ़ाई के साथ-साथ उन्हें खेलकूद से भी रूबरू कराया जाता है। बच्चों को पढ़ाई के साथ-साथ प्यार दिया जाता है। इन बच्चों को यहां खाना भी दिया जाता है। दियाघर के बारे में और जानकारी के लिए या फिर मदद के लिए यहां जाएं।
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