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हिंदी आलोचक दोषी नहीं, 'अपराधी': गिरीश पंकज

हिंदी साहित्य में आलोचना...

हिंदी आलोचक दोषी नहीं, 'अपराधी': गिरीश पंकज

Thursday November 30, 2017 , 8 min Read

 समकालीन हिंदी साहित्य में खासतौर से छंदयुक्त कविता, गीत-नवगीत के प्रति आलोचकों की भूमिका आज सवालों में है। आधुनिक और उत्तरआधुनिक होने की ललक ने हमारे आलोचकों को गुमराह कर दिया है।

गिरीश पंकज और लीलाधर जगूड़ी

गिरीश पंकज और लीलाधर जगूड़ी


कसौटियां, खासकर कविता के लिए और वे भी जो हमेशा चल सकें, नहीं बनायी जा सकतीं क्योंकि कविता का जन्म ही अपने समय में परिवर्तन लेने के लिए या परिवर्तन का साथ निभाने के लए हुआ है। 

भाषा और विभाषा होते हुए भी कविता अपनी कोई और अव्यवहृत, अपारम्परिक भाषा से पैदा होने वाले इन्द्रजाल (जादू) के अज्ञात-अपरिचित अनुभाव का संस्पर्श है। 

हिंदी साहित्य में आलोचना का प्रश्न मुद्दत से आज भी चर्चाओं के केंद्र में है। शायद ही कोई ऐसा बड़ा कवि-साहित्यकार हो, जो हिंदी आलोचना-दृष्टि को लेकर खौला नहीं हो। संभवतः इन्हीं हालात के चलते प्रोफेसर नामवर सिंह और मैनेजर पांडेय के बाद हिंदी में और कोई ऐसा आलोचक प्रतिष्ठित नहीं हो पा रहा है, जिसे 'बड़ा' मानने से किसी को ऐतराज न हो। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बाद के आलोचकों पर सबसे बड़ा इल्जाम ये है कि उन्होंने गद्य और कविता के बीच का फर्क नष्ट करने में कोई कसर नहीं उठा रखी है।

वरिष्ठ कवि गिरीश पंकज का कहना है कि आज भी अनेक समकालीन पत्रिकाओं में प्रमुखता गद्य कविताओं को दी जा रही है, जबकि छंदबद्ध कविताओं और गीतों के माध्यम से भी नई चेतना मुखरित हो रही है लेकिन उसे बहुत कम 'स्पेस' मिल रहा है। इसके लिए मैं हिंदी आलोचकों को ही दोषी मानता हूँ, दोषी नहीं, उन्हें 'अपराधी' कहना सही होगा। आलोचक साहित्य की दशा और दिशा तय करते हैं। उनको पढ़ कर ही नया पाठक अपनी दृष्टि विकसित करता है। इसलिए मुझे लगता है कि अब नये आलोचक भी सामने आएं, जो छंदबद्ध रचनाओं के महत्व पर विमर्श करें।

छंदों के माध्यम से नया चिंतन सामने आ रहा है। और छंद की विशेषता यही है कि वह कविता स्मृतिलोक में बस जाती है। आज जो भी कविताएं अमर हैं, वह छंदबद्ध ही है या लयप्रधान हैं। समकालीन हिंदी साहित्य में खासतौर से छंदयुक्त कविता, गीत-नवगीत के प्रति आलोचकों की भूमिका आज सवालों में है। आधुनिक और उत्तरआधुनिक होने की ललक ने हमारे आलोचकों को गुमराह कर दिया है। नई पीढ़ी भी उनकी मानसिकता का शिकार हो कर उसी राह पर चल रही है। छंदबद्ध कविता को मध्ययुगीन मानसिकता समझने वाले नए दौर के हिंदी आलोचकों ने गद्यरूप में लिखी जा रही कविताओं को ही महत्व दिया। साठोत्तरी कविता और उसके बाद अब तक लिखी जा रही गद्य कविताओं को ही नई धारा का साहित्य बताया गया।

आलोचकों ने कविता के नए प्रतिमान के रूप में अपने विमर्शों के केंद्र में गद्य-कविता लिखने वालों पर बड़े-बड़े लेख लिखे। गद्य कवियों में अनेक अभिजात्य वर्ग के लोग शामिल थे। उनके अपने राजनीतिक-प्रशासनिक प्रभाव थे, उस कारण उन्हें आलोचकों ने अधिक महत्व दिया। उस दौर में, जब गद्य-कविता लिखी जा रही थी, तब भी गीत नवगीत में रूपांतरित हो रहा था, लेकिन उसको जानबूझ कर उपेक्षित किया गया। धीरे-धीरे पाठक भी उससे दूर होते गए। जब किसी की चर्चा ही न होगी, तो उस पर बात भी कैसे हो पाएगी? इस कारण छंदयुक्त कविताएं और गीत-नवगीत हाशिये पर चले गए और साहित्य के केंद्र में आ गई गद्य कविता।

लेकिन हमारे समय के विलक्षण कवि लीलाधर जगूड़ी गिरीश पंकज की बात से नाइत्तेफाकी रखते हुए गद्य और पद्य संबंधी निकष के प्रश्न पर कहते हैं कि निकष (कसौटी) तब काम आता है, जब अपने पास धातु हो, धातुओं में भी अपने पास स्वर्ण हो। ढाई अक्षर के तीन शब्द बहुत भ्रामक हैं- स्वर्ण, स्वर्ग और प्रेम। ये जीवन की जड़ता, उत्सर्ग और व्याप्ति के प्रतीक भी हैं। साहित्य ने अभाव और अंधकार को भी एक पदार्थ माना है। शब्द भी यहां धातु है। हर कर्म एक वृक्ष है, जिसमें फल की आकांक्षा नहीं करते हुए किसी 'निष्फल' की भी फल जैसी ही आकांक्षा करनी है। निषेध में स्वीकृति और स्वीकृति में निषेध। दोनों हाथ खालीपन के लड्डुओं से भरे हुए।

कसौटियां, खासकर कविता के लिए और वे भी जो हमेशा चल सकें, नहीं बनायी जा सकतीं क्योंकि कविता का जन्म ही अपने समय में परिवर्तन लेने के लिए या परिवर्तन का साथ निभाने के लए हुआ है। वह स्वरूप से लेकर प्रतिपाद्यता और निष्पत्ति तक भीतरी-बाहरी द्वंद्व और कल्लोल के साथ अंत में केवल एक शब्द और उसकी ध्वनि है। शब्द और उसकी ध्वनि की कसौटी केवल श्रोता, पाठक, और भावक अथवा ऐन्द्रिक मनुष्य की समस्त ज्ञान, अज्ञान और विज्ञानयुक्त चेतना है। ध्वन्यार्थ ही कविता की शक्ति है।

भामह और अन्य चिंतकों ने कविता के जो दोष बताये हैं, वे सबसे ज्यादा आज की कविता में मौजूद हैं। खासकर 'वार्ता' और 'वर्णन' मात्र जैसे दोषों की याद दिलाना चाहूंगा। जब भामह कहते हैं कि यह वर्णन है या कविता, यह वार्ता है या कविता, इन प्रश्नों की उत्सुकता से पता पड़ता है कि वर्णन और वार्ता काव्य के दोष हैं। लेकिन सचाई यह है कि प्राचीन कविता हो, चाहे आधुनिक, दोनों में वार्ता और वर्णन न कवल मौजूद हैं बल्कि भरे पड़े हैं। भामह शायद यह कहना चाहते हैं कि वर्णन और वार्ता दोनों में कविता होना जरूरी है। मतलब कि कविता इनसे इतर कोई और तत्व है।

भाषा और विभाषा होते हुए भी कविता अपनी कोई और अव्यवहृत, अपारम्परिक भाषा से पैदा होने वाले इन्द्रजाल (जादू) के अज्ञात-अपरिचित अनुभाव का संस्पर्श है। मैंने कुछ ज्यादा ही संस्कृत के शब्द उडे़ल दिये हैं। अनुभवातीत अनुभव कराने वाली नहीं भाषिक उपस्थिति हमेशा कविता के समकक्ष मानी गयी है। कविता का संदर्भ और भाषा, उसका कथन और ध्वन्यार्थ, उसका रूप (शिल्प) और कलेवर संतुलन यानी कि सब कुछ स्थापत्य की तरह पुख्ता और फूल की तरह आकर्षक होना चाहिए। उसे आकाश की तरह भारहीन और बिना किसी नींव की रंगीनियत से रंजित भी होना चाहिए। ऐसे शब्द और ऐसी ध्वनि विरल हैं। इसीलिए तो कविता भी विरल है। कसौटी नहीं, कविता की कामना महत्वपूर्ण है। कसौटियां हों, और कविता न हो तब क्या होगा?

जगूड़ी का कहना है कि निकष (कसौटी) बनाने वाले प्राचीन चिंतकों ने कविता के जितने दुर्गुण बताये हैं, वे आज कविता के मुख्य गुण बने हुए हैं। इसलिए कविता की कसौटी बनाकर खूंटा न गाड़ा जाए, तो अच्छा है। फिर भी कविता अपने कथन में कहानी की कथा से, नाटक की कथा से और निबंध की कथा से अलग तरह का स्वाद देती है। उसे देना चाहिए, अन्यथा वह सब विधाओं का हलवा बनकर रह जाएगी। कविता को हमेशा अपने को अलग बनाए रखने के लिए, अपनी प्राचीनता और समकालीनता, दोनों से संघर्ष करना है। इसीलिए अच्छी कविता अर्धनिर्मित भी पूरी दिखती है और पूरी भी अर्धनिर्मित। कविता को पूर्णता और अधूरापन दोनों पसंद हैं। हर पूर्णता में एक अधूरापन तलाशने वाली कविता के खतरे कम नहीं हैं। हर संकल्प में विकल्प पैदा करने वाली कविता निर्विकल्प कैसे हो सकती है? वह हर बार खुद ही अपना एक विकल्प गढ़ती और तोड़ देती है। गढ़ना ही उसका 'तोड़ना' है। कितने कवि हैं, जो अपने समय, जीवन और भाषिक संसार के टूटने को गढ़-गढ़कर तोड़ते हैं?

उनकी दृष्टि में अपने शिल्प और तौर-तरीकों का गुलाम हो जाना भी बहुत बड़ी रूढ़ि है। रूढ़ि भंजक कवियों की अच्छी कविताओं को एक जगह प्रस्तुत कर एक परिदृश्य रचा जा सकता है। जो कसौटी से भी बड़ा काम करेगा। वह बड़ा काम होगा कविता की मूल धातु बचाने का। अच्छा हो कि अच्छी कविता की हमेशा के लिए एक परिभाषा (कसौटी) न बनायी जाय। कविता को एक प्रवहमान नदी रहने दिया जाय, वह अपना तल काटे, चाहे तट, उसे बहने दिया जाय। कविता का पानी खुद अपने किनारे और अपनी मझधारें बना लेगा। कोई कवि अगर अपनी कविता का एक बांध बनाना चाहता हो तो यह उसकी अनुभव सिंचन और वैचारिक विद्युत उत्पादन की तकनीकी क्षमता तथा दक्षता पर निर्भर रहता है।

जो कवि लकीर का फकीर नहीं होगा, उसके संघर्ष, तपस्या और प्रयोग का आकलन अलग से करना होगा। उसकी अपनी कसौटी शायद उसके अपने काव्य में होगी। लेकिन यह जरूर देखा जाना चाहिए कि कितना वह कविता जैसी कविता लिखते रहने की रूढ़ हो चुकी परम्परा से पृथकता स्थापित करने के लिए अपने ज्ञान-विज्ञान से नया काम कर पाया। अपने में अपने से अलग होने की भी एक परम्परा प्रतिष्ठित होनी चाहिए। कविता को बड़े कवि भाषा की एक आदत न बनाकर उसे किसी नयी उपलब्धि में बदलने की निजी चेतना विकसित करते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कविता आकार में बड़ी है या छोटी। मन्तव्य बड़ा होता है। सरलता में जो गहनता होती है, वह रहस्यमय होते हुए भी टिकाऊ होती है। शब्दों के अम्बार और टेढ़ी-मेढ़ी पंक्तियों के बावजूद देखना चाहिए कि कविता वहां है भी या नहीं? प्रयोग की कोई सीमा नहीं, पर वह सार्थक होना जरूरी है। लेकिन निरर्थक दिखने वाला साहस भी सार्थक चीजें पैदा कर सकता है।

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