हिमाचल के ठंडे रेगिस्तान में खेती की चुनौती: बदलता जलवायु और बदलती फसल
हिमाचल प्रदेश के ठंडे मरुस्थल में सिंचाई के लिए बर्फ के पिघलने और उसके पानी न मिलने की वजह से खेती संकट में है. इस साल राज्य के लाहौल और स्पीति जिले के 76 गांव सूखे की चपेट में आ गए, जिसके कारण 50 से 100 फीसदी तक फसल बर्बाद हो गई है.
हिमाचल प्रदेश के ठंडे रेगिस्तान में स्थित तांदी गांव के 30 किसानों के लिए 2022 की गर्मी बेरहम साबित हुई. सिंचाई के लिए पानी की कमी के कारण लाहौल और स्पीति जिले के गांव में 50% से अधिक फसलें खराब हो गईं. गांव में अपने 20-बीघा खेत (1.61 हेक्टेयर) में मटर और फूलगोभी उगाने वाले रोमित कुमार ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि पिछले साल मटर की फसल से उनकी कमाई लगभग 2,00,000 रूपए हुई थी. इस गर्मी में मटर की फसल से उन्हें केवल 70,000 रूपए ही मिला.
हिमपात में गिरावट और जल्दी बर्फ पिघलने को इसकी वजह बताते हुए रोमित कुमार ने कहा कि लाहौल और स्पीति में किसानों के लिए पहाड़ों और हिमनदों से बर्फ का पिघला हुआ पानी सिंचाई का एकमात्र प्रमुख स्रोत है. रूखे जलवायु के कारण इसे हिमाचल प्रदेश का “ठंडे रेगिस्तान” के तौर पर जाना जाता है. लाहौल और स्पीति में कम वर्षा होती है क्योंकि यह इलाका वर्षा-छाया-क्षेत्र (rain shadow region) में स्थित हैं. अप्रैल और मई के बीच फसल की बुवाई के दौरान बहुत कम या बिलकुल बारिश नहीं होती है.
हिमाचल प्रदेश के मौसम के आंकड़ों के मुताबिक, हिमाचल प्रदेश के अन्य शहरों की तुलना में इस ठंडे रेगिस्तान में कम बारिश के साथ मानसून का मौसम बेहद रुखा रहता है.
इस साल 1 जून से 28 अगस्त के बीच, जिले की वास्तविक वर्षा 107 मिमी थी, जबकि राज्य की औसत वर्षा 569 मिमी थी.
रोमित कुमार का कहना है कि कुछ साल पहले तक, नवंबर का महीना शुरू होने के साथ ही लाहौल और स्पीति घाटी में मौसम की पहली बर्फबारी होती थी. मार्च तक, छह से सात फीट तक ठीक-ठाक बर्फ की चादर बन जाती थी, जो मार्च के अंत या अप्रैल तक बुवाई के समय पिघलना शुरू हो जाती थी. इस तरह सिंचाई के लिए पर्याप्त पानी सुनिश्चित होता था, लेकिन अब ऐसा नहीं है.
हिमाचल प्रदेश के मौसम विभाग के निदेशक सुरेंद्र पॉल ने पुष्टि की कि पिछले दो सर्दियों के मौसम में, लाहौल और स्पीति जिले सहित हिमालय के ऊपरी इलाकों में सामान्य से काफी कम बर्फबारी हुई है.
लाहौल और स्पीति के उपायुक्त (डीसी) सुमित खेमटा ने भी इसकी पुष्टि करते हुए कहा कि बदलती बारिश की वजह से जिले के कई हिस्सों के कूल्ह (पारंपरिक रूप से निर्मित सिंचाई चैनल) में बर्फ के पानी की उपलब्धता प्रभावित हुई है.
उन्होंने कहा कि बर्फ के पिघले पानी का उपयोग करने के लिए पहाड़ों के किनारे कुल्हे बनाएं जाते हैं और उन्हें सिंचाई के लिए खेतों की तरफ मोड़ दिया जाता है. खेमटा ने कहा, “चूंकि इस गर्मी में कुल्ह लगभग सूखे थे, इसलिए बुवाई के दौरान और बाद में खेतों में नमी ख़त्म हो गई, जिससे फसल के लिए संकट पैदा हो गया.”
लाहौल और स्पीति के सहायक आयुक्त रोहित शर्मा ने मोंगाबे-इंडिया से इस बात की पुष्टि की कि सूखे की गंभीर स्थिति है, इस गर्मी में जिले के 500 गांवों में से 76 गांवों में 50 से 100% के बीच फसल का नुकसान हुआ था. इसके अलावा, 50 से अधिक गांवों में 20% से 50% फसल बर्बाद हो गई है.
उन्होंने कहा, “हमने इन गांवों को आधिकारिक तौर पर सूखा प्रभावित क्षेत्र घोषित करने और मुआवजे का प्रावधान करने के लिए राज्य के राजस्व विभाग के साथ-साथ राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण को रिपोर्ट भेज दी है.”
जाहलमा गांव के सरपंच (ग्राम परिषद के नेता) कृष्णा ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि पहले के सालों में, बर्फ़ीली सर्दियों के कुछ महीनों को छोड़कर बाकी महीनों में कूल्हों में लगभग पूरे साल बर्फ का पानी बहता था.
उन्होंने कहा कि पिछले कुछ सालों में कम बर्फबारी और गर्म तापमान के कारण कूल्हों में पानी की उपलब्धता में भारी कमी आई है.
उन्होंने आगे बताया, “इस सीजन में कूल्हों में पानी नहीं था, ऐसी स्थिति का सामना हमने पहले कभी नहीं किया था. नतीजतन, हमें अपने खेतों की सिंचाई के लिए पर्याप्त पानी नहीं मिला, जिससे हमारे फसल उत्पादन और इसकी गुणवत्ता में भारी गिरावट आई है.”
हिमाचल प्रदेश में हिमपात और हिमनदों का अध्ययन कर रहे भूविज्ञानी सुनील धर ने बताया कि कम बर्फबारी और बर्फों के जल्दी पिघलने के कारण लाहौल और स्पीति जिले पिछले दो-तीन सालों से परेशानी का सामना कर रहे हैं.
सरकारी पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज, धर्मशाला में भूविज्ञान विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर धर ने कहा कि सबसे ऊपर के ग्लेशियर लगातार घट रहे हैं, जो अच्छी खबर नहीं है, खासकर हिमालयी क्षेत्र के ऊपरी इलाकों में रहने वालों के लिए. .
उन्होंने बताया कि हिमाचल प्रदेश में 2010 से हर साल 10 से 15 मीटर की रफ्तार से ग्लेशियर कम हो रहे हैं, जो बेहद चिंता का विषय है.
हिमाचल प्रदेश स्टेट काउंसिल फॉर साइंस टेक्नोलॉजी एंड एनवायरनमेंट (हिमकोस्टे) के तहत काम करने वाले हिमाचल प्रदेश सेंटर ऑन क्लाइमेट चेंज ने पिछले साल एक रिपोर्ट जारी की, जिसमें अक्टूबर 2020 और मई 2021 के बीच राज्य में बर्फ के आवरण में 19% की गिरावट बताई गई थी.
ग्लोबल वार्मिंग को जिम्मेदार ठहराते हुए, हिमकोस्टे के वरिष्ठ वैज्ञानिक, एस.एस. रंधावा ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि कई अध्ययनों ने संकेत दिया है कि पहाड़ियों के ऊपरी इलाके, निचले क्षेत्रों की तुलना में ग्लोबल वार्मिंग की चपेट में आ रहे हैं.
उदाहरण के लिए इस मौसम में, हिमालयी क्षेत्र के ऊंचे इलाकों में वर्षा देर से हुई, जिसमें लाहौल और स्पीति भी आते हैं. फिर अचानक तापमान में पांच से छह डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई, नतीजतन बर्फ जल्दी पिघल गई.
बर्फ जल्दी पिघलने के कारण अप्रैल में फसल की बुवाई शुरू होने पर पारंपरिक सिंचाई स्रोतों में बर्फ का पिघला हुआ पानी उपलब्ध नहीं था. इन समस्याओं के संभावित समाधान क्या हो सकते हैं? इस पर रंधावा ने कहा, “हमें संरक्षण के प्रयास करने चाहिए और जलवायु परिवर्तन की परिस्थितियों को तेजी से अपनाना चाहिए.”
सरपंच कृष्णा ने कहा कि मौसम के तेज बदलाव के कारण और भी घटनाएं होती हैं, जो किसानों की आजीविका को प्रभावित करती हैं. उन्होंने कहा कि उदाहरण के लिए, पिछले साल जुलाई (2021) में बेतहाशा बारिश होने के कारण बाढ़ आई थी, ऐसी बारिश उन्होंने पहले कभी नहीं देखी थी.
बाढ़ में जिले के अधिकांश पुल बह गए या तबाह हो गए. बारिश की वजह से कई दिनों तक इस जिले का शेष हिमाचल प्रदेश से संपर्क टूटा रहा. किसानों की उगाई गई सब्जियां समय पर बाज़ार नहीं जा सकीं और कुछ ही दिनों में खराब हो गईं, जिससे किसानों को नुकसान हुआ.
क्या फसल के पैटर्न में बदलाव से हिमाचल के ठंडे रेगिस्तान में संकट बढ़ रहा है?
लाहौल और स्पीति में टिकाऊ खेती पर एक नया अध्ययन बताता है कि ग्लेशियर के कम होने और बर्फबारी में कमी के कारण किसानों की आजीविका खतरे में है.
इस अध्ययन में कहा गया है कि पिछले 20 सालों में, जिले में पारंपरिक और जल प्रतिरोधी फसलों जैसे जौ से लेकर फूलगोभी, और आलू जैसी आर्थिक रूप से फायदेमंद नकदी फसलों के पैटर्न में बदलाव आया है.
शोधकर्ताओं ने लिखा है, “लेकिन अधिक पानी वाले नकदी फसलों से खेती अस्थिर हो रही है, इस क्षेत्र में सिंचाई और जल स्रोत पहले से ही तेजी से सूख रहे हैं.”
सिंचाई सुविधाओं के संदर्भ में दो गांवों, लाहौल घाटी के घोषाल और स्पीति घाटी के लोसार के प्राथमिक सर्वेक्षण पर आधारित शोध-पत्र से पता चला कि इन दोनों गांवों में मुख्य रूप से हरी मटर की तुलना में फूलगोभी और पत्तागोभी के क्षेत्र, उत्पादन और उपज में काफी बढ़ोतरी हुई थी.
बाकी जिले में भी ऐसा ही रुझान दिखा. उदाहरण के लिए, 2005-06 के दौरान 33 हेक्टेयर में फूलगोभी की खेती थी, जो 2016-17 में बढ़कर 658 हेक्टेयर हो गई, यह कुल खेती वाले क्षेत्र का लगभग 15% है. इसके विपरीत इसी अवधि में जौ की फसल 608 हेक्टेयर से घटकर 400 हेक्टेयर रह गई.
दूसरी ओर, घोषाल में लगभग 60% किसानों और लोसर में 90% किसानों ने कहा कि कूल्हों में बर्फ पिघलने का पानी घटने के कारण उचित सिंचाई सुविधा की कमी उनके सामने एक बड़ी समस्या है.
पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़ से अध्ययन की सह-लेखिका अनुपमा शाशनी ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि बर्फ से पिघले कूल्ह के पानी (जिसे बारी सिस्टम कहा जाता है) का उपयोग रहवासी बारी-बारी करते हैं. प्रत्येक घर को अपने खेत के आकार और सिंचाई की जरूरत के अनुसार कूल्ह के पानी का उपयोग करने के लिए प्रतिदिन निश्चित घंटे दिए जाते हैं.
लेकिन कूल्ह सूखने के कारण गांवों में संघर्ष पैदा हो गया है क्योंकि हर कोई अपने हिस्से का पानी हासिल करने को बेचैन है. शाशनी ने कहा, हालांकि संघर्ष अभी भी सामुदायिक स्तर पर सुलझाए गए हैं क्योंकि लाहौल और स्पीति में स्थानीय समुदाय अभी भी एक-दूसरे पर बहुत अधिक निर्भर हैं, फिर भी संकट बढ़ रहा है.
अध्ययन में लाहौल और स्पीति में पानी की बचत करने वाली सिंचाई विधियों की खोज करने के अलावा सूखे की स्थिति के अनुकूल फसलों की नई किस्मों को पेश करने की बात कही जा रही है.
शाशनी ने कहा कि लाहौल और स्पीति में किसानों के लिए फूल-गोभी, पत्ता-गोभी और आलू जैसी अधिक लाभकारी नकदी फसलों को छोड़कर, जौ जैसी जलरोधी फसलों की खेती करना मुश्किल है, क्योंकि इन नकदी फसलों से होने वाला आर्थिक लाभ अधिक है. उन्होंने कहा, “इसलिए, हमें सिंचाई के अन्य साधनों की खोज के अलावा नकदी फसलों की नई किस्मों में, जो जल प्रतिरोधी हो, उनमें अधिक निवेश करने की आवश्यकता है.”
अध्ययन में सीमेंटेड कूल्हों की समय पर मरम्मत और रिसाव के माध्यम से पानी की बर्बादी से बचने के लिए भंडारण टैंकों के निर्माण का भी सुझाव दिया गया है.
अध्ययन के अनुसार, नीति निर्माताओं को लद्दाख में बनाए गए ‘कृत्रिम ग्लेशियर’ और ‘बर्फ के स्तूप’ जैसी नवीन जल संचयन संरचनाओं के निर्माण की व्यावहारिकता की भी जांच करनी चाहिए.
दोनों का उद्देश्य सर्दियों के महीनों के दौरान हिमनदों के पानी को जमे हुए रूप में संग्रहित करना और मार्च और अप्रैल में बुवाई के मौसम के दौरान जब सिंचाई के लिए पानी की कमी होती है उस समय खेतों में पानी उपलब्ध कराना है.
हिमाचल के ठंडे रेगिस्तान में उम्मीद की पहल
जिले के कुछ स्थानों पर किसानों ने सिंचाई के वैकल्पिक स्रोत तलाश करके अपनी समस्या का निपटारा खुद ही करने का फैसला कर लिया है. उदाहरण के लिए, तांदी गांव ने एक किलोमीटर पाईप-लाइन बिछाने के लिए 20 लाख रुपये खर्च किया है. चंद्रा नदी से पानी लेने के लिए पम्पिंग स्टेशन बनाया जा रहा है, जो गांव से अधिक दूर नहीं है. तांदी गांव के कुमार ने मोंगाबे-इंडिया को बताया कि गांव के सभी 30 परिवारों ने प्रति घर 80,000 रूपए का योगदान किया है. उन्होंने कहा कि सिस्टम का ट्रायल रन पिछले महीने हुआ और यह सफल रहा.
उन्होंने ने कहा, “यह एक महंगा काम था. लेकिन हमारे पास और कोई विकल्प नहीं था. पारंपरिक कूल्हो में पानी की उपलब्धता अनिश्चित होने के कारण, हम अपनी फसलों को एक के बाद एक मौसम में मरने के लिए नहीं छोड़ सकते. साथ ही, यह हमारे अस्तित्व की बात है. खेती हमारे लिए जीने का एकमात्र समाधान है.”
नई पहल की सफलता के बाद आसपास के गांवों के निवासियों ने उनसे मुलाकात की है. यहां तक कि स्थानीय राजनेता ने भी उस जगह का दौरा किया और गांव को अनुदान देने का वादा किया है.
सिंचाई की समस्या से निपटने के लिए स्थानीय प्रशासन किस तरह किसानों की मदद करने की योजना बना रहा है, इस पर डीसी खेमटा ने मोंगाबे-इंडिया से कहा कि यह उचित अध्ययन का विषय है, जिस पर जल्द ही विचार किया जाएगा.
(यह लेख मुलत: Mongabay पर प्रकाशित हुआ है.)
बैनर तस्वीर: लाहौल घाटी के गांव घोषाल में खेती करती महिला. तस्वीर - अनुपमा शशनी