दिल्ली की 700 साल पुरानी निजामुद्दीन बस्ती में लौट रही पुरानी रौनक
कुछ समय पहले निजामुद्दीन बस्ती का खोया हुआ मान वापस दिलाने के लिए इसके नवीनीकरण की योजना पर काम शुरू किया गया. आगा खान ट्रस्ट ने यहां के स्मारकों को पुनर्जीवित किया. परियोजना में पर्यावरण का ख्याल भी रखा गया और समुदाय के समग्र और सतत विकास में निवेश किया गया.
दिल्ली की निजामुद्दीन बस्ती अपने आप में एक अलग दुनिया है. इसे सूफी संतों और धार्मिक स्थलों के लिए भी जाना जाता है. लोधी कॉलोनी और खान मार्केट जैसे पड़ोसी इलाकों की तुलना में यहां एकदम अलग अनुभव होता है.
बस्ती में घुसते ही यहां संस्कृति के कई रंग देखने को मिलते हैं. आज भी सात सौ साल पुरानी दीवारें, तंग और घुमावदार गलियां इतिहास का पाठ पढ़ाती हैं. पुरानी इमारतों के अलावा बस्ती की परंपरा, खान-पान, संगीत और हस्तशिल्प भी इसकी जीवंत सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक है.
सात सौ साल से इस बस्ती की जो रौनक बरकरार थी, पिछले कुछ वर्षों में खराब होने लगी थी. कभी एक सांस्कृतिक केंद्र की प्रतिष्ठा रखने वाले बस्ती की छवि कई बुनियादी दिक्कतों की वजह से खराब हो रही थी.
हाल के दिनों में एकबार फिर इस बस्ती के दिन पलटे हैं. यह संभव हुआ एक विकास परियोजना की वजह से. आगा खान ट्रस्ट फॉर कल्चर (एकेटीसी) ने यहां निजामुद्दीन बस्ती नवीनीकरण परियोजना चलाई.
इस विकास परियोजना की शुरुआत, संयुक्त राष्ट्र के 17 सतत विकास लक्ष्यों में से 15 को प्राप्त करने के उद्देश्य से, हुई थी. इसके तहत क्षेत्र और यहां के लोगों के सतत विकास के साथ-साथ 20 से अधिक ऐतिहासिक स्मारकों का संरक्षण हुआ.
बस्ती के कायाकल्प के लिए निजी भागीदारी का एक मॉडल अपनाया गया. परियोजना को वर्ष 2008 में शुरू किया गया था. इसके तहत तीन मुख्य क्षेत्रों स्वास्थ्य, शिक्षा और पर्यावरण स्वच्छता पर काम किया गया. इसके माध्यम से सामाजिक आर्थिक चुनौतियों पर काबू पाने की कोशिश हुई. 2021 में निजामुद्दीन बस्ती को सांस्कृतिक विरासत संरक्षण के लिए यूनेस्को एशिया-पेसिफिक पुरस्कारों में दो पुरस्कार मिले. ये पुरस्कार थे सतत विकास के लिए विशेष मान्यता पुरस्कार और उत्कृष्टता पुरस्कार.
परियोजना ने सामुदायिक विकास को विरासत संरक्षण में कैसे शामिल किया, इस सवाल के जवाब में आगा-खान ट्रस्ट फॉर कल्चर के सीईओ और निज़ामुद्दीन अर्बन रिन्यूअल इनिशिएटिव के प्रोजेक्ट डायरेक्टर रतीश नंदा ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “हम एक ऐतिहासिक सिटी सेंटर विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसा मॉडल जहां संरक्षण और विकास, दोनों साथ-साथ होता है. इसमें शिक्षा, स्वच्छता, रोजगार और शहरी विकास शामिल हैं. हम विरासत को एक संपत्ति के रूप में देख रहे हैं, बोझ के रूप में नहीं. और, हम इसे अपनी परियोजनाओं के माध्यम से प्रदर्शित कर रहे हैं.”
नंदा के अनुसार, निजामुद्दीन बस्ती नवीनीकरण पहल के पांच प्रमुख स्तंभ हैं-आजीविका सृजन, पर्यावरण स्वच्छता, शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और विरासत से जुड़े लोगों का सतत विकास.
निजामुद्दीन बस्ती में पर्यावरण को पुनर्जीवित करना
ट्रस्ट के काम शुरु करने से पहले निजामुद्दीन बस्ती के पर्यावरण की हालत ठीक नहीं थी. यहां लोगों की प्रमुख चिंता अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करना था. बस्ती को नया रूप देने में कुछ प्रमुख पर्यावरणीय चुनौतियां थीं, जैसे बस्ती और उसके आसपास के जल स्रोतों में प्रदूषण, घटती हरियाली और स्थानीय लोगों में पर्यावरण जागरूकता की कमी. ट्रस्ट ने उन मुद्दों को हल करने के लिए लोक भागीदारी का तरीका अपनाया और लोगों को उसकी जिम्मेदारी दी.
इस परियोजना की पहली बड़ी जीत 800 साल पुराने हजरत निजामुद्दीन औलियास बावली (बावड़ी) के जीर्णोद्धार के साथ हुई. यह दिल्ली की इकलौती बावली है जो आज भी भूमिगत झरनों (एक्वेफर) से भरी हुई है. 2008 में संरचना में सीवेज के पानी के रिसने के कारण बावली की दीवारों के कुछ हिस्से गिर गए थे. इसे और बदतर बनाया स्थानीय लोगों ने जिन्होंने इसे कचरा फेकने की जगह बना दी. प्रोजेक्ट टीम ने पहले पानी निकाला और फिर पिछले 700 वर्षों में जमा हुए कचरे को हटा दिया. हालांकि बावली का पानी अभी भी पीने योग्य नहीं है, स्थानीय लोग इसका उपयोग सफाई और खेती के लिए कर सकते हैं.
एक और बड़ी पर्यावरणीय जीत निजामुद्दीन बस्ती के साथ बहने वाले बारापुल्ला नाले (धारा) की गाद निकालना रहा. इसके साथ ही आसपास के बस्तियों को हरा-भरा बनाकर इलाके को खूबसूरत बनाया गया. बारापुल्ला नाला कभी यमुना की सहायक वर्षा नदी थी. अब यह अपशिष्ट जल, ठोस कचरा और सीवेज के साथ एक गंदा नाला बन गया था. यहां से एक हजार ट्रक से अधिक कचरा हटाया गया.
ट्रस्ट के अनुरोध पर दिल्ली जल बोर्ड ने नाले के सामने वाले घरों से शौचालय के कचरे को इकट्ठा करने और मुख्य सीवेज लाइन से जोड़ने के लिए 300 मीटर लंबी सीवेज लाइन बिछाई.
निजामुद्दीन नवीकरण परियोजना में सुंदर नर्सरी भी शामिल है, जहां 18000 पेड़ लगाए गए हैं और 22000 वर्गमीटर के मौजूदा सड़क नेटवर्क को घटाकर 8000 वर्गमीटर कर दिया गया है. आज यह उद्यान दिल्ली के सबसे हरे-भरे स्थानों में से एक बन गया है.
पर्यावरण के मुद्दों में स्थानीय लोगों को शामिल करना कितना महत्वपूर्ण है, इस पर जोर देते हुए, रतीश नंदा ने कहा, “हम स्थानीय लोगों को परियोजना का मालिक बनाना चाहते थे ताकि वे इसमें पूरे दिल से भाग ले सकें. इसलिए उनके हमारे पास आने का इंतजार करने के बजाय हम उनके घर चले गए. लोगों को यह बात समझाने में वर्षों लग गए. उनका विश्वास जीतने के लिए, टीम ने उनके साथ संवाद किया. पर्यावरण शिक्षा एसडीएमसी स्कूल में शुरू की गई थी. इको क्लब में शामिल बस्ती के बच्चों ने टेरेस प्ले, रूफ-गार्डन, नो-प्लास्टिक जोन आदि जैसी गतिविधियों के माध्यम से पर्यावरण जागरूकता पैदा की.
यह पूछे जाने पर कि स्वास्थ्य के लिए पर्यावरण संरक्षण क्यों महत्वपूर्ण है, नंदा ने जवाब दिया, “कई स्वास्थ्य समस्याएं प्रदूषण और कचरे से पैदा होती हैं जिन्हें दूर फेंक दिया जाता है. अनुचित कचरा प्रबंधन, कचरे से दूषित पानी और अनुपचारित सीवेज कई बीमारियों को जन्म देता है. इसलिए, परियोजना पर काम करते समय, हमारे लिए यह महत्वपूर्ण था कि हम बस्ती के निवासियों को पर्यावरण संरक्षण के महत्व को समझाएं.”
2008 तक बस्ती के सामने सबसे बड़ी समस्याओं में से एक स्वच्छ और सुरक्षित शौचालयों की कमी थी. पूरी बस्ती में 25% से अधिक घरों में शौचालय नहीं थे और इसलिए उन्हें दो सार्वजनिक शौचालयों पर निर्भर रहना पड़ता था, जो न तो स्वच्छ थे और न ही महिलाओं के लिए सुरक्षित थे.
पैंतीस वर्षीय अनीसा पुराने दिनों को याद करती हैं, “शौचालय की दीवारें बहुत नीची थीं. लड़के उन पर चढ़ जाते थे और हमें परेशान करते थे. शौचालय बिल्कुल भी सुरक्षित नहीं थे और बहुत बदबूदार भी थे.”
ट्रस्ट ने सामुदायिक शौचालय की स्थिति को सुधारने और बनाए रखने के लिए रहमत निगरानी समूह का गठन किया. यह तीस शौचालय सीटों और स्नान और धुलाई क्षेत्र के साथ दक्षिण दिल्ली का आदर्श शौचालय बन गया है – यह उस गंदे शौचालय से काफी अंतर था. स्थानीय लोगों को सार्वजनिक शौचालय की देखभाल करने और आगंतुकों को स्वच्छता बनाए रखने के लिए शिक्षित करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है.
शौचालयों के अलावा, निजामुद्दीन बस्ती नवीनीकरण परियोजना ने बारापुल्ला नाला, निजामुद्दीन बावली, स्थानीय पार्कों, सड़कों और स्कूलों के भूनिर्माण और सौंदर्यीकरण का भी काम किया.
आजीविका, शिक्षा, विरासत
2008 में बस्ती की महिलाओं के लिए रोजगार के अवसर पैदा करने और प्रशिक्षण देने के लिए एकेटीसी द्वारा एक महिला स्वयं सहायता समूह इंशा-ए-नूर का गठन किया गया था. अड़तालीस वर्षीय जैदा ने 2008 में यहां सिलाई सीखना शुरू किया और तब से वह संगठन का एक अनिवार्य हिस्सा बन गई हैं. उसने बताया कि इंशा-ए-नूर में शामिल होना उसके जीवन के सबसे अच्छे फैसलों में से एक था. इससे न केवल उनकी आर्थिक स्थिति ठीक हुई, बल्कि काफी आत्मविश्वास और सम्मान मिल रहा है.
अपने बच्चों के बारे में बताते हुए उनकी आंखों में एक खास चमक आ गई. उन्होंने कहा कि उनके बच्चे उनपर काफी गर्व करते हैं. “बच्चे भी दूसरे बच्चों को कहते कि हमारी अम्मी ये सब करती है,“ वह कहतीं हैं.
आजीविका सृजन के अलावा इस परियोजना ने शिक्षा और शिक्षा के बुनियादी ढांचे में सुधार किया है. साथ ही, स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में कई विकास किए हैं. विरासत के बारे में लोगों को बताना भी इस परियोजना की आधारशिला रही है. इससे निजामुद्दीन के युवाओं को रोजगार भी मिलता है. ये हुमायूं के मकबरे और रहीम के मकबरे जैसे विश्व धरोहर स्थल सहित हजरत निजामुद्दीन क्षेत्र में नियमित रूप से हेरिटेज वॉक कराते हैं.
(यह लेख मूलत: Mongabay पर प्रकाशित हुआ है.)
बैनर तस्वीर: बारापुल्ला नाले की पहले और बाद की स्थिति. तस्वीर सौजन्य - एकेटीसी