हिम्मत, हौसले और उम्मीद का सशक्त उदाहरण है वैष्णवी और माँ की 'परवरिश'
एक समय था जब डॉक्टरों ने ताउम्र के लिए वैष्णवी को अक्षम घोषित कर दिया था, लेकिन वैष्णवी को देख कर लगता है, कि मेडिकल साइंस आज स्वयं अक्षम साबित हो गया है।
जब लखनऊ के क्वीन मैरी हॉस्पिटल में वैष्णवी का जन्म हुआ, तो जन्म के साथ ही उसकी मां कुसुम कमल और इन्जीनियर पिता की मानो हर इच्छा पूरी हो गयी। दोनों की बस एक ही इच्छा थी और वो थी किस तरह वैष्णवी के साथ अधिक से अधिक खेला जा सके। लेकिन हैरत वाली बात थी, कि अनेक कोशिशों और दुलार-मनुहार के बावजूद भी वैष्णवी उनकी तरफ कोई ध्यान नहीं देती। ये बात धीरे-धीरे बेचैनी का रूप अख्तियार करने लगी और फिर मालूम चला कि वैष्णवी एक ऐसी समस्या से जूझ रही है जो उसके मां-बाप के लिए बेहद तकलीफ की बात थी।
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वैष्णवी की दादी एक डॉक्टर थीं, इसलिए जिस शारीरिक समस्या से वैष्णवी जूझ रही थी उसका पता लगाने में ज्यादा समय नहीं लगा। डेढ़ साल की उम्र में ही ये मालूम हो गया था, कि वैष्णवी अॉटिज़्म नामक डिस्अॉर्डर से पीड़ित है।
आज परवरिश जाना हुआ। बड़ी ही सुकूनबख्श जगह है। छोटे-छोटे बच्चे खेल रहे थे, हां बच्चे कुछ अलग तरह के थे। जैसे एक गमले में तरह-तरह के फूल होते हैं। एक बच्चे से उसका नाम पूछता, कि तब तक परवरिश की निदेशक कुसुम कमल आ गईं। बातचीत शुरू हुई, इतने में उन्होंने पहले पानी और फिर चाय लाने का निर्देश दिया। पानी आया, मेज पर रखा गया। पानी लाने वाली बच्ची वैष्णवी थी, जो अॉटिज्म से पीड़ित है।
वैष्णवी को देख के आंखे दंग रह गईं। मेडिकल साइंस की पराजय का जीता-जागता चलायमान दस्तावेज मेरी आखों के सामने से गुजर गया। एक वो समय भी था जब वैष्णवी को डॉक्टरों ने ताउम्र के लिए अक्षम घोषित कर दिया था, लेकिन वैष्णवी के सामने आज मेडिकल साइंस खुद अक्षम साबित हो गया है। दरअसल वैष्णवी की दास्ताँ हिम्मत, हौसले और उम्मीद का भैतिक सत्यापन है। वैष्णवी के जन्म के साथ ही उसकी मां कुसुम कमल का भी पुनर्जन्म होता है।
अपने दोस्तों के साथ संगीत की धुन पर थिरकती वैष्णवीa12bc34de56fgmedium"/>
"वैष्णवी की बीमारी की जानकारी मिलने के बाद इलाज की छटपटाहट ने तेजी पकड़ ली और वैष्णवी को लखनऊ के मेडिकल कालेज से लेकर दिल्ली के सर गंगा राम और मुम्बई के हिन्दुजा अस्पताल तक इलाज के लिए ले जाया गया। कहीं कोई खराब जवाब तो कहीं चेकअप के ढेर सारे बिल, लेकिन समाधान का कहीं कोई पता नहीं।"
ये दास्तां शुरू होती है 4 अगस्त 2003 से, जब लखनऊ के क्वीन मैरी हॉस्पिटल में वैष्णवी का जन्म हुआ है। जन्म के साथ ही उसकी मां कुसुम कमल और इन्जीनियर पिता की मानो हर इच्छा पूरी हो गयी। दोनों लोगों की बस एक ही इच्छा रहती थी, वैष्णवी के साथ कैसे अधिक से अधिक खेला जा सके। लेकिन हैरत होती थी कि इतने दुलार-मनुहार के बाद भी वैष्णवी उनकी तरफ कोई ध्यान नहीं देती थी। ये बात धीरे-धीरे बेचैनी का रूप अख्तियार करने लगी। चूंकि वैष्णवी की दादी खुद एक डॉक्टर थीं, लिहाजा समस्या के बारे में अन्दाजा लगाने में देर नहीं लगी। डेढ़ साल की उम्र में ये ज्ञात हो गया, कि वैष्णवी अॉटिज्म नामक डिस्आर्डर से पीड़ित है। पूरे परिवार पर मानो वज्रपात हो गया हो। वैष्णवी की मां कुसुम कमल बताती हैं, कि वैष्णवी का विकास अत्यन्त धीमा था।
सात वर्ष की अवस्था में वैष्णवी खुद दैनिक कार्यों से निवृत हो पाने में सक्षम हो सकी। अब जब बीमारी की जानकारी मिल चुकी थी, तो इलाज की छटपटाहट ने तेजी पकड़ी और वैष्णवी को लखनऊ के मेडिकल कालेज से लेकर दिल्ली के सर गंगा राम और मुम्बई के हिन्दुजा अस्पताल तक इलाज के लिए ले जाया गया। कहीं खराब जवाब तो कहीं चेकअप के ढेर सारे बिल किन्तु समाधान का कहीं कोई पता नहीं। मन में निराशा घर कर रही थी। परी जैसी दिखने वाली वैष्णवी का अधूरापन पूरा नहीं हो रहा था। जहां वैष्णवी के हम उम्र बच्चे खेलकूद समेत अन्य क्रियाकलापों में सक्रिय हो रहे थे वहीं वैष्णवी की दुनिया कुछ और ही थी। मिलने-जुलने वाले उपहास उड़ा रहे थे। कोई पागल तो कोई गूंगी बताता था।
घर में निमंत्रण भेजने वाले रिश्तेदार और मित्र कहने लगे थे, कि वैष्णवी को मत लाइयेगा। मां-बाप को ये बातें और तानें नश्तर की तरह चुभने लगे थे। लेकिन ये तो दुनिया है, यहां कौन किसी के दर्द का साझी होता है। मां कुसुम कमल ने हार नहीं मानी। अब तक वो समझ चुकी थीं, कि मेडिकल जगत की अपनी सीमायें हैं, समाधान उसके आगे से प्राप्त होगा।
आलम तो ये हो गया, कि घर में निमंत्रण भेजने वाले रिश्तेदार और मित्र कहने लगे थे, कि वैष्णवी को मत लाइयेगा। मां-बाप को ये बातें और तानें नश्तर की तरह चुभने लगे थे। लेकिन ये तो दुनिया है, यहां कौन किसी के दर्द का साझी होता है। मां कुसुम कमल ने हार नहीं मानी। अब तक वो समझ चुकी थीं, कि मेडिकल जगत की अपनी सीमायें हैं, समाधान उसके आगे से प्राप्त होगा। कुसुम ने समझ लिया था कि जिस प्रकार ईश्वर अपना संदेश पृथ्वी तक भेजने के लिए देवदूतों को भेजता है ठीक उसी प्रकार वैष्णवी (लिटिल ऐन्जेल) के रूप में ईश्वर ने उसके पास एक पैगाम भेजा है। अब शिकायतों और संशय के घेरे खत्म हो चुके थे और संकल्पों के बांध बंधने लगे थे। कुसुम ने सबसे पहले तो अपनी बेटी वैष्णवी और उसके जैसे बच्चों को सहारा देने और सक्षम बनाने के लिए खुद की तैयारी और समझ विकसित की।
2009-2012 तक कुसुम कमल ने पूरी तरह से सक्षम होने के बाद एक स्वयंसेवी संगठन 'परवरिश' की बुनियाद रखी, जो आज की तारीख में लगभग 70 स्पेशल बच्चों का सहारा है।
जैसै-जैसे मां कुसुम कमल की समझ बढ़ी, उसी के सापेक्ष वैष्णवी की सक्षमता भी। आज वैष्णवी खुद चाय बनाती है और सर्व भी खुद ही करती है। खाना बनाना तो उसे बेहद पसंद है। भिन्डी काटने के कौशल में वो सामान्य लड़कियों से बहुत आगे है। आटा गूंथने में भी मां को खुशी-खुशी सहयोग करती है। हां, प्याज काटते वक्त आंख से आंसू निकल आते हैं जिसे कभी मां तो कभी वो खुद मां के प्यारे आंचल से पोंछ देती है।
डासिंग में ज्यादा रुचि रखने वाली वैष्णवी परवरिश के वार्षिकोत्सव में मंच पर प्रस्तुति भी देती हैं। अभी तो ये शुरूआत है, जैसे-जैसे सुधार बढ़ेगा, क्षमताओं का प्रदर्शन भी बढ़ेगा। 'परवरिश' के माध्यम से वैष्णवी के साथ-साथ आज लगभग 70 स्पेशल बच्चों को पूरा सहयोग और प्रशिक्षण प्राप्त हो रहा है। वैष्णवी की 'मां' और 'परवरिश' की निदेशक कुसुम कमल कहती हैं,
'संस्थान में बच्चों को आत्म निर्भर बनाने के लिए कैण्डिल बनाने और सिलाई-कढ़ाई का प्रशिक्षण भी दिया जाता है। थेरेपी से लेकर व्यायाम तक सभी कुछ वक्त पर होता है। आने वाले वक्त में ये बच्चे आत्मनिर्भर बनेंगे। ये स्पेशल बच्चे हैं जो सामान्य बच्चों से कहीं अधिक अनुशासित और एकाग्र होते हैं। बस समाज से ये गुजारिश है कि वे यदि स्पेशल बच्चों के लिए ताली न बजा सकें तो कोई बात नहीं, किन्तु कम से कम उंगली न उठायें, इन्हें धिक्कारें नहीं।'
वैष्णवी की मां का कहना है कि उनकी पहचान उनकी बेटी वैष्णवी से है। वो आज जो कुछ भी हैं अपनी बेटी की वजह से हैं। उनके अनुसार उनकी बेटी उनके लिए ईश्वर का एक संदेश लेकर आई है, जिसकी मदद से वो वैष्णवी जैसे बच्चों को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए प्रयासरत हैं।
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