सबरीमाला के बाद अब निजामुद्दीन दरगाह पर महिलाओं के प्रवेश के लिए याचिका
महिलाएं लगातार अपने धार्मिक अधिकारों पर मुखर हैं। सबरीमाला में महिलाओं के प्रवेश की इजाजत का मामला सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजदू क्रियान्वित नहीं हो पा रहा है, इस बीच झारखंड की तीन लड़कियों ने हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह में महिलाओं के प्रवेश की याचिका दिल्ली हाईकोर्ट में पेश कर दी है।
'जब सुप्रीम कोर्ट ने केरल के सबरीमला में हर उम्र वर्ग की महिलाओं को प्रवेश देने की अनुमति दे दी है तो फिर राष्ट्रीय राजधानी की महिलाओं को दरगाह में प्रवेश देने से क्यों रोका जा रहा है?'
सबरीमला मंदिर मामले की दलील देते हुए झारखंड की तीन लड़कियों ने दिल्ली हाई कोर्ट में अधिवक्ता कमलेश कुमार मिश्रा के माध्यम से एक जनहित याचिका दाखिल कर हजरत निजामुद्दीन औलिया के दरगाह में महिलाओं के प्रवेश की अनुमति देने के लिए केंद्र और अन्य प्राधिकारों को निर्देश देने की मांग की है। कहा गया है कि दरगाह पर जिन नियमों का पालन किया जा रहा है, वे दरगाह ट्रस्ट के बनाए हुए हैं और उनका किसी भी जगह लिखित प्रमाण नहीं है।
याची शिवांगी कुमारी, दीबा फ़रयाल और अनुकृति सुगम पुणे के बालाजी लॉ कॉलेज में बीए (एलएलबी) की की छात्रा हैं। अपनी जनहित याचिका में उन्होंने दावा किया है कि दरगाह के बाहर हिंदी और अंग्रेजी में नोटिस लगा है- महिलाओं को प्रवेश की अनुमति नहीं। उनको दरगाह में महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी के बारे में उस समय पता चला, जब वे पिछले महीने 27 नवंबर को दरगाह गई थीं। उनका तर्क है कि जब भीतर मर्द जा सकते हैं तो औरतें क्यों नहीं? शिवांगी का कहना है कि हज़ारीबाग़ की रहने वाली हैं। वहां भी एक मज़ार है लेकिन वहां कभी भी अंदर जाने से नहीं रोका गया। वे हाजी अली दरगाह गई हैं, अजमेर शरीफ़ दरगाह गई हैं लेकिन वहां तो कभी नहीं रोका गया। फिर यहां क्यों रोका जा रहा है।
गौरतलब है कि हाजी अली में भी महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध था, जिसे दो महिलाओं ने मुंबई हाईकोर्ट में चुनौती दी थी। उस पर फ़ैसला सुनाते हुए कोर्ट ने कहा था कि हाजी अली दरगाह में महिलाओं के प्रवेश पर लगाया गया बैन भारत के संविधान की धारा 14, 15, 19 और 25 का उल्लंघन है। उसके बाद से दरगाह में महिलाओं के प्रवेश से पाबंदी हटा ली गई है। ये ग़लत है। कोई हमें इबादत से कैसे रोक सकता है। कितना ख़राब लगता है कि चढ़ाने के लिए फूल की थाली-चादर ख़रीदो लेकिन उसे चढ़ाए कोई और। जब हम वहां से लौटीं तो बहुत अजीब महसूस हो रहा था। हमने बहुत देर तक इस पर आपस में चर्चा की। इसके बारे में पढ़ाई की तो जाना कि ये कोई धार्मिक क़ानून नहीं है, क्योंकि ऐसा किसी भी धार्मिक किताब में नहीं लिखा है। हमने पीआईएल डालने की सोची लेकिन डर लग रहा था कि कहीं हमारे साथ कुछ ग़लत न हो जाए। लोग धमकी न देना शुरू कर दें। हमारा करियर न प्रभावित हो जाए लेकिन फिर लगा कि हम ग़लत तो कुछ भी नहीं कर रहीं, फिर डर किस बात का।
'महिलाओं के प्रवेश की अनुमति पर रोक' को असंवैधानिक घोषित करने की मांग करने वाली इन तीनो छात्राओं का कहना है कि 'पैग़ंबर अब्राहम तब तक अपना खाना नहीं खाते थे, जब तक उनके साथ खाने के लिए कोई और न बैठा हो। कई बार तो वह साथ खाने वाले की तलाश में मीलों दूर तक चले जाया करते थे। एक बार उनके साथ एक ऐसा शख़्स था, जो बहुत से धर्मों को मानता था। पैग़ंबर को उसे खाने के लिए पूछने में हिचकिचाहट हो रही थी। तभी एक दिव्य वाणी ने उनसे कहा- हे अब्राहम! हम इस शख़्स को ज़िंदगी दे सकते हैं लेकिन तुम इसे खाना नहीं दे सकते। अब आप ही बताइए जब ख़ुदा बंदे में फ़र्क़ करने से मना करता है तो क्या मर्द और औरत में फ़र्क़ करना ठीक है? ये ठीक नहीं है। इसीलिए हमने जनहित याचिका डाली है।
दिल्ली पुलिस सहित कई प्राधिकारों से उन्होंने आग्रह किया लेकिन कोई जवाब नहीं मिला, तब जाकर उन्होंने हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। जब सुप्रीम कोर्ट ने केरल के सबरीमला में हर उम्र वर्ग की महिलाओं को प्रवेश देने की अनुमति दे दी है तो फिर राष्ट्रीय राजधानी की महिलाओं को दरगाह में प्रवेश देने से क्यों रोका जा रहा है। हम तो यूं ही घूमने चले गए थे। हमें तो ख़ुद भी अंदाज़ा नहीं था कि ऐसा कुछ हो जाएगा। दोपहर का समय था। हम तीनों अपने दो और दोस्तों के साथ दरगाह गए थे। हमने दरगाह पर चढ़ाने के लिए चादर ख़रीदी और फूल वाली थाली ली लेकिन चढ़ा नहीं सके। हम जैसे ही दरगाह के भीतर घुसने को हुए, सामने एक तख़्ती पर लिखा देखा कि औरतों का अंदर जाना मना है।'
दिल्ली हाई कोर्ट ने इस मामले पर दिल्ली सरकार समेत सभी संबंधित पक्षों से जवाब तलब किया है। मामले की अगली सुनवाई 11 अप्रैल 2019 को होगी। याचिका दायर करने वाले एडवोकेट कमलेश मिश्रा ने दिल्ली सरकार, दिल्ली पुलिस कमिश्नर, हज़रत निज़ामुद्दीन थाने के एसएचओ और दरगाह ट्रस्ट को पार्टी बनाया है। उनका तर्क है कि किसी भी धार्मिक जगह पर लिंग भेद करना संविधान के विरुद्ध है। निज़ामुद्दीन दरगाह एक सार्वजनिक स्थल है, जहां कोई भी अपनी मर्ज़ी से जा सकता है। ऐसे में महिलाओं को रोकना ग़लत है। दरगाह के जिम्मेदार पदाधिकारी कहते हैं कि एक तो दरगाह का कोई ट्रस्ट नहीं है। इसको अंजुमन पीरज़ादगान निज़ामिया ख़ुसरवी देखते हैं।
दूसरे, हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया औरतों से पर्दे की एक ओट से मिलते थे। इसीलिए यहां वर्षों से इबादत या दर्शन की यही परंपरा है। कोई औरत हो या मर्द, यहां किसी के साथ भेद-भाव नहीं किया जाता है। यहां सभी धर्मों के लोग आते हैं। यहां औरतें बैठकर फ़ातिहा पढ़ती हैं। उनके लिए दरगाह की बीस दरी के एक बड़े हिस्से को सिर्फ़ महिलाओं के लिए रखा गया है। व्यवस्था है कि कोई भी व्यक्ति दरगाह में वली की क़ब्र से सवा मीटर की दूरी से ही दर्शन करे। अजमेर शरीफ़ दरगाह में भी लोग क़रीब दो मीटर की दूरी से ही दर्शन करते हैं। बहुत सी ऐसी भी दरगाहें हैं, जहां औरत-मर्द कोई नहीं जा सकता है। बहुत सी ऐसी हैं, जहां दोनों जा सकते हैं। बख़्तियार काकी की दरगाह के पीछे बीबी साहिब की मज़ार पर तो लड़के भी नहीं जा सकते हैं।
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